Sunday, May 27, 2018

विरोधी-एकता के पेचो-ख़म



कर्नाटक विधान सौध के मंच पर विरोधी दलों की जो एकता हाल में दिखाई पड़ी है, उसमें नयापन कुछ भी नहीं था। यह पहला मौका नहीं था, जब कई दलों के नेताओं ने हाथ उठाकर अपनी एकता का प्रदर्शन करते हुए फोटो खिंचाई है। एकता के इन नए प्रयासों में सोशल इंजीनियरी की भूमिका ज्यादा बड़ी है। यह भूमिका भी उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और हरियाणा जैसे उत्तर भारत के कुछ राज्यों पर केन्द्रित है। लोकसभा की सीटें भी इसी इलाके में सबसे ज्यादा हैं। चुनाव-केन्द्रित इस एकता के फौरी फायदे भी मिले हैं। उत्तर प्रदेश के गोरखपुर, फूलपुर चुनावों में यह एकता नजर आई और सम्भव है कि अब कैराना में इस एकता की विजय हो। इतना होने के बावजूद इस एकता को लेकर कई सवाल हैं।

कर्नाटक विधानसभा चुनाव के बाद बनी विरोधी-एकता ने कुछ प्रश्नों और प्रति-प्रश्नों को जन्म दिया है। बिहार विधानसभा चुनाव में महागठबंधन की सफलता के बाद पूरे देश में ऐसा ही गठबंधन बनाने की कोशिशें चल रहीं हैं। पिछले साल राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति पद पर गठबंधन के प्रत्याशियों ने चुनाव लड़ा भी था। बावजूद इसके पिछले डेढ़ साल में तीन महत्वपूर्ण राज्यों में चुनाव हुए, जिनमें ऐसा गठबंधन मैदान में नहीं उतरा। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस और समाजवादी पार्टी का गठबंधन बना, पर उसमें बहुजन समाज पार्टी नहीं थी। गुजरात में कांग्रेस के साथ एनसीपी नहीं थी। कर्नाटक में चुनाव परिणाम आने के दिन बारह बजे तक गठबंधन नहीं था। फिर अचानक गठबंधन बन गया।


एक सवाल है कि चुनाव से पहले गठबंधन बनाना विरोधी दलों के हित में होगा या चुनाव बाद? सीपीएम के सीताराम येचुरी को बीजेपी-विरोधी रणनीतिकारों में शामिल किया जाता है। वैसे ही जैसे हरकिशन सुरजीत थे। वे मानते हैं कि 1996 और 2004 में चुनाव बाद गठबंधन बने थे। भविष्य में भी ऐसा ही होगा। अलबत्ता उनकी ही पार्टी के प्रकाश करात मानते हैं कि केवल चुनावी गणित से बीजेपी के राष्ट्रीय विस्तार को रोकना सम्भव नहीं। बहरहाल इतना नजर आ रहा है कि अगले लोकसभा चुनाव में विरोधी गठबंधन मैदान में जरूर होगा।

विडंबना है कि मोदी के खिलाफ गठबंधन साम्प्रदायिक ताकतों को रोकने के नाम पर बन रहा है, पर यह भी बुनियादी तौर पर जातीय और साम्प्रदायिक संरचना है। उत्तर प्रदेश के गोरखपुर और फूलपुर चुनाव में इस गठबंधन की सफलता के सोशल इंजीनियरी थी। कैराना में भी इसी सोशल इंजीनियरी के सहारे चुनाव हो रहा है। परिणाम विरोधी-एकता के महत्व को स्थापित करेंगे, पर इसके अंतर्विरोध भी हैं। राजनेताओं की आपसी प्रतिद्वंद्विताएं हैं और वे जिन सामाजिक ताकतों का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं, उनके टकराव भी हैं। देश के सभी दलित एक साथ नहीं हैं और न सभी पिछड़े एकसाथ हैं।  

कर्नाटक के शपथ ग्रहण समारोह की एक तस्वीर अखबारों में प्रकाशित हुई है, जिसमें राजनेता एक-दूसरे का हाथ पकड़े खड़े हैं। पर इन सभी दलों का एक गठबंधन नहीं बन सकता। मसलन येचुरी और ममता बनर्जी की पार्टियाँ एक साथ नहीं आएंगी। चंद्रबाबू भले ही सोनिया और राहुल के साथ एक मंच पर आ गए, पर उनका कांग्रेस के साथ गठबंधन सम्भव नहीं। कोई गारंटी नहीं है कि चुनाव के बाद तेदेपा एनडीए में वापस नहीं लौटेगी।

इस एकता में तमिल पार्टियों की भूमिका को लेकर कयास हैं। महाराष्ट्र में एनसीपी और कांग्रेस का गठबंधन जरूर सम्भव है। यह गठबंधन हुआ, तो शिवसेना का बीजेपी से अलग रहना भारी पड़ेगा। इनमें आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल भी थे। लगता नहीं कि उनकी पार्टी का कांग्रेस के साथ गठबंधन होगा। इससे उनकी पंजाब और दिल्ली की राजनीति प्रभावित होगी।

ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक एचडी देवेगौडा के व्यक्तिगत निमंत्रण पर भी नहीं आए और हाल में जब तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव ने कहा कि बीजद के साथ फेडरल फ्रंट को लेकर बात होने वाली है, तो नवीन पटनायक ने उसका खंडन करने में देर नहीं लगाई। चंद्रशेखर राव शपथ ग्रहण समारोह में सिर्फ इसलिए नहीं आए कि उन्हें कांग्रेसी नेताओं के साथ खड़ा होना पड़ेगा।

विरोधी-एकता के पीछे मजबूत वैचारिक आधार नहीं है। साम्प्रदायिकता का विरोध और धर्मनिरपेक्षता एक आधार है, पर ज्यादातर क्षेत्रीय दल साम्प्रदायिक, जातीय और अन्य संकीर्ण आधारों पर बने हैं। इस राजनीति में अब शिवसेना भी शामिल है। क्यों? इन सबके सिर पर अस्तित्व का संकट है। वैचारिक आधार है, तो इन्हें चुनाव से पहले एक कार्यक्रम लेकर उतरना चाहिए।

एक सवाल इस मोर्चे के नेता का है। कौन बनेगा नेता? क्या राहुल गांधी को दूसरे दल स्वीकार कर लेंगे? कांग्रेस का क्या होगा? क्या वह क्षेत्रीय दलों के साथ खड़े होकर उनकी बराबरी पर आ जाएगी? क्या सभी दल उसके नेतृत्व को स्वीकार करेंगे? ये बातें तय नहीं होंगी, तो चुनाव के बाद की कोई गारंटी भी नहीं है। महाराष्ट्र विधानसभा के पिछले चुनाव के बाद बीजेपी ने शिवसेना को एनसीपी की मदद से किनारे लगाया था। कर्नाटक में जेडीएस आज कांग्रेस के साथ है, पर 2019 के बाद स्थितियाँ बदल भी सकती हैं।

लोकनीति-सीएसडीएस के नवीनतम सर्वे में मोदी को अब भी सबसे लोकप्रिय नेता माना गया है, पर यह भी दिखाई पड़ रहा है कि राहुल गांधी और कांग्रेस की लोकप्रियता में भी सुधार है। इससे कांग्रेस पार्टी का विश्वास बढ़ा है। उसे लगता है कि हालात बदलेंगे। सर्वे में 2019 के लोकसभा चुनाव में एनडीए को करीब 37 फीसदी, यूपीए को 31 फीसदी और अन्य पार्टियों को 32 फीसदी वोट मिलने का अनुमान लगाया जा रहा है। क्या बड़ी संख्या में राजनीतिक दलों का अस्तित्व समाप्त होगा?

सन 2014 के चुनाव में 6 राष्ट्रीय, 45 प्रादेशिक और 419 पंजीकृत गैर-मान्यता प्राप्त पार्टियाँ उतरी थीं। तब बीजेपी को 31.3 फीसदी और कांग्रेस को 19.5 फीसदी वोट मिले थे। इनके अलावा बीएसपी (4.2), तृणमूल (3.8), अद्रमुक (3.3), सपा (3.2), सीपीएम (3.2), तेदेपा (2.5), शिवसेना (1.9), द्रमुक (1.8) और बीजद (1.7) इन नौ दलों को 25.6 फीसदी वोट मिले थे। इनमें सभी दल इस गठबंधन में शामिल नहीं होंगे। शेष 23.6 फीसदी वोट अन्य दलों और निर्दलीयों को मिले थे। देश का गणित इतना सरल नहीं है, जितना समझा या समझाया जा रहा है।

मोदी-विरोधी एकता मोदी को ताकतवर भी बनाती है। उनके समर्थकों का कहना है कि मोदी ने भ्रष्टाचारियों के खिलाफ कदम उठाए, इसलिए सब एक हो गए हैं। सन 1971 में यही रणनीति इंदिरा गांधी की थी। उनके विरोधी एक थे। तब इंदिरा ने कहा था, ये कहते हैं इंदिरा हटाओ, मैं कहती हूँ गरीबी हटाओ। सन 2002 के गुजरात दंगों के बाद से कांग्रेस ने मोदी को जितना घेरने की कोशिश की है उतना ही मोदी मजबूत होकर उभरे हैं। ऐसा क्यों हुआ? महागठबंधन मोदी को विक्टिम बनने का मौका देगा।

बीजेपी के खिलाफ पार्टियों के एकसाथ आने पर उनके कुछ समर्थक साथ भी छोड़ेंगे। पार्टियों की आपसी प्रतिद्वंद्विता भी है। सपा और बसपा के वोटर ऐसे भी हैं, जिनकी एक-दूसरे से नाराजगी है। कर्नाटक में कांग्रेस के बहुत से वोटरों को जेडीएस पसंद नहीं है और जेडीएस के बहुत से वोटर कांग्रेस को नापसंद करते हैं। ऐसा कोई सीधा गणित नहीं है कि पार्टियों की दोस्ती हुई, तो वोटरों की भी हो जाएगी।  
हरिभूमि में प्रकाशित

2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (28-05-2018) को "मोह सभी का भंग" (चर्चा अंक-2984) पर भी होगी।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    मातृ दिवस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    राधा तिवारी

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  2. समसामयिक लेख

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