कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व विदेशमंत्री सलमान खुर्शीद ने अफगानिस्तान के घटनाक्रम को लेकर भारतीय विदेश-नीति के बारे में कहा है कि कई साल से हम सबके मन में यह सवाल घुमड़ता रहा था कि क्या अफगानिस्तान लंबे समय से चले आ रहे संकट के दौर से निकल पाएगा और क्या वहां स्थिर सरकार देने की दिशा में किए जा रहे अथक प्रयास आगे भी जारी रहेंगे? यूपीए सरकार के दौरान हमने नए संसद भवन, स्कूलों-जैसे अहम संस्थानों के पुनर्निर्माण के अतिरिक्त सलमा बांध-जैसी विकास परियोजनाओं पर भारी धनराशि खर्च की। अब सब कुछ तालिबान के हाथ में है और लोकतांत्रिक संस्थानों को मजबूत करने के प्रयास छिन्न-भिन्न हो गए हैं। हम पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई जैसे अपने दोस्तों की खैरियत के लिए फिक्रमंद ही हो सकते हैं जो अपने परिवार के साथ, जिसमें छोटी-छोटी बच्चियां भी हैं, काबुल में ही रह रहे हैं। मैं मानकर चलता हूं कि सरकार ने हमारे नागरिकों के साथ-साथ भारत से दोस्ती निभाने वाले अफगानों को वहां से सुरक्षित निकालने के लिए पर्याप्त राजनीतिक उपाय बचाकर रखे होंगे।
उन्होंने संडे नवजीवन और नेशनल हैरल्ड में प्रकाशित
अपने लेख में लिखा है कि भारतीय राजनयिकों को अफगानिस्तान के जमीनी हालात का काफी
अनुभव और समझ है। बावजूद इसके ऐसा लगने लगा है, मानो
हम अफगानिस्तान के बारे में अमेरिकियों जितना ही कम जानते हैं जिन्होंने अपने
सैन्य कर्मियों पर अनकही तकलीफ थोप दी और इस संघर्ष-ग्रस्त देश में भारी धनराशि
झोंक दी, बेशक इससे कुछ खास न दिखता हो। यह बात समझी जा
सकती है कि अमेरिका ने अफगानिस्तान को छोड़ने का मन बना लिया था क्योंकि वह वहां
रहने की कीमत पैसे और अपने सैनिकों की जान से चुकाने को अब और तैयार नहीं था। बेशक
उसने समय- समय पर दुनिया का पुलिस होने का ढोंग किया लेकिन निश्चित ही लोकतंत्र और
आजादी की रक्षा करने की जिम्मेदारी अकेले उसी की नहीं। यह बात भी साफ है कि तमाम
देशों को आजादी की इतनी परवाह नहीं कि वे घर से दूर इसके लिए लड़ें।
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संडे नवजीवन और नेशनल हैरल्ड के इसी अंक में
भारत के पूर्व राजदूत राकेश सूद ने ऐशलिन मैथ्यू से इंटरव्यू में कहा है कि अफगानिस्तान
में तालिबान के कब्जे से भारतीय
राजनयिक विफलता सामने आ गई है। भारत ने अन्य संभावित विकल्पों को ध्यान में
रखते हुए नीति तय करने में मुंह की खाई और बरसों की मेहनत बेकार हो गई हैं। उनसे पूछा
गया कि तालिबान के आने से भारत के पड़ोस में अस्थिरता आ गई है। वहां किस तरह की
सरकार आने की संभावना है? इसके जवाब में उन्होंने कहा कि अभी कहना
मुश्किल है। तालिबान में भी तमाम ग्रुप हैं। पिछले कुछ वर्षों से हम उस समूह को
देख रहे हैं, जिससे दोहा में बातचीत हुई। एक गुट है क्वेटा शूरा जो क्वेटा में
स्थित है। फिर पूर्वी अफगानिस्तान में खास तौर पर असर रखने वाला गुट है हक्कानी
नेटवर्क। इसके अलावा कई विदेशी आतंकवादी गुट भी हैं जैसे- इस्लामिक स्टेट, तहरीके तालिबान पाकिस्तान, ईस्ट
तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट, ताजिक गुट, सीरिया
से लौटे लड़ाकों के गुट। मोटे तौर पर ये आतंकी गुट उत्तर में सक्रिय हैं। इन गुटों
में सत्ता का बंटवारा कैसे होता है, यह देखने की बात
है।
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