दिल्ली में हुई दो दिन की किसान रैली ने किसानों
की बदहाली को राष्ट्रीय बहस का विषय बनाने में सफलता जरूर हासिल की, पर राजनीतिक
दलों के नेताओं की उपस्थिति और उनके वक्तव्यों के कारण यह रैली महागठबंधन की चुनाव
रैली में तब्दील हो गई। रैली का स्वर था कि किसानों का भला करना है, तो सरकार को बदलो।
खेती-किसानी की समस्या पर केन्द्रित यह आयोजन एक तरह से विरोधी दलों की एकता की
रैली साबित हुआ। सवाल अपनी जगह फिर भी कायम है कि विरोधी एकता क्या किसानों की
समस्या का स्थायी समाधान है? सवाल यह भी है कि मंदिर की राजनीति के मुकाबले इस राजनीति में क्या खोट है? राजनीति में सवाल-दर-सवाल है, जवाब किसी के पास नहीं।
किसानों की समस्याओं का समाधान सरकारें बदलने से
निकलता, तो अबतक निकल चुका होता। ये समस्याएं आज की नहीं हैं। रैली का उद्देश्य किसानों
के दर्द को उभारना था, जिसमें उसे सफलता मिली। किसानों के पक्ष में दबाव बना और तमाम
बातें देश के सामने आईं। रैली में राहुल गांधी, शरद पवार, सीताराम येचुरी, अरविंद
केजरीवाल, फारुक़ अब्दुल्ला, शरद यादव और योगेन्द्र यादव वगैरह के भाषण हुए।
ज्यादातर वक्ताओं का निशाना प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर था। बीजेपी की भागीदारी
थी नहीं इसलिए जो कुछ भी कहा गया, वह एकतरफा था।
पिछले साल मध्य प्रदेश के मंदसौर किसानों के
आंदोलन में गोली चलने से छह व्यक्तियों की मौत के बाद और पिछले कुछ वर्षों से
किसानों की आत्महत्या की खबरों के कारण खेती-किसानी विमर्श के केन्द्र में है।
वोटरों का सबसे बड़ा तबका गाँवों से जुड़ा है। राजनीतिक दलों की दिलचस्पी उन्हें
लुभाने में है। लोकसभा चुनाव में अब कुछ महीने बाकी हैं। वर्तमान सरकार ने अपने
शुरुआती दिनों में भूमि-अधिग्रहण कानून में बदलाव की कोशिश की थी। उसपर कॉरपोरेट
जगत की समर्थक होने का आरोप भी है। इन बातों के मद्देनजर रैली के राजनीतिक
निहितार्थ स्पष्ट हैं।
तीस साल पहले अक्तूबर 1988 में भारतीय किसान
यूनियन के नेता महेन्द्र सिंह टिकैत ने बोट क्लब पर जो विरोध प्रदर्शन किया था, वह
गैर-राजनीतिक था। पर अब दिल्ली के इस जमावड़े ने अपने राजनीतिक स्वरूप को छिपाने
की कोशिश भी नहीं की। किसान परेशान है, पर वह राजनीतिक रूप से किसी एक पाले में
नहीं है। उसे राजनीतिक दल अपनी तरफ खींचने की कोशिश कर रहे हैं। दो महीने पहले 2 अक्तूबर को उत्तर प्रदेश के
रास्ते से हजारों किसानों ने दिल्ली में प्रवेश का प्रयास किया था, पर दिल्ली
पुलिस ने उन्हें रोक दिया।
यह रैली कुछ विडंबनाओं की तरफ ध्यान खींचती है।
हाल के वर्षों में मध्य प्रदेश में कृषि की विकास दर राष्ट्रीय औसत से कहीं ज्यादा
रही है, फिर भी वहाँ आत्महत्या करने वाले किसानों की तादाद बढ़ी है। पिछले साल
रिकॉर्ड फसल के बावजूद किसानों का संकट बढ़ा, क्योंकि दाम गिर गए। खेती अच्छी हो तब
भी किसान रोता है, क्योंकि दाम नहीं मिलता। खराब होने पर तो रोना ही है। कई बार
नौबत आती है, जब वह अपने टमाटर, प्याज, मूली, गोभी से लेकर अनार तक नष्ट करने को
मजबूर होता है।
किसानों की एक माँग है कि एमएस
स्वामीनाथन की अध्यक्षता में बने किसान आयोग की सिफारिशों के आधार पर न्यूनतम
समर्थन मूल्य तय होना चाहिए। आयोग का सुझाव था कि किसानों को लागत के ऊपर 50 फीसदी
ज्यादा मूल्य मिलना चाहिए। इसके अलावा किसान कर्जों की माफी चाहते हैं। इन माँगों
को पूरा कराने के परिप्रेक्ष्य में वे दो माँगें कर रहे हैं। एक, किसानों की समस्याओं
पर विचार करने के लिए संसद का 21 दिन का विशेष अधिवेशन हो। और दूसरे, संसद में
विचाराधीन दो निजी विधेयकों को पास किया जाए।
इस रैली का आयोजन अखिल भारतीय किसान
संघर्ष समन्वय समिति (एआईकेएससीसी) ने किया है। यह 200 से ज्यादा किसान संगठनों का
अम्ब्रेला समूह है, जिसका इसका गठन जून 2017 में अखिल भारतीय किसान सभा और दूसरे वामपंथी किसान संगठनों के
तत्वावधान में हुआ था। स्वाभिमानी शेतकरी
संगठन के नेता और सांसद राजू शेट्टी ने 2017 में लोकसभा में दो निजी सदस्य विधेयक (किसान
मुक्ति बिल) पेश किए थे ताकि स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के आधार पर कृषि
उत्पादों के लिए उचित दाम की गारंटी और कर्ज़ माफ़ हो सके।
शेट्टी एआईकेएससीसी से भी जुड़े हैं।
इन विधेयकों के अनुसार समर्थन मूल्य की एक स्पष्ट व्यवस्था हो। सरकार अनाज खरीदे।
साथ ही एक ऋण राहत आयोग बनाया जाए, जो संकटग्रस्त क्षेत्रों में तीन साल तक
ऋणमुक्ति का प्रावधान कर सके। संगठन के अनुसार 21 राजनीतिक दलों ने विधेयक को अपना
समर्थन दिया है। इन दलों के प्रतिनिधि शुक्रवार को मार्च में शामिल थे।
हमारी संसदीय व्यवस्था में निजी विधेयकों
की व्यवस्था होने के बावजूद वे पास नहीं हो पाते हैं। यों भी कृषि राज्य का विषय है। समाधान में राज्यों
की भूमिका ज्यादा बड़ी है। कानून बनाकर समर्थन मूल्य पर फसलों की अनिवार्य खरीद के
लिए साधन चाहिए और इंफ्रास्ट्रक्चर भी। केंद्रीय स्तर पर फैसला करने के लिए करीब
दो लाख करोड़ रुपये की जरूरत होगी। इतने बड़े स्तर पर भंडारण की व्यवस्था बनाना
आसान बात नहीं है। फिर भी इस विषय पर गहराई से विचार किया जाना चाहिए।
किसानों की आत्महत्याओं की खबरें
उन्हीं इलाकों से ज्यादा मिल रहीं हैं जहां के किसान खेती की मुख्य खाद्य
पैदावारों पर निर्भर नहीं हैं बल्कि अंगूर, कपास, प्याज, फल-सब्जी, दलहन आदि बेहतर कमाई देने वाली नकदी फसलों से लेकर दूध तक के उत्पादन
से भी जुड़े हैं। इन किसानों ने अपनी आय बढ़ाने के लिए ज्यादा निवेश किया और कर्ज
के फंदे में फँस गए। स्वामीनाथन आयोग ने लागत मूल्य से 50 फीसदी ज्यादा खरीद मूल्य
रखने का सुझाव दिया था, पर लागत मूल्य को परिभाषित नहीं किया
था।
कृषि लागत और मूल्य आयोग ने तीन प्रकार
के लागत मूल्य बनाए हैं। इनमें बीज, खाद, पानी+किसान का श्रम+जमीन का किराया शामिल किया था। खरीद मूल्य तय
करने के बाद भी खरीद सुनिश्चित नहीं। ऐसे किसानों की तादाद भी काफी बड़ी है,
जिन्हें समय से उनके उत्पाद का पैसा नहीं मिलता। उनके भुगतान की व्यवस्था
सुनिश्चित होनी चाहिए। समाधान भी कई समस्याओं को जन्म दे रहे हैं। किसानों की कर्ज
माफी से एक नई प्रवृत्ति जन्म ले रही है। जो किसान कर्ज चुका देते हैं उन्हें लाभ
नहीं मिलता। लाभ मिलता है, कर्ज न चुका पाने वालों को। इसलिए कर्ज न चुकाने की
प्रवृत्ति बढ़ती है। बहरहाल दिल्ली की इस रैली ने लोकसभा चुनाव की प्रस्तावना लिख
दी है।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (04-12-2018) को "गिरोहबाज गिरोहबाजी" (चर्चा अंक-3175) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'