गुजर
रहा साल 2018 भारतीय राजनीति के दृष्टिकोण से सेमी-फाइनल वर्ष था। अब हम फाइनल
वर्ष में प्रवेश करने जा रहे हैं। अगला साल कुछ बातों को स्थायी रूप से परिभाषित
करेगा। राजनीतिक स्थिरता आई तो देश आर्थिक स्थिरता की राह भी पकड़ेगा। जीडीपी की
दरें धीरे-धीरे सुधर रहीं हैं, पर बैंकों की हालत खराब होने से पूँजी निवेश की
स्थिति अच्छी नहीं है। सार्वजनिक क्षेत्र के सात बैंकों में सरकार पुनर्पूंजीकरण
बांड के जरिए 28,615 करोड़ रुपये की पूंजी डाल रही है। इस तरह वे रिजर्व बैंक की
त्वरित सुधारात्मक कार्रवाई (पीसीए) रूपरेखा से बाहर निकलेंगे और फिर से कर्ज
बांटने लायक हो जाएंगे।
चुनाव
की वजह से सरकार को लोकलुभावन कार्यक्रमों के लिए धनराशि चाहिए। राजस्व घाटा
अनुमान से ज्यादा होने वाला है। जीएसटी संग्रह अनुमान से 40 फीसदी कम है। इसमें
छूट देने से और कमी आएगी। केंद्र सरकार लोकसभा चुनावों से पहले किसानों के कल्याण
के लिए कुछ बड़ी योजनाओं का ऐलान करेगी। हालांकि वह कर्ज माफी और सीधे किसानों के
खाते में रकम डालने जैसी योजनाओं के पक्ष में नहीं हैं, पर खर्चे बढ़ेंगे। राजनीतिक
और आर्थिक मोर्चों के बीच संतुलन बैठाने की चुनौती सरकार के सामने है।
राजनीतिक
दृष्टि से इस पूरे साल का आकलन करें, तो लगेगा कि यह कांग्रेस के आंशिक उभार और
बीजेपी के आंशिक पराभव का साल था। इस साल नौ राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए और
कुछ महत्वपूर्ण उपचुनाव हुए, जिनसे 2019 के राजनीतिक फॉर्मूलों की तस्वीर साफ हुई
है। तस्वीर का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है गठबंधनों की राजनीति। क्या पूरे देश में
एनडीए और यूपीए का सीधा मुकाबला सम्भव है?
बीजेपी का नेतृत्व जो भी कहे, इस बात को काफी लोग मानते हैं
कि उन्हें उतनी सीटें नहीं मिलेंगी, जितनी 2014 में मिली थीं। उस चुनाव में बीजेपी
को 282 और एनडीए को कुल 336 सीटें मिली थीं। पिछले साढ़े चार साल में बीजेपी के
संगठन का काफी विस्तार हुआ है। एनडीए से सदस्य दलों की संख्या 44 हो गई है, जो
यूपीए की दुगुनी से ज्यादा है। उधर साल के शुरू में तेलुगु देशम पार्टी और हाल में
बिहार में उपेंद्र कुशवाहा की रालोसपा ने एनडीए
का साथ छोड़ा है। पर भागने वाले दोनों दलों के लिए 2019 का चुनाव खतरे की घंटी बजा
रहा है। आंध्र में जगन
मोहन रेड्डी के नेतृत्व में वाईएसआर कांग्रेस तेलुगु देशम के लिए खतरा बनकर उभर
रही है। बिहार में जेडीयू की एनडीए में वापसी
हुई है, जिसके कारण गणित बदला है। आंध्र में तेदेपा पर अस्तित्व का संकट है वैसा
ही खतरा महाराष्ट्र में शिवसेना के सामने है।
बीजेपी
के साथ गठबंधन शिवसेना की मजबूरी है, पर इसबार गठबंधन की शर्तें कड़ी होंगी। शायद इस
वजह से उद्धव ठाकरे आग उगल रहे हैं। पिछले चुनाव में महाराष्ट्र की 48 में से 20 सीटें
शिवसेना को मिली थीं, जिनमें से 18 पर उसकी जीत हुई। बीजेपी ने 24 पर चुनाव लड़ा,
जिनमें से 23 पर जीती थी। उद्धव ठाकरे कई बार कह चुके हैं कि हम अकेले चुनाव
लड़ेंगे। पर उनके सांसद मानते हैं कि अकेले लड़े तो 6-7 सीटें जीतना भी मुश्किल हो
जाएगा। बेशक बीजेपी को भी नुकसान होगा, पर शायद शिवसेना का सूपड़ा साफ हो जाएगा।
इस साल महाराष्ट्र विधानसभा का चुनाव भी है। विधानसभा के
पिछले चुनाव और उसके बाद स्थानीय निकाय चुनावों में बीजेपी को मिली भारी सफलता के
बाद से शिवसेना के रुख में तल्खी आई है। सवाल है कि उसके पास विकल्प क्या है? हाल में ममता बनर्जी ने शिवसेना को फेडरल
फ्रंट में खींचने की कोशिश की है, पर इससे दोनों का नुकसान होगा। ममता का
महाराष्ट्र में प्रभाव नहीं है और बंगाल में शिवसेना का शून्य। उन्हें अपने मुस्लिम
वोटर की नाराजगी भी झेलनी होगी। यह एक अंतर्विरोध है। ऐसे ही तमाम अंतर्विरोध हैं,
जो दोनों-तीनों तरह के मोर्चों के लिए पहेली बन रहे हैं।
तीसरे
मोर्चे या थर्ड फ्रंट का जिक्र पिछले चार दशक में बार-बार होता है, पर यह पूरी तरह
कभी नहीं बना और इसे बनाने की कोशिशें भी कभी नहीं रुकीं। इस वक्त दो तरह के
मोर्चों की बातें हैं। एक ‘गैर-भाजपा महागठबंधन’ और दूसरा ‘गैर-भाजपा, गैर-कांग्रेस संघीय मोर्चा।’ कह नहीं सकते कि एनडीए और यूपीए के अलावा कोई तीसरा गठबंधन
राष्ट्रीय स्तर पर बनेगा या नहीं। अलबत्ता महागठबंधन की चर्चा के बीच के चंद्रशेखर
राव ने ‘फेडरल फ्रंट’ का
विकल्प पेश करके चर्चा में जान डाल दी है। केसीआर और ममता बनर्जी इसे एक अरसे से
पेश कर रहे हैं। कभी शरद पवार ने भी इसमें दिलचस्पी दिखाई थी।
यूपी
में सबसे बड़ा मुकाबला है। बीजेपी के खिलाफ यहाँ किसका मोर्चा बनेगा? इस मोर्चे में कांग्रेस भी शामिल होगी या नहीं? यह सवाल इसलिए उठा है क्योंकि केसीआर ने हाल में नवीन पटनायक और ममता बनर्जी
से मुलाकात के बाद दिल्ली में अखिलेश यादव और मायावती से मुलाकात की योजना बनाई थी।
यह मुलाकात टल गई। सपा-बसपा ने कांग्रेस को सेकर अपने पत्ते अभी खोले नहीं हैं। सम्भावना
है कि जनवरी के पहले हफ्ते में इनकी मुलाकात केसीआर से होगी। उत्तर प्रदेश में
फेडरल गठबंधन के किसी घटक का असर नहीं है। पर सपा-बसपा उसमें शामिल हुए तो यह
फ्रंट प्रभावशाली हो जाएगा। त्रिशंकु संसद की स्थिति में एनडीए के बाद यह दूसरा
सबसे बड़ा मोर्चा होगा। यूपीए से बड़ा।
महागठबंधन
की योजना बना रहे सभी दल कांग्रेस-प्रेमी नहीं हैं। इस साल अप्रैल-मई में कर्नाटक विधानसभा के
चुनाव में भी कांग्रेस ने अकेले ही लड़ना पसंद किया और जेडीएस को मुँह नहीं लगाया।
चुनाव परिणाम आने के दिन बारह बजे तक गठबंधन नहीं था। फिर अचानक गठबंधन बन गया। यह
बात जेडीएस को अच्छी तरह समझ में आती है। कर्नाटक विधान सौध के मंच पर विरोधी दलों
की एकता के अंतर्विरोध भी नजर आए। नवीन पटनायक शपथ-समारोह में नहीं आए। चंद्रशेखर
राव भी सिर्फ इसलिए नहीं आए कि वे कांग्रेसी नेताओं के साथ खड़े होना नहीं चाहते
थे। तेलंगाना में कांग्रेस उनका प्रतिस्पर्धी दल है। इन सभी दलों का एक गठबंधन
नहीं बन सकता। येचुरी और ममता बनर्जी की पार्टियाँ एक साथ नहीं आएंगी। द्रमुक और
अन्नाद्रमुक एक गठबंधन में नहीं रहेंगे।
इस
साल आठ विधानसभा के चुनाव भी हैं। इनमें तीन अक्तूबर-नवम्बर में होने हैं। इनमें जम्मू-कश्मीर भी
शामिल है। क्या ये सब लोकसभा चुनाव के साथ होंगे? इस सवाल का जवाब भी जल्द मिलेगा।
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (31-12-2018) को "जाने वाला साल" (चर्चा अंक-3202) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
सटीक और प्रभावी रपट
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