Wednesday, August 18, 2021

तालिबान-सरकार को क्या मान्यता मिलेगी?

तालिबान-प्रवक्ता जबीहुल्ला मुज़ाहिद 
अफगानिस्तान में तालिबान की स्थापना करीब-करीब पूरी हो चुकी है। अब दो सवाल हैं। क्या विश्व-समुदाय उन्हें मान्यता देगा?  इसी से जुड़ा दूसरा सवाल है कि भारत क्या करेगा?  आज के टाइम्स ऑफ इंडिया ने सरकारी सूत्र के हवाले से खबर दी है कि विश्व का लोकतांत्रिक-ब्लॉक जो फैसला करेगा भारत उसके साथ जाएगा। इसका मतलब है कि दुनिया में ब्लॉक बन चुके हैं और जिस शीतयुद्ध की बातें हो रही थीं, वह अफगानिस्तान में अब लड़ा जाएगा।

अफ़ग़ानिस्तान को लेकर भारत और पाकिस्तान के बीच प्रतिद्वंद्विता तो है ही, पर ज्यादा बड़ा टकराव पश्चिमी देशों और रूस के बीच है। इसके अलावा अब चीन भी बड़ा दावेदार है और वह तालिबान के समर्थन में उतर आया है। सोवियत संघ ने 1979 में अफ़ग़ानिस्तान पर धावा बोला था। उसका सामना तब अफ़ग़ान मुजाहिदीन से हुआ था, जिन्हें अमेरिका, ब्रिटेन और पाकिस्तान का समर्थन हासिल था। पिछले दो दिन में तालिबान-विरोधी पुराना नॉर्दर्न अलायंस पंजशीर-प्रतिरोध के नाम से खड़ा हो गया है, जिसके नेता पूर्व उपराष्ट्रपति अमीरुल्ला सालेह हैं, जिनका कहना है कि राष्ट्रपति की अनुपस्थिति में उपराष्ट्रपति ही कार्यवाहक राष्ट्रपति होता है। अफगान सेना से जुड़े ताजिक मूल के काफी सैनिक इस समूह में शामिल हो गए हैं।

लोकतांत्रिक-ब्लॉक

सवाल है कि क्या लोकतांत्रिक-ब्लॉक पंजशीर-रेसिस्टेंस को उसी तरह मान्यता देगा, जिस तरह से नब्बे के दशक में बुरहानुद्दीन रब्बानी को मान्यता दी गई थी। ध्यान दें कि अफगानिस्तान में पंजशीर अकेला ऐसा क्षेत्र है, जो तालिबानी नियंत्रण के बाहर है और इस बात की उम्मीद नहीं कि तालिबान उसपर कब्जा कर पाएंगे। पश्चिमी पर्यवेक्षकों का विचार है कि अमेरिका ने गलती की। उसके 3000 सैनिक तालिबान को रोकने के लिए काफी थे। बहरहाल अगले कुछ दिन में तय होगा कि अफगानिस्तान में ऊँट किस करवट बैठने वाला है।

रूस का कहना है कि अफ़ग़ानिस्तान में उसकी दिलचस्पी मध्य एशिया में अपने सहयोगी देशों की सीमाओं की सुरक्षा को सुनिश्चित करने तक है, लेकिन मॉस्को के इरादे अभी पर्दे के पीछे नहीं हैं। बीबीसी ने वाशिंगटन के थिंकटैंक 'सेंटर फ़ॉर इंटरनेशनल स्टडीज़' (सीएसआईएस) के निदेशक सेठ जोन्स को उधृत किया है, "रूस तालिबान की मदद कर रहा है। उसकी मदद केवल राजनयिक नहीं है, बल्कि पैसे और इंटेलिजेंस से भी है। चीन की दिलचस्पी मेस अयनाक क्षेत्र के तांबे के खनन तथा दूसरे प्राकृतिकसंसाधनों के अलावा पश्चिमी शिनजियांग में सक्रिय वीगुर समुदाय के बीच सक्रिय इस्लामी गुट ईटीआईएम की मजबूती को लेकर है। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने कहा है कि अफगानिस्तान ने गुलामी की जंजीरों को तोड़ दिया है। उनके इस बयान से उनकी सरकार के रुख का पता लगता है। यों भी पहली नजर में स्पष्ट है कि अफगानिस्तान के बाबत पाकिस्तान की नीति सफल हुई है। अलबत्ता उनके सूचना मंत्री फवाद चौधरी ने कहा है कि मान्यता के मामले पर पाकिस्तान क्षेत्रीय देशों के निर्णय पर जाएगा। क्षेत्रीय देशों से उनका आशय रूस, चीन, और ईरान से है।

सौम्य चेहरा

बहरहाल तालिबान का पहला संवाददाता सम्मेलन मंगलवार 17 अगस्त को काबुल में हुआ। तालिबान-प्रवक्ता जबीहुल्ला मुज़ाहिद ने कहा,  20 साल के संघर्ष के बाद हमने देश को आज़ाद कर लिया है और विदेशियों को देश से बाहर निकाल दिया है। उन्होंने कहा, हम अंतरराष्ट्रीय समुदाय को आश्वस्त करना चाहते हैं कि किसी को नुक़सान नहीं होने देंगे। हम अंतरराष्ट्रीय समुदाय के साथ कोई उलझन नहीं चाहते हैं। हमें हमारी धार्मिक मान्यताओं के अनुसार काम करने का अधिकार है। दूसरे देशों के अलग-अलग दृष्टिकोण, नियम और कानून हैं। हमारे मूल्यों के अनुसार, अफ़ग़ानों को अपने नियम और कानून तय करने का अधिकार है।

मुज़ाहिद ने कहा, हम शरिया व्यवस्था के तहत महिलाओं के हक़ तय करने को प्रतिबद्ध हैं। महिलाएं हमारे साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम करने जा रही हैं। हम अंतरराष्ट्रीय समुदाय को भरोसा दिलाना चाहते हैं कि उनके साथ कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा। तालिबान के प्रवक्ता ने साफ़ किया कि उनके शासन के दौरान प्राइवेट मीडिया पहले की तरह काम करता रहेगा। हमने उन सभी को माफ़ कर दिया है, जिन्होंने हमारे ख़िलाफ़ लड़ाइयां लड़ी। अब हम काबुल में अराजकता देखना नहीं चाहते। उन्होंने कहा, हमारी योजना काबुल के द्वार पर रुकने की थी, ताकि संक्रमण की प्रक्रिया सुचारु रूप से संपन्न हो जाए। दुर्भाग्य से, पिछली सरकार बहुत अक्षम थी।

वस्तुतः अंतिम क्षण में अशरफ ग़नी के पलायन ने तालिबान को भी चौंकाया है। वे भी फौरन सरकार बनाने की मनोदशा में नहीं थे। दोहा में चल रही बात के अनुसार समझौता इस बात पर हो रहा था कि दोनों पक्ष दो हफ्ते का युद्ध-विराम करेंगे। इस दौरान अशरफ ग़नी का इस्तीफा होगा और एक अंतरिम सरकार बनेगी। तालिबान को भी विस्मय हुआ है। चूंकि यह कदम उनका सोचा हुआ नहीं है, इसलिए इसकी पेचीदगियों को उन्होंने भी नहीं समझा है। काबुल हवाई अड्डे की तस्वीरों ने अमेरिका समेत पूरे पश्चिमी समुदाय को हिला दिया है और अब अमेरिका पर लोकमत का दबाव होगा। दबाव किस रूप में होगा और अमेरिका का रुख क्या होगा, अब यह देखने की जरूरत है। तालिबान की दिलचस्पी चीन, रूस और पाकिस्तान के साथ-साथ पश्चिमी देशों में भी है। इसीलिए वे अपने चेहरे को सौम्य बनाने का प्रयास कर रहे हैं।

भारत क्या करे?

फिलहाल भारत ने आधिकारिक रूप से ऐसा कोई बयान नहीं दिया है, जिससे पता लगे कि तालिबान को लेकर उसका रुख क्या होगा। फिलहाल भारत ने काबुल स्थित अपने दूतावास के सभी कर्मचारियों को वापस बुला लिया है, पर यह संकेत भी दिया है कि इसे दूतावास बंद करना नहीं माना जाए। फिलहाल भार की दिलचस्पी अपने लोगों को वहाँ से निकालने में है। अफगानिस्तान के 34 प्रांतों में भारत की 400 के आसपास परियोजनाएं चल रही थीं। इनसे जुड़े लोग अभी वहाँ फँसे हैं। उधर तालिबान-प्रवक्ता सुहेल शाहीन ने कहा है कि भारत चाहे, तो काम जारी रख सकता है। जाहिर है कि भारत को आगे का फैसला करने के पहले तालिबान के साथ रिश्तों को परिभाषित करना होगा, इसलिए उसपर गहराई से विचार की जरूरत होगी।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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