कोरोना वायरस से बचाव के लिए दुनिया टीकाकरण पूरा होने का इंतज़ार कर रही है। डॉक्टरों, वैज्ञानिकों और महामारी विशेषज्ञों के बड़े हिस्से का मानना है कि कोरोना के मुकम्मल इलाज के लिए वैक्सीन के अलावा और कोई विकल्प नहीं है, फिर भी एक तबका ऐसा हो, जो टीका लगवाना नहीं चाहता। कुछ लोग ऐसे हैं, जो टीका लगवाने से घबराते हैं। वे उन खबरों को गौर से सुनते हैं, जिनमें टीका लगवाने के बाद पैदा हुई परेशानियों का विवरण हो। दूसरी तरफ कुछ लोग ऐसे हैं, जो टीके के सख्त विरोधी हैं। कुछ वैज्ञानिक सिद्धांतों का हवाला देते हैं और कुछ धार्मिक विश्वासों का।
पिछले साल दुनिया में कोविड-19 से सबसे ज्यादा संक्रमण अमेरिका में हो रहे
थे और वहाँ मौतें भी सबसे ज्यादा हुई थीं। पर जैसे ही टीके लगने शुरू हुए वहाँ
बीमारी पर काफी हद तक काबू पा लिया गया। जहाँ इस साल 12 जनवरी को साढ़े चार हजार
के ऊपर मौतें हुई थीं, वहीं अब यह संख्या सौ से डेढ़ सौ के बीच है। पर ज्यादा
महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि मरने वालों में करीब 90 फीसदी ऐसे हैं, जिन्होंने टीका
नहीं लगवाया है।
वैक्सीन-विरोध
दुनियाभर में ऐसे संगठित समूह हैं, जो हर तरह की वैक्सीन के विरोधी हैं। वे अनिवार्य टीकाकरण को नागरिक अधिकारों, वैयक्तिक स्वतंत्रता और स्वायत्तता का उल्लंघन मानते हैं। उनके अनुसार वैक्सीन से कोई फ़ायदा नहीं। यह इंसान के प्राकृतिक-प्रतिरक्षण के साथ दखलंदाजी है। इन्हें एंटी-वैक्स कहा जाता है। कुछ धार्मिक समूह हैं, कुछ वैकल्पिक मेडिसिन के समर्थक। कुछ मानते हैं कि वैक्सीन कुछ नहीं बड़ी कम्पनियों की कमाई का धंधा है। एक प्रकार की विश्व-व्यापी साजिश।
वैक्सीन के खिलाफ विरोध का इतिहास इसके विकास और उसके इस्तेमाल शुरू करने
जितना ही पुराना है। न्यूयॉर्क में 1879 में एंटी वैक्सीनेशन सोसायटी बन गई थी। ब्रिटेन में 19वीं सदी के उत्तरार्ध
में संसद ने अनिवार्य टीकाकरण का कानून पास किया तो उसका भारी विरोध हुआ। आज भी सुपर मॉडल सिंडी क्रॉफर्ड, हॉलीवुड की
अभिनेत्री एलीशिया सिल्वरस्टोन, अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप जैसे
तमाम लोग वैक्सीन के खिलाफ हैं। टेनिस स्टार नोवाक जोकोविच व्यक्तिगत रूप से’
वैक्सीन (टीकाकरण) का विरोध करते हैं। उनका कहना है कि कोरोनावायरस महामारी के दौरान
इसे लेने के लिए मजबूर नहीं किया जाना चाहिए।
यह भी सच है कि तमाम
देशों में संक्रामक बीमारियों पर टीकों के कारण रोक लगी हैं। पोलियो, चेचक, यलो फीवर और रूबेला
जैसे तमाम रोग इनमें शामिल हैं। टीकाकरण केवल एक व्यक्ति को सुरक्षित नहीं करता,
बल्कि समुदाय को प्रतिरक्षित करता है। इसे हर्ड इम्यूनिटी कहते हैं। इससे समुदाय
के उन सदस्यों को भी सुरक्षा मिलती है, जो अरक्षित हों। दुनिया में हर साल 20-30 लाख जान टीकों
की वजह से बचाई जा रही हैं। करीब 15 लाख और बचाई जा सकती थीं, बशर्ते उन्हें टीके लगते।
वैक्सीन-पासपोर्ट
भारत में कोविड-19 वैक्सीन की 44 करोड़ के आसपास खुराकें ही लगाई जा सकी
हैं। देश की तकरीबन सात
फीसदी आबादी को ही दोनों डोज़ दी जा चुकी हैं और केवल 25 फीसदी जनता ऐसी है, जिसे
कम से कम एक डोज़ दी जा चुकी है। महामारी को भगाने का एकमात्र रास्ता वैक्सीन ही
है। बावजूद इसके बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है, जो वैक्सीन लगाने से बच रहे हैं।
भारत के मुकाबले अमेरिका जैसे देशों की तस्वीर दूसरी है।
हमारे यहाँ पर्याप्त
संख्या में वैक्सीन उपलब्ध नहीं है, इसलिए वैक्सीन-भय (हेज़ीटेंसी) का असर दिखाई
नहीं पड़ रहा है। अमेरिका में पर्याप्त संख्या में वैक्सीन उपलब्ध है। वहाँ
जिन्हें टीका लगवाना था, उन्होंने लगवा लिया। अब जो बचे हैं, उनमें बड़ी संख्या
ऐसे लोगों की है, जो टीका लगवाना नहीं चाहते। इसी तरह फ्रांस में बड़ी संख्या
वैक्सीन-विरोधियों की है। वहाँ रेस्तराँ और सिनेमाघरों में प्रवेश के लिए वैक्सीन
पासपोर्ट की व्यवस्था होने वाली है। इसके बाद वहाँ यह मसला अदालतों में जा सकता
है।
कुछ देश यह सुनिश्चित
कर रहे हैं कि वे किसी भी नए कोरोना रोगी या वाहक को अपने यहां प्रवेश की अनुमति न
दें। भारत में कुछ राज्यों ने प्रवेश के लिए एक निगेटिव आरटी-पीसीआर टेस्ट या
टीकाकरण का प्रमाण पत्र प्रस्तुत करना अनिवार्य कर दिया है। जैसे ही अंतरराष्ट्रीय
स्तर पर कोरोना का प्रभाव कम होगा, परिवहन में तेजी आएगी। ऐसे में सब कुछ खोला
नहीं जा सकेगा। सरकारें कुछ प्रतिबंध जरूर लगाएंगी। मार्च में चीन ने अपना डिजिटल
वैक्सीन पासपोर्ट जारी किया। जापान ने अप्रैल में इसी तरह के डिजिटल वैक्सीन-पासपोर्ट
की घोषणा की थी, ब्रिटेन ने मई में। यूरोपीय संघ ने भी अपने सदस्य देशों में
नागरिकों को यात्रा करने की अनुमति देने के लिए 'डिजिटल ग्रीन-सर्टिफिकेट' बनाया है। डिजिटल ग्रीन सर्टिफिकेट में स्वीकृत टीके, एक निगेटिव
कोविड टेस्ट रिजल्ट या कोविड से हाल ही में ठीक होने का प्रमाण शामिल है। भारत में
वैक्सीन लगते ही प्रमाणपत्र जारी होता है, पर भारत बायोटेक की कोवैक्सीन को लेकर
दिक्कतें हैं। दिक्कतें एस्ट्राजेनेका की भारत में बनी वैक्सीन को लेकर भी
हैं।
घबराहट में कमी
तमाम विरोध के बावजूद खबर यह है कि कोविड-19 के दौर में दुनिया में वैक्सीन
के विरोधियों की संख्या कम हुई है। ब्रिटिश मार्केटिंग संस्था यूगोव ने 20 देशों
में किए एक सर्वे में पाया कि जहाँ जनवरी में वैक्सीन का विरोध करने वाले 45 फीसदी
थे, वहीं जून के अंतिम दिनों में उनकी संख्या करीब 20 फीसदी थी। सिंगापुर में
जनवरी में 53 फीसदी लोग टीके के लिए तैयार नहीं थे, पर जून में यह संख्या 10 फीसदी
रह गई। फ्रांस में जनवरी में 60 फीसदी लोग विरोधी थे, जो जून में 20 फीसदी रह गए।
यह कमी क्यों हुई, इसका पता लगाना आसान नहीं। पर यह गिरावट बहुत ज्यादा है।
इसका मतलब यह भी निकाला जा सकता है कि दुनिया में दूसरी और तीसरी लहरों ने हालात
को बदला है। इसकी दूसरी वजह यह भी है कि जैसे-जैसे वैक्सीनेशन में तेजी आ रही है,
वैसे-वैसे लोग देख रहे हैं कि इसका विपरीत प्रभाव उतना नहीं है, जितना मीडिया
कवरेज में नजर आता था।
दूसरी तरफ वैक्सीनेशन में तेजी आने के साथ मौतों की संख्या कम होती जा रही
है। कुछ इलाके ऐसे भी है, जहाँ मौतों की संख्या बढ़ने पर टीकों की स्वीकृति भी
बढ़ी है। जैसे ताइवान और सऊदी अरब। लोग अपने-अपने तरीके से निष्कर्ष निकाल रहे
हैं। आपके परिचितों ने टीका लिया, तो आपकी हिम्मत भी बढ़ी। टीका लगने के बाद उसके
प्रतिकूल प्रभाव को देखा। मोटा निष्कर्ष यह निकाला जा सकता है कि वैक्सीनेशन में
तेजी लानी चाहिए इससे लोगों का भरोसा वैक्सीन में बढ़ेगा।
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