अयोध्या में राम मंदिर बनाने की माँग फिर से
सुनाई पड़ रही है. रविवार को विश्व हिन्दू परिषद ने अयोध्या की ‘धर्मसभा’ में आंदोलन को जारी
रखने का संकल्प किया. शिवसेना के अध्यक्ष उद्धव ठाकरे भी अयोध्या आए और उन्होंने कहा
कि केंद्र सरकार के पास मंदिर बनाने का पूरा अधिकार है. ऐसा नहीं करेगी तो यह
सरकार दोबारा नहीं बनेगी, लेकिन राम मंदिर जरूर बनेगा. ठाकरे की दिलचस्पी अपने
वोटर में है. उन्होंने सरकार से मंदिर
निर्माण की तारीख पूछी है.
उधर नागपुर की ‘हुंकार सभा’ में संघ
प्रमुख मोहन भागवत ने इस बात पर खेद व्यक्त किया कि राम मंदिर सुप्रीम कोर्ट की
प्राथमिकता नहीं है. उन्होंने कहा, ‘हमारे धैर्य का समय बीता जा रहा है. एक साल
पहले तक मैं कहता था, धैर्य रखो, आज मैं कह रहा हूँ कि अब आंदोलन निर्णायक हो.’ उन्होंने
सरकार से कहा कि वह सोचे कि मंदिर कैसे बनाया जा सकता है. संघ के एक राष्ट्रीय
नेता इंद्रेश कुमार ने मंगलवार को एक गोष्ठी में सुप्रीम कोर्ट पर भी तीखी टिप्पणी कर दी. उन्होंने कहा
कि सरकार कानून बनाने जा रही है. चुनाव की आदर्श आचरण संहिता लागू है, इसलिए घोषणा नहीं की है. साथ में उनका कहना है कि सरकार कानून बनाने का प्रस्ताव लाए, तो संभव है कि सुप्रीम कोर्ट उसे स्टे कर
दे. ‘हो सकता है आदेश लाने के खिलाफ कोई सिरफिरा सुप्रीम
कोर्ट जाएगा, तो आज का चीफ जस्टिस उसे स्टे भी कर सकता है.’ बीजेपी और संघ के नेता सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ खुलकर बोल रहे हैं. उधर विहिप नेता कह रहे हैं, ‘अब याचना नहीं, रण
होगा.’ निर्मोही
अखाड़े के महंत रामजी दास ने कहा, मंदिर निर्माण की तारीख की घोषणा महाकुंभ के
दौरान की जाएगी.
ज्यादातर बयान संघ या उसके अनुषंगी
संगठनों के हैं. प्रधानमंत्री इस मसले पर कम बोलते हैं. अलबत्ता राजस्थान की चुनाव
सभा में उन्होंने इस मसले को उठाया. कांग्रेस
पर मंदिर निर्माण में अवरोध उत्पन्न करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय में देर करने
की नीति अपनाने और न्यायाधीशों को महाभियोग से डराने का खतरनाक खेल खेलने के आरोप
के साथ. साध्वी ऋतंभरा से लेकर उमा भारती तक ने अपनी-अपनी घोषणाएं कर दी हैं. विहिप
विशेषज्ञ सुझाव दे रहे हैं कि सरकार को कानून बनाकर मंदिर निर्माण करना चाहिए.
अचानक राम मंदिर के घोष से आकाश गूँजने
लगा है. शोर वैसा है, जैसा तीन दशक पहले 1989-90 के आसपास था. आंदोलन उतना
जबर्दस्त नहीं है. फिर भी यह समझने की जरूरत है कि यह क्या है, और क्यों है. यह सब राजनीतिक है. पर इस वक्त क्यों? विधानसभा चुनाव में से आधे हो चुके
हैं. राजस्थान और तेलंगाना में मतदान बचा है. क्या मंदिर-प्रसंग वसुंधरा को बचा
लेगा?
किसी ने कहा मोदी 11 के बाद तारीख तय
करेंगे. क्या सरकार 11 दिसंबर को चुनाव परिणाम आने का इंतजार कर रही है? या वह 11 दिसंबर से शुरू होने वाले
संसद-सत्र में विधेयक पेश करेगी? दोनों बातें बेमानी लगती हैं. क्या यह
सुप्रीम कोर्ट पर दबाव बनाने की कोशिश है? केरल के सबरीमाला में भी बीजेपी आंदोलन के पीछे
है. सुप्रीम कोर्ट के कड़े आदेशों के बावजूद इस साल दीपावली पर जैसे पटाखे छोड़े
गए, उसका संदेश था ‘पीड़ित हिन्दुओं’ की
प्रतिक्रिया. यह संघ की योजना हो सकती है.
यदि यह राजनीतिक है, तो सारे संदेश
लोकसभा चुनाव के लिए हैं. मंदिर को लेकर बीजेपी पर दबाव है. उद्धव ठाकरे के
अयोध्या आने का मतलब है, बीजेपी के बरक्स खड़े होना. बीजेपी को कांग्रेस के ‘सॉफ्ट
हिन्दुत्व’ का जवाब भी देना है. कपिल सिब्बल ने अदालती सुनवाई में
विलंब की कोशिश करके पार्टी को इस बात का मौका दिया है. कांग्रेस न तो मस्जिद के पुनर्निर्माण की बात कह सकती है और न मंदिर
का विरोध कर सकती है.
संघ ने कहा है कि सरकार रास्ते खोजे. रास्ते
क्या हैं? अध्यादेश
लाना है तो संसद-सत्र शुरू होने के पहले लाना होगा. अधिवेशन 11 दिसंबर को शुरू
होगा और 8 जनवरी तक चलेगा. अध्यादेश हो या न हो, संसद में विधेयक लाना होगा.
विधेयक को पास कराने की चुनौती है. पास हुआ भी तो उसे अदालत में चुनौती दी जा
सकेगी. सब इतना सरल नहीं है. सरकार कुछ नाटकीय करना भी चाहेगी तो एक हद पर जाकर सब
रुक जाएगा. यह माहौल बनाने की कोशिश लगती है. सुप्रीम कोर्ट ने जनवरी से इस मामले
की सुनवाई शुरू करने की बात कही है. तब तक कुछ न कुछ हवा में रहेगा.
नब्बे के दशक वाले आंदोलन और आज के इस आंदोलन
में भी फर्क है. पिछले रविवार को तमाम बड़े दावों के बावजूद अयोध्या में उतनी भारी
भीड़ नहीं आई, जितना प्रचार किया गया. तब की बीजेपी में आडवाणी जी, मुरली मनोहर
जोशी, उमा भारती जैसे तमाम नेता इस आंदोलन गाव-गाँव, गली-गली में ले जा रहे थे. नरेंद्र
मोदी भी मंदिर-समर्थक हैं, पर वे आंदोलनकारी नहीं हैं. उनकी दिलचस्पी आर्थिक मसलों
में है.
सन1989 से 2009 तक भारतीय जनता पार्टी
अयोध्या में भव्य राम मंदिर बनाने का वादा करती रही. यह वादा नरेंद्र मोदी के
नेतृत्व में उतरी भाजपा ने भी किया था, पर
उतनी शिद्दत के साथ नहीं. सन 2014 के 42 पेजों के चुनाव घोषणापत्र में 41 वें पेज
पर महज दो-तीन लाइनों में यह वादा किया गया. वह भी मंदिर निर्माण के लिए संभावनाएं
तलाशने का वादा. यह भी कि यह तलाश सांविधानिक दायरे में होगी.
अयोध्या मामले का राजनीतिकरण काफी हद
तक हो चुका है. अब मंदिर बने या न बने उसके जिक्र, किसी विवाद या झगड़े का फायदा
बीजेपी को मिलेगा. बीजेपी-विरोधी जब यह सवाल उठाते हैं, तो फायदा भी बीजेपी को
मिलता है. यह बात उन लोगों को समझ में नहीं आई, जो
अदालत में इसकी सुनवाई रोकने की कोशिश कर रहे थे. इस आंदोलन से जो राजनीतिक फ़ायदा
मिल सकता था, वह बीजेपी उठा चुकी है. उसे सन 1991 में बहुमत नहीं मिला था, जब
आंदोलन चल रहा था. 6 दिसंबर 1992 की घटना के बाद 1993 में जब उत्तर प्रदेश में
चुनाव हुए, तब बीजेपी की सरकार नहीं बनी.
सन 2014 में जब पूर्ण बहुमत से बीजेपी
की सरकार बनी तो मंदिर का मुद्दा था ही नहीं. अब भी नहीं है. मसला है भी तो बीजेपी
के कोर-वोटर का समर्थन बनाए रखने का है. यह जिम्मेदारी संघ की है. संघ और पार्टी
के अंतर्विरोध भी हैं. बहरहाल अदालती तारीखें इसकी याद बनाए रखती हैं.
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन भालजी पेंढारकर और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
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