Monday, August 30, 2021

आजादी की नींद और नई सुबह के सपने


हाल में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली के विकास के लिए एक पहल की घोषणा की, जिसका नाम है दिल्ली@2047। इस पहल के राजनीतिक-प्रशासनिक निहितार्थ अपनी जगह हैं, महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि जब हम अपना 75वाँ स्वतंत्रता दिवस मनाने की तैयारी कर रहे हैं, तब हमारे मन में 100वें वर्ष की योजनाएं जन्म ले रही हैं। ऐसा तब भी रहा होगा, जब हम स्वतंत्र हो रहे थे।

सवाल है कि हम नए भारत के उस सपने को पूरा कर पाए? वह सपना क्या था? भव्य भारतवर्ष की पुनर्स्थापना, जो हमारे गौरवपूर्ण अतीत की कहानी कहता है। क्या हम उसे पूरा कर पाए? क्या हैं हमारी उपलब्धियाँ और अगले 25 साल में ऐसा क्या हम कर पाएंगे, जो सपनों को साकार करे?

देश के बड़े उद्यमियों में से एक मुकेश अम्बानी मानते हैं कि 2047 तक देश अमेरिका और चीन के बराबर पहुंच सकता है। आर्थिक उदारीकरण के 30 साल के पूरे होने के मौके पर उन्होंने अपने एक लेख में कहा कि साहसी आर्थिक सुधारों की वजह से भारत दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुका है। इस दौरान आबादी हालांकि 88 करोड़ से 138 करोड़ हो गई, लेकिन गरीबी की दर आधी रह गई।

भारत सरकार इस साल ‘आजादी का अमृत महोत्सव’ मना रही है, पर बातें सपनों की हैं। नरेंद्र मोदी से लेकर अरविंद केजरीवाल तक के पास भविष्य के सपने हैं। पिछले तीन दशक से हमने तेज आर्थिक विकास देखा। नए हाईवे, मेट्रो और दूर-संचार क्रांति को आते देखा। उस इंटरनेट को आते देखा जो सैम पित्रोदा के शब्दों में ‘एटमी ताकत’ से भी ज्यादा बलवान है। इनके साथ हर्षद मेहता से लेकर, टूजी, सीडब्ल्यूजी, कोल-गेट से लेकर आदर्श घोटाले तक को देखा।

आज सोशल मीडिया का जमाना है। लोकतंत्र बहुत पुरानी राज-पद्धति नहीं है। औद्योगिक क्रांति के साथ इसका विकास हुआ है। इसे सफल बनाने के लिए जनता को आर्थिक और शैक्षिक आधार पर चार कदम आगे आना होगा। पर जनता और भीड़ का फर्क भी हमें समझना होगा। हमने अनिवार्य शिक्षा का अधिकार दिया है, पर उसकी व्यवस्था नहीं है। हम महिलाओं को विधायिकाओं में आरक्षण देना चाहते हैं, पर दे नहीं पाते। 

लुटी-पिटी आजादी

15 अगस्त, 1947 को जो भारत आजाद हुआ, वह लुटा-पिटा और बेहद गरीब देश था। अंग्रेजी-राज ने उसे उद्योग-विहीन कर दिया था और जाते-जाते विभाजित भी। कैम्ब्रिज के इतिहासकार एंगस मैडिसन लिखा है कि सन 1700 में वैश्विक-व्यापार में भारत की हिस्सेदारी 22.6 फीसदी थी, जो पूरे यूरोप की हिस्सेदारी (23.3) के करीब-करीब बराबर थी। यह हिस्सेदारी 1952 में केवल 3.2 फीसदी रह गई थी। क्या इतिहास के इस पहिए को हम उल्टा घुमा सकते हैं?

नए भारत का पुनर्निर्माण होना है। देश ने सन 1948 में पहली औद्योगिक-नीति के तहत मिश्रित-अर्थव्यवस्था को अपनाने का फैसला किया। उसके पहले जेआरडी टाटा, घनश्याम दास बिड़ला सहित देश के आठ उद्योगपतियों में ‘बॉम्बे-प्लान’ के रूप में एक रूपरेखा पेश की थी। इसमें सार्वजनिक उद्योगों की महत्ता को स्वीकार किया गया था, पर स्वदेशी उद्योगों को संरक्षण देने का सुझाव भी दिया गया था।

उस दौर में वैश्विक-पूँजी के प्रवाह की रूपरेखा भी तैयार हो रही थी। विश्व बैंक का गठन हो रहा था और सन 1944 में ब्रेटन वुड्स में वर्ल्ड मोनीटरी कांफ्रेंस में भारत के प्रतिनिधि के रूप में आरके शण्मुगम चेट्टी शामिल हुए थे, जो बाद में देश के वित्तमंत्री बने। 1950 में योजना आयोग की स्थापना हुई। सन 51 से पंचवर्षीय योजनाएं शुरू हुईं। यह सोवियत मॉडल था। पहली पंचवर्षीय योजना में खेती और सिंचाई पर जोर था। पहली योजना में जीडीपी की वार्षिक संवृद्धि का लक्ष्य 2.1 फीसदी था, और परिणाम इससे बेहतर आया 3.6 फीसदी।

कौन सा रास्ता?

उसी दौर में बुनियादी बहस भी शुरू हुई। समाजवादी रास्ते पर जाएं या खुली-व्यवस्था अपनाएं? दूसरी पंचवर्षीय योजना में सार्वजनिक उद्योगों के सहारे विकास का लक्ष्य रखा गया, जिसके लिए राजकोषीय घाटे की सलाह दी गई। इस सलाह का फ्रेडरिक हायेक और बीआर शिनॉय जैसे अर्थशास्त्रियों ने विरोध किया। शिनॉय का कहना था कि सरकारी नियंत्रणों से इस युवा लोकतंत्र को ठेस लगेगी।

जवाहरलाल नेहरू के सलाहकार थे प्रशांत चंद्र महालनबीस। उन्होंने ही सन 1955 में इंडियन स्टैटिस्टिकल इंस्टीट्यूट की स्थापना की थी। दूसरी पंचवर्षीय योजना और 1956 की औद्योगिक नीति ने देश में सार्वजनिक उद्योगों और लाइसेंस राज की शुरुआत की। उद्योगों को तीन वर्गों में बाँटा गया। बुनियादी और रणनीतिक महत्व के उद्योग सार्वजनिक क्षेत्र में रखे गए, दूसरे ऐसे उद्योग जिन्हें क्रमशः राज्य के अधीन आना था और तीसरे उपभोक्ता उद्योगों को लाइसेंसों के दायरे में निजी क्षेत्र के लिए छोड़ा गया। सरकारी पूँजी से उद्योग लगे, पर व्यवस्था में पेच पैदा हो गए।

पहली लोकसभा 17 अप्रेल 1952 में बनी थी, पर उसके पहले संविधान सभा ही अस्थायी संसद के रूप में काम कर रही थी। उसी सभा में राजनीतिक कदाचार का पहला मामला सामने आया था। सदन के सदस्य एचजी मुदगल की सदस्यता समाप्त की गई। नौकरशाही, राजनेताओं, पूँजीपतियों और अपराधियों के गठजोड़ की कहानियाँ आजादी के पहले भी थीं, पर पहला बड़ा घोटाला 1958 में ‘मूँधड़ा-कांड’ के रूप में सामने आया। इसमें नेहरू जी के दामाद फीरोज गांधी का नाम उछला और तत्कालीन वित्तमंत्री टीटी कृष्णमाचारी को इस्तीफा देना पड़ा। यह सिलसिला जारी है।

नेहरू जी ने बिजली और इस्पात को दूसरी योजना का बुनियादी आधार बनाया। भाखड़ा नांगल बाँध को उदीयमान भारत के नए मंदिर का नाम दिया। राउरकेला में स्टील प्लांट लगाने के लिए जर्मनी की, भिलाई और दुर्गापुर में रूस और ब्रिटेन की सहायता ली गई। आईआईटी और नाभिकीय ऊर्जा आयोग नए राष्ट्र-मंदिर बनाए गए। नेहरू तेज औद्योगिक विकास चाहते थे, ताकि पूँजी खेती से हटकर उद्योगों में आए। दूसरी योजना में खेती पर व्यय में भारी कमी की गई। इसका असर दिखाई पड़ा। अन्न-उत्पादन कम हो गया, महंगाई बढ़ गई। अनाज का आयात करना पड़ा, जिससे विदेशी मुद्रा भंडार पर असर पड़ा। यह योजना अपने लक्ष्य को भी हासिल नहीं कर सकी।  

उसी दौर में चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने नेहरू की समाजवादी नीतियों की आलोचना की थी। देश को आधुनिकता के रास्ते पर ले जाने में नेहरू की भूमिका से कोई इनकार नहीं, पर 1991 में कांग्रेस पार्टी को भी उस रास्ते से हटना पड़ा। बावजूद उसके उदारीकरण के 30 साल बाद भी हम मिश्रित अर्थ-व्यवस्था से बाहर नहीं आ पाए हैं। निजीकरण को प्राथमिकता मिलने के बावजूद इंफ्रास्ट्रक्चर में सार्वजनिक क्षेत्र का दबदबा है। अंतरिक्ष अनुसंधान और रक्षा उद्योगों में निजी क्षेत्र की भागीदारी अब बहुत छोटे स्तर पर शुरू हो रही है। आणविक ऊर्जाबिजली और इस्पात में अभी सार्वजनिक क्षेत्र का ही बोलबाला है।

बुनियादी मानव-विकास

भारत और चीन की यात्राएं समांतर चलीं, पर बुनियादी मानव-विकास में चीन हमें पीछे छोड़ता चला गया। बावजूद इसके कि आर्थिक-संवृद्धि में हमारी गति बेहतर थी। नेहरू ने मध्यवर्ग को तैयार करने पर जोर दिया, चीन ने बुनियादी विकास पर। सार्वजनिक शिक्षा और स्वास्थ्य में चीन ने हमें पीछे छोड़ दिया। सन 2011 में नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ एजुकेशनल प्लानिंग एंड एडमिनिस्ट्रेशन से डॉक्टरेट की मानद उपाधि ग्रहण करते हुए अमर्त्य सेन ने कहा, समय से प्राथमिक शिक्षा पर निवेश न कर पाने की कीमत भारत आज अदा कर रहा है। नेहरू ने तकनीकी शिक्षा के महत्व को पहचाना जिसके कारण आईआईटी जैसे शिक्षा संस्थान खड़े हुए, पर प्राइमरी शिक्षा के प्रति उनका दृष्टिकोण ‘निराशाजनक’ रहा।

इसे ओलिम्पिक खेलों में देखें। सत्तर के दशक में दो ग़रीब देश, आबादी और अर्थव्यवस्था के हिसाब से लगभग सामान थे। इनमें से एक खेलों में ही नहीं जीवन के हरेक क्षेत्र में आगे निकल गया और दूसरा काफ़ी पीछे रह गया? सच यह भी है कि चीन 'रेजीमेंटेड' देश है, वहाँ आदेश मानना पड़ता है। भारत खुला देश है, यहाँ ऐसा मुश्किल है। बहरहाल चीन-युद्ध ने भारत की कमजोरियों का पिटारा खोला। नेहरू को व्यक्तिगत रूप से धक्का लगा और दो साल के भीतर उनका निधन हो गया। उनके बाद आए लाल बहादुर शास्त्री के सामने अन्न-संकट खड़ा हो गया। वे समझ चुके थे कि देश को आर्थिक-नियंत्रणों से मुक्ति चाहिए। कुछ साल और रहे होते, तो शायद आर्थिक-उदारीकरण की शुरुआत हो गई होती। बहरहाल उन्होंने खेती पर ध्यान दिया। परिणाम हरित-क्रांति के रूप में सामने आया। डेयरी उद्योग पर भी ध्यान दिया गया। वर्गीज कुरियन के नेतृत्व में गुजरात के आणंद में हुई श्वेत-क्रांति।

शास्त्री जी को 1965 में पाकिस्तान पर विजय के रूप में मजबूत राजनीतिक आधार मिला, पर उनके असामयिक निधन से वह धारा रुक गई। वह उथल-पुथल का दौर था। उसी दौर में गैर-कांग्रेसवाद और गठबंधन राजनीति का प्रवेश हुआ। भारत को अपनी पाँचवीं पंचवर्षीय योजना उसी दौर में स्थगित करनी पड़ी। इंदिरा गांधी के दौर में राजनीति और अर्थव्यवस्था में बड़े बदलाव होने वाले थे।

नेहरू और शास्त्री के निधन से देश स्तब्ध था। राजनीति में असमंजस था। ऐसे में इंदिरा गांधी क्रांतिकारी नारों के साथ आईं। उन्होंने बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया, रुपये का अवमूल्यन किया, प्रीवी पर्स की समाप्ति की। उनके पास आक्रामक समाजवादी नीतियाँ थीं और गरीबी हटाओ का नारा। बांग्लादेश के जन्म की सूत्रधार भी वे बनीं। बैंकों के राष्ट्रीयकरण की वजह से किसानों को आसानी से कर्ज मिला, पर उनकी बुनियाद दरक चुकी थी। कर्जा लेकर वापस न करने की परम्परा शुरू हुई और आज भी जारी है। उन्हें 1971 के चुनाव में जबर्दस्त सफलता मिली, पर जनता के असंतोष को वे दूर नहीं कर पाईं।

भारतीय राजनीति में आपातकाल अपने आप में एक अलग अध्याय है। उस दौरान तीन काम हुए। कांग्रेस पार्टी परिवार में तब्दील हुई, सांविधानिक संस्थाओं से छेड़छाड़ की परम्परा पड़ी और प्रतिरोध को कुचलने के क्रूर तरीके विकसित हुए। इंदिरा गांधी की हार के बाद आई जनता पार्टी के आंतरिक अंतर्विरोध इतने ज्यादा थे कि वह चली नहीं। 1980 में इंदिरा गांधी की फिर वापसी हुई।

अपने दूसरे दौर में इंदिरा गांधी ने समाजवादी झंडा फेंक दिया। अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष से कर्जा लेने के लिए उन्होंने छठी पंचवर्षीय योजना के दौरान कई प्रकार के सुधारों की घोषणा की। आनंदपुर साहिब प्रस्ताव के बाद पंजाब में लम्बे अर्से तक अस्थिरता रही और अंततः इंदिरा गांधी की हत्या हो गई। उनके उत्तराधिकारी राजीव गांधी ने भी आर्थिक सुधारों और आधुनिकीकरण की जरूरत को महसूस किया। उन्होंने नई सूचना प्रौद्योगिकी के प्रवेश का रास्ता खोला।

मंडल-कमंडल

उसी दौर में देश में मंडल-कमंडल का उभार हुआ। श्रीलंका के तमिल आंदोलन की लपेट में आया और राजीव गांधी की हत्या हो गई। राम-मंदिर आंदोलन और उसकी प्रतिक्रिया में देशभर में साम्प्रदायिक दंगे हुए। देश व्याकुल हो उठा। उसी पृष्ठभूमि में 1991 के चुनाव हुए। इन चुनावों के बाद बनी सरकार ने आर्थिक उदारीकरण का काम शुरू किया, जो आज भी जारी है।

विडंबना है कि आर्थिक-सुधार ऐसी अल्पसंख्यक-सरकार ने शुरू किए, जिसके प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री खुद संसद-सदस्य नहीं थे। फिर भी वह जबर्दस्त शुरूआत थी। उसके बाद पहले 100 दिन में जैसा बदलाव आया, वैसा शायद ही कभी देखने को मिला हो। भारत ने जब यह फैसला किया, देश असाधारण राजकोषीय घाटे और भुगतान संकट में था। सरकार यूनियन बैंक ऑफ स्विट्ज़रलैंड और बैंक ऑफ इंग्लैंड में 67 टन सोना गिरवी रख चुकी थी।

जनवरी 1991 में हमारा विदेशी मुद्रा भंडार 1.2 अरब डॉलर था, जो जून आते-आते इसका आधा रह गया। आयात भुगतान के लिए तकरीबन तीन सप्ताह की मुद्रा हमारे पास थी। चन्द्रशेखर की अल्पमत सरकार कांग्रेस के सहयोग पर टिकी थी। फौरी तौर पर हमें अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से 2.2 अरब डॉलर का कर्ज लेना पड़ा और सोना गिरवी रखना पड़ा। अगले अठारह साल में कहानी बदल गई। 1991 में सोना गिरवी रखने वाले देश ने नवम्बर 2009 में उल्टे आईएमएफ से 200 टन सोना खरीदा।

उसके बाद हमने हासिल क्या किया? अपने विदेशी-मुद्रा भंडार पर नजर डालें। इस समय हमारा विदेशी मुद्रा कोष 612 अरब डॉलर के करीब है। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम और ऑक्सफोर्ड गरीबी एवं मानव विकास पहल (ओपीएचआई) के पिछले साल जारी आँकड़ों के अनुसार 2005-06 से 2015-16 के दौरान भारत में 27.3 करोड़ लोग गरीबी के दायरे से बाहर निकले। इस दौर में किसी भी देश में गरीबों की संख्या में यह सर्वाधिक कमी है।

अतिशय राजनीति

क्या हमारे आर्थिक-सुधारों पर राजनीतिक मतैक्य है? सन 2011 में दिल्ली आए मलेशिया के पूर्व प्रधानमंत्री मोहम्मद महातिर ने कहा था, अतिशय लोकतंत्र स्थिरता और समृद्धि की गारंटी नहीं होता। हमें एक बेहतर और फोकस्ड लोकतंत्र की ज़रूरत है। यह वह दौर था, जब मनमोहन सरकार ने रिटेल में विदेशी निवेश के दरवाजे खोलने की घोषणा की थी। दिल्ली में घोषणा हुई और कोलकाता से ममता बनर्जी का जवाब आया, कोई रिटेल-फिटेल नहीं। वह घोषणा चूं-चूं का मुरब्बा बनकर रह गई।

उदारीकरण की शुरूआत करने वाले मनमोहन सिंह के आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु ने उसे ‘पॉलिसी-पैरेलिसिस’ कहा था। नब्बे के दशक में जब देश में आर्थिक उदारीकरण की हवा चल रही थी, उत्तर भारत की राजनीति में सामाजिक-न्याय की हवा बह रही थी। पश्चिम बंगाल में वामपंथी सरकार थी, जिसने शुरूआती वर्षों में आर्थिक गतिविधियों पर ध्यान दिया नहीं और जब दिया, तबतक ‘पोरिबोर्तोन’ आ चुका था।

हिंदी ट्रिब्यून में प्रकाशित

 

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हिन्दू रेट ऑफ ग्रोथ!

भारत की आर्थिक-सुस्ती को एक नाम दिया गया ‘हिन्दू रेट ऑफ ग्रोथ।’ पचास से अस्सी के दशकों के बीच भारत की अर्थव्यवस्था जिस गति से विकास कर रही थी, उसके लिए इस नाम को गढ़ा था अर्थशास्त्री राज कृष्ण ने। उन्होंने 1978 में इस शब्दावली का पहली बार इस्तेमाल किया और 1980 में विश्व बैंक के तत्कालीन अध्यक्ष रॉबर्ट मैकनमारा ने इसका इस्तेमाल किया। इस तरह से इसका अंतरराष्ट्रीयकरण हो गया। क्या आपके मन में यह सवाल नहीं आता कि इसमें हिन्दू शब्द क्यों डाला गया? क्या हिन्दू संस्कृति या समाज के भाग्यवादी दृष्टिकोण की इसमें कोई भूमिका है?

आज के राजनीतिक परिदृश्य में इस शब्दावली के राजनीतिक निहितार्थ हैं। कहना मुश्किल है कि राज कृष्ण ने क्या सोचकर यह नाम गढ़ा, पर हमारे सुस्त विकास की वजह है कमांड-अर्थव्यवस्था, जिसे त्यागने के प्रयास 1991 में किए गए थे। राज कृष्ण तो उन नीतियों के समर्थक थे। वे संवृद्धि की इस दर को ‘नेहरूवादी-दर’ या ‘भारतीय-समाजवादी दर’ भी कह सकते थे। शायद उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता ने वही सुझाया। अब लगता है कि भारत अगले कुछ वर्षों तक 8 प्रतिशत या उससे भी ऊँची दर पर संवृद्धि करेगा। तब भी क्या उसे यही नाम देंगे?

 

 

 

व्याकुल भारत!

हाल में भारतीय हॉकी टीम ने तोक्यो ओलिम्पिक में कांस्य पदक जीता। शुरुआती मुकाबले में हमारी टीम को ऑस्ट्रेलिया ने 7-1 से हराया तो टीम में मायूसी छा गई। ऐसे में कोच ग्राहम रीड ने टीम से कहा, यकीन मानो आप लोग काबिल हैं, जीत सकते हैं। पौराणिक कहानी है कि हनुमान अलौकिक बलशाली है, पर उन्हें शाप है। वे अपने बल को भूल जाते हैं। जब उनकी ताकत की याद उन्हें दिलाई जाती है तब वे सक्रिय होते हैं। भारत की कहानी भी कुछ ऐसी है।

बरसों पहले फेसबुक पर नाइजीरिया के किसी टेलेंट हंट कांटेस्ट का पेज देखने को मिला। उसका सूत्र वाक्य था, ‘आय थिंक आय कैन।’ सामान्य लोगों को बताना जरूरी है कि तुम नाकाबिल नहीं हो। हीन भावना को खत्म करने के लिए रोल मॉडलों की जरूरत होती है। ओलिम्पिक खेलों के ज्यादातर विजेता मामूली पृष्ठभूमि से आए हैं। वे दूसरों के रोल मॉडल बनेंगे।

अमिताभ बच्चन ने ‘कौन बनेगा करोड़पति’ के एक कार्यक्रम में कहा, “मैंने इस कार्यक्रम में एक नया हिन्दुस्तान महसूस किया। हँसता-मुस्कराता हिन्दुस्तान। यह हिन्दुस्तान अपना पक्का घर बनाना चाहता है, लेकिन उसके कच्चे घर ने उसके इरादों को कच्चा नहीं होने दिया…यह हिन्दुस्तान कपड़े सीता है, ट्यूशन करता है, सब्जियाँ तोलता है, अनाज मंडी में बोलियाँ लगाता है।…उसका मनोबल ऊँचा और लगन बुलंद है। हम सब इस नए हिन्दुस्तान को सलाम करते हैं।” यह ‘एस्पिरेशनल इंडिया’ है। हालात बदलने को व्याकुल भारत। यह व्याकुलता जैसे-जैसे बढ़ेगी वैसे-वैसे हम सफल होते जाएंगे।

 

 

 

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