Thursday, August 26, 2021

तालिबान क्या टिकाऊ साबित होंगे?


तालिबान ने काबुल में प्रवेश जरूर कर लिया है, पर उनकी सरकार पूरी तरह बनी नहीं है। विदेशी सेना और नागरिकों की निकासी अधूरी है। दुनिया ने अभी तय नहीं किया है कि तालिबान-शासन को मान्यता दी जाए या नहीं। भारत से जुड़े मसले भी हैं, जिनपर अभी बात करने का मौका नहीं है, क्योंकि नई सरकार और उसकी नीतियाँ स्पष्ट नहीं हैं। फिलहाल तालिबानी-क्रांति के दूरगामी निहितार्थ को देखने की जरूरत है। 

वैश्विक-प्रतिक्रिया की वजह से तालिबान अपना चेहरा सौम्य बनाने की कोशिश कर रहे हैं। वे कितने सौम्य साबित होंगे, यह अब देखना है। इसके बाद क्या?  वे जो व्यवस्था बनाएंगे, उसमें नया क्या होगा? यह क्रांति तब हुई है, जब सऊदी अरब और खाड़ी के देश आधुनिकता की ओर बढ़ रहे है। क्या तालिबान पहिए को उल्टी दिशा में घुमाएंगे? लड़कियों की पढ़ाई और कामकाज में उनकी भागीदारी का क्या होगा? वैज्ञानिक शिक्षा, मनोरंजन और खेलकूद पर उनकी नीति क्या होगी?

पिछले बीस साल में अफगानिस्तान की करीब बीस फीसदी आबादी नई व्यवस्था की आदी हो गई है। नौजवान नई व्यवस्था में बड़े हुए हैं। तालिबान का क्या आधुनिक-व्यवस्था से मेल सम्भव है? क्या उनकी व्यवस्था टिकाऊ होगी? क्या वे दुनिया को कोई नया सामाजिक-आर्थिक मॉडल देने में सफल होंगे?  दूसरी तरफ सवाल यह भी है कि पाकिस्तान, बांग्लादेश, तुर्की, कजाकिस्तान, ताजिकिस्तान, उज्बेकिस्तान, मलेशिया और इंडोनेशिया जैसे देशों में भी क्या तालिबानी प्रवृत्तियाँ नहीं उभरेंगी?

19 अगस्त को तालिबान ने देश को इस्लामिक-अमीरात घोषित किया हैइसके पहले अफगानिस्तान इस्लामिक गणराज्य था। गणराज्य का मतलब, जहाँ राष्ट्राध्यक्ष जनता द्वारा चुना गया हो। अमीरात में मुखिया होगा, जो दूसरों को चुनेगा। वह खुद कैसे चुना जाएगा, यह स्पष्ट नहीं है। फिलहाल संकट सांविधानिक है। प्रशासनिक-व्यवस्था, अदालतों की स्थिति और वित्तीय योजना से जुड़े सवाल उठ रहे हैं। देश के चुनाव आयोग के सदस्य किसी अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में भाग लेने के लिए बाहर गए थे। वे बाहर ही हैं।

अमेरिका और तालिबान के बीच जो समझौता हुआ है, उसमें देश की भावी राज-व्यवस्था का उल्लेख नहीं है। तालिबान की पिछली व्यवस्था में टीवी और संगीत पर रोक थी, पुरुषों के लिए नमाज और दाढ़ी बढ़ाना अनिवार्य था, स्त्रियों को सिर से एड़ी तक अपने शरीर को ढकना जरूरी था। स्त्रियों और लड़कियों के स्कूल या काम पर जाने पर रोक थी। चोरों के हाथ काटने, शराबनोशी पर कोड़े लगाने और व्यभिचारी की पत्थर मारकर जान लेने की सजाएं थीं।

अब देखना होगा कि उनकी सांविधानिक-व्यवस्था कैसी होगी। दो दस्तावेज उपलब्ध हैं, जिनसे कुछ अनुमान लगाया जा सकता है। दस्तूर अमरात इस्लामी अफगानिस्तान1998 में तैयार किया गया था। तालिबान के तत्कालीन नेता मुल्ला मुहम्मद उमर ने देशभर से 500 इस्लामिक विद्वानों को एकत्र किया था। तीन दिन के विमर्श के बाद 14 पेज का एक दस्तावेज तैयार किया गया था। इसके अनुसार सत्ता एक अमीर-उल-मोमिनीन में निहित होगी। उस समय इस पद पर मुल्ला उमर थे। अमीर किस तरह और कितने समय के लिए चुन जाएंगे यह स्पष्ट नहीं है।

अमीर-उल-मोमिनीन एक कौंसिल का मनोनयन करेंगे, जो विधायिका और कार्यपालिका का काम करेगी। एक मंत्रिपरिषद होगी, जो इस कौंसिल के प्रति जवाबदेह होगी। संविधान के अनुसार सुन्नी इस्लाम देश का आधिकारिक धर्म होगा। कोई भी कानून इस्लामिक शरिया के विरुद्ध नहीं होगा। इसमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, स्त्रियों की शिक्षा और अदालतों में निष्पक्ष सुनवाई के अधिकारों की व्यवस्था की गई है, पर वे शरिया कानून की परिभाषा के तहत होंगे।

एक और दस्तावेज 2020 में लीक हुआ था, जिसका शीर्षक था मंशूर अमारात इस्लामी अफगानिस्तान।दूसरे दस्तावेज के बारे में तालिबान ने कभी कुछ नहीं कहा, पर पहला दस्तावेज काफी हद तक आधिकारिक है। दोनों दस्तावेज चुनाव-आधारित लोकतंत्र के विरोधी हैं। शरिया में चुनाव की व्यवस्था नहीं है। अस्सी के दशक में अफगान मुजाहिदीन ने उसूल असासी दवलत इस्लामी अफगानिस्तान नाम से एक दस्तावेज बनाया था। वह दस्तावेज भी ऐसा ही था, पर उसमें चुनाव की व्यवस्था थी। क्या तालिबान चुनावी-व्यवस्था को स्वीकार करेंगे? यह बड़ा सवाल है, काफी बड़ा।

शाह टाइम्स में प्रकाशित

 

 

 

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