Friday, May 11, 2018

कर्नाटक में त्रिशंकु विधानसभा का सीन


दो महीने पहले जब कर्नाटक विधानसभा चुनाव का बिगुल बजना शुरू हुआ था, तब लगता था कि मुकाबला कांग्रेस और बीजेपी के बीच है। पर अब लगता है कि जेडीएस को कमजोर आँकना ठीक नहीं होगा। चुनावी सर्वेक्षण अब धीरे-धीरे त्रिशंकु विधानसभा बनने की सम्भावना जताने लगे हैं। ज्यादातर विश्लेषक भी यही मानते हैं। इसका मतलब है कि वहाँ का सीन चुनाव परिणाम के बाद रोचक होगा।

त्रिशंकु विधानसभा हुई तब बाजी किसके हाथ लगेगी? विश्लेषकों की राय में कांग्रेस पार्टी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरेगी, पर जरूरी नहीं कि वह सरकार बनाने की स्थिति में हो। वह सबसे बड़ी पार्टी बनने में कामयाब होगी, तो इसकी वजह राहुल गांधी या सोनिया गांधी की रैलियाँ नहीं हैं, बल्कि मुख्यमंत्री सिद्धारमैया की चतुर राजनीति है। माना जा रहा है कि देश में मोदी को टक्कर देने की हिम्मत सिद्धारमैया ने ही दिखाई है। प्रचार के दौरान सिद्धारमैया अपना मुकाबला येदियुरप्पा से नहीं, मोदी से बता रहे हैं।  

इतना होने के बाद भी विश्वास नहीं होता कि बीजेपी के अध्यक्ष अमित शाह का चुनाव-मैनेजमेंट आसानी से व्यर्थ होगा। सच है कि इस चुनाव ने बीजेपी को बैकफुट पर पहुँचा दिया है। कांग्रेस अपने संगठनात्मक दोषों को दूर करके राहुल गांधी के नेतृत्व में खड़ी हो रही है। गुजरात में बीजेपी जीती, पर कांग्रेसी डेंट लगने के बाद। केन्द्र के खिलाफ एंटी इनकम्बैंसी भी बढ़ रही है। कर्नाटक के बाद अब बीजेपी को राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश की चिंता करनी होगी। 


सिद्धारमैया की सोशल इंजीनियरी

सिद्धारमैया के नेतृत्व में कर्नाटक सरकार ने पिछले कुछ वर्षों में राजनीतिक नज़रिए से महत्वपूर्ण कई फैसले किए हैं। उन्होंने दलितों और अल्पसंख्यकों के लिए आकर्षक योजनाओं की लाइन लगा दी है। इसके अलावा वे दलितों और पिछड़ों के आरक्षण को तमिलनाडु की तरह 50 फीसदी से बढ़ाकर 70 फीसदी तक ले जाना चाहते हैं। पिछले दिनों उन्होंने राज्य के लिए अलग झंडे की योजना बनाकर, बेंगलुरु मेट्रो सेवा में हिन्दी के सूचना पटों को हटाकर और राष्ट्रीयकृत बैंकों में हिन्दी के फॉर्मों की जगह कन्नड़ भाषा के फॉर्मों की माँगें उठाकर क्षेत्रीय भावना का भी जमकर दोहन किया है।

तमिलनाडु में सस्ते भोजन की अम्मा रसोई की तर्ज पर उन्होंने कर्नाटक में इंदिरा कैंटीन की शुरुआत की है। हालांकि यह स्कीम करीब-करीब फेल हो चुकी है, पर इससे पता लगता है कि सिद्धारमैया हर तरह के लोकलुभावन नुस्खों और टोटकों का इस्तेमाल कर डालेंगे। कांग्रेस पार्टी के लिए कर्नाटक का चुनाव आखिरी सहारा है। गुजरात चुनाव के बाद से पार्टी ने जो आक्रामक रुख अपनाया है, उसमें साम-दाम, दंड-भेद सब कुछ इस्तेमाल करने का फैसला किया है। पार्टी इस बात को साबित करना चाहती है कि कर्नाटक से चुनावी राजनीति का ऊँट करवट बदलने जा रहा है। इस लिहाज से उसकी प्रतिष्ठा दाँव पर है।

अमित शाह का जवाब

सिद्धारमैया की इस तुर्की-ब-तुर्की राजनीति के जवाब में बीजेपी ने भी आक्रामक रवैया अपनाया है। पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह पिछले कई महीनों से बार-बार कर्नाटक आ रहे हैं। उनकी सबसे बड़ी ताकत है संगठनात्मक शक्ति, जिसमें कांग्रेस के पास उसका कोई जवाब नहीं है। पार्टी ने सबसे निचले स्तर तक अपने कार्यकर्ताओं को लगा दिया है। गत 1 मई से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की रैलियों ने भी चुनाव प्रचार का माहौल बदला है। पहले कहा जा रहा था कि मोदी जी की 12 रैलियाँ होंगी, फिर यह संख्या 15 हुई, फिर 18 और अब 21 हो गई है। पार्टी कोई चांस छोड़ना नहीं चाहती। अमित शाह चाहते हैं कि पार्टी को हर हाल में स्पष्ट बहुमत मिलना चाहिए।

बीजेपी ने केवल चुनाव की तैयारी ही नहीं की है, बल्कि चुनाव परिणाम आने के बाद की सभी सम्भावनाओं के मद्देनज़र अपनी रणनीति भी तैयार कर ली है। माना जा रहा है कि जेडीएस के नेता एचडी देवेगौडा के साथ पार्टी ने एक अनौपचारिक समझौता कर लिया है। यदि त्रिशंकु विधानसभा के हालात बने तो उस स्थिति में पार्टी की रणनीति क्या होगी, इसपर भी विचार किया गया है।

कांग्रेस को सन 2013 में मिली बड़ी जीत इसबार उसके लिए दिक्कतें भी खड़ी कर सकती है। कर्नाटक में सरकारें बदलने का रिवाज है। सिद्धारमैया सरकार की तमाम प्रगतिशील योजनाओं के बावजूद सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप भी लगे हैं। स्वाभाविक रूप से उसे एंटी इनकम्बैंसी का सामना करना होगा। सन 2013 के चुनाव में बीजेपी का केन्द्रीय नेतृत्व लड़खड़ाया हुआ था। राज्य में बीएस येदियुरप्पा पार्टी से अलग हो चुके थे। उन्होंने अपनी पार्टी अलग बना ली थी, जिसने बीजेपी के वोट काटने का काम किया। तब के मुकाबले आज बीजेपी की संगठनात्मक स्थिति बेहतर है। 

जेडीएस की ढाल

बीजेपी की रणनीति इसबार कांग्रेस से मुकाबले के लिए जेडीएस को ढाल की  तरह इस्तेमाल करने की है। यों तो राज्य में लम्बे अरसे से तीन शक्तियाँ मैदान में रहती हैं, पर 2013 के चुनाव में कांग्रेस न केवल सबसे बड़ी ताकत के रूप में उभरी बल्कि शेष दोनों ताकतों को उसने बौना बना दिया। कांग्रेस का दलित, मुसलमान और पिछड़ा वोट जेडीएस का भी जनाधार बनाता है। बीजेपी की कोशिश है कि कांग्रेस के इस जनाधार को जेडीएस यथा सम्भव काटे। जेडीएस के साथ बहुजन समाज पार्टी का चुनावी गठबंधन है। उसके 18 प्रत्याशी मैदान में है। बसपा पहली बार दक्षिण भारत में प्रवेश कर रही है। मुकाबला केवल उन 18 सीटों पर ही महत्वपूर्ण नहीं होगा, जहाँ बसपा चुनाव लड़ रही है। कर्नाटक में दलित-वोटरों की संख्या सबसे ज्यादा है। बीएसपी के आने से क्या अंतर आया, यह परिणाम आने के बाद ही पता लगेगा। 

सिद्धारमैया का बुनियादी फॉर्मूला है अल्पसंख्यक, हिन्दू दलित और पिछड़ी जातियाँ। इस चुनाव की तैयारी उन्होंने सन 2015 से शुरू कर दी थी, जब उन्होंने राज्य की जातीय जनगणना कराई। उसके परिणाम कभी घोषित नहीं हुए, पर सिद्धारमैया ने पिछड़ों और दलितों को 70 फीसदी आरक्षण देने का वादा जरूर किया। हालांकि आरक्षण 50 फीसदी से ज्यादा नहीं किया जा सकता, पर उन्होंने कहा कि हम इसे 70 फीसदी करेंगे। ऐसा तमिलनाडु में हुआ है, पर इसके लिए संविधान के 76 वां संशोधन करके उसे नवीं अनुसूची में रखा गया है, ताकि अदालत में चुनौती नहीं दी जा सके। सिद्धारमैया को इस मामले में केन्द्र का सहयोग नहीं मिलेगा।

सिद्धा की विसंगतियाँ

सिद्धारमैया ने चुनाव के ठीक पहले लिंगायतों को अलग धर्म के रूप में मान्यता देने की पहल की। उनकी इस पहल का असर क्या पड़ा यह देखना होगा। अभी दोनों किस्म के संकेत हैं। कांग्रेस को फायदा हो भी सकता है और नुकसान भी सम्भव है। बेशक वीरशैव-लिंगायत समाज में विभाजन हो रहा है, पर उसके भीतर भी बहस चल रही है। इस इलाके से वापस आने वाले संवाददाताओं का कहना है कि जमीन पर, ऐसा नजर नहीं आता कि लिंगायत वोट टूट जाएगा।

कुछ मठों ने सिद्धारमैया के इस कदम की तारीफ जरूर की है, पर उससे कोई गहरा निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता। वीरशैव समुदाय बीजेपी के पक्ष में डटा नजर आ रहा है। इतना ही नहीं वह उन्हें सज़ा देना चाहता है, जिसने उन्हें विभाजित करने की कोशिश की है। कन्नड़-गौरव, हिन्दी-विरोध और उत्तर-दक्षिण भावनाओं को भड़काने स कन्नड़-प्रेमियों का समर्थन उन्हें कितना मिला कहना मुश्किल है, पर बेंगलुरु जैसे शहर में जहाँ हिन्दी-भाषी वोटर भी आ गया है, इसकी प्रतिक्रिया भी होगी। इसके अलावा कांग्रेस को हिन्दी-राज्यों में नुकसान होगा।

सिद्धारमैया खुद दो जगह से चुनाव लड़ रहे हैं। साफ है कि अपने चुनाव जीत पाने को लेकर वे आश्वस्त नहीं हैं। उनके लिए पहले चामुंडेश्वरी सीट की घोषणा हुई। इसके कुछ बाद जब लगा कि वे यहाँ से हार सकते हैं, तो बादामी सीट की घोषणा हुई। यदि उन्होंने एक साथ दोनों सीटों से लड़ने की घोषणा की होती तो उसका असर अलग होता। बहरहाल संदेश यह गया कि वे दबाव में हैं। अब अंतिम समय में खबरें मिली हैं कि उन्होंने चामुंडेश्वरी चुनाव से हट जाने की घोषणा की है। यह विस्मयकारी खबर है।

बीजेपी की बारीक रणनीति

रैलियों, मीडिया कवरेज और दूर से सुनाई पड़ने वाली नारेबाजी से ही चुनाव परिणामों का अनुमान नहीं लगाया जा सकता। सबसे महत्वपूर्ण होते हैं बारीक क्षेत्रीय समीकरण। खासतौर से तब जब किसी किस्म की राजनीति-आँधी नहीं चल रही हो। दूर से लगता है कि जनता भ्रष्टाचार से नफरत करती है। बीजेपी ने बेल्लारी के खनन माफिया के निकटवर्ती आठ लोगों को टिकट दिए हैं। देखना होगा कि चुनाव की बिसात पर फेंका गया यह दाँव सफल होगा या नहीं। बताते हैं कि बेल्लारी के आसपास के तीन जिलों में इन बंधुओं की धाक है। कहते हैं कि इन जिलों की 22 सीटों में से बड़ा हिस्सा बीजेपी जीत ले तो आश्चर्य नहीं होगा। राजनीति का अंतिम लक्ष्य चुनाव जीतना है।

बीजेपी अपने परम्परागत क्षेत्रों पर ध्यान दे रही है। जहाँ वह पिछली बार हारी थी। उत्तर कर्नाटक और राज्य के तटीय क्षेत्र दक्षिण कर्नाटक भारतीय जनता पार्टी गढ़ माने जाते हैं। सन 2013 के चुनाव में बीजेपी को इन दोनों इलाकों में हार का सामना करना पड़ा था। उस चुनाव में बीएस येदियुरप्पा बीजेपी से अलग थे। उन्होंने एक अलग पार्टी कर्नाटक जनता पक्ष बनाई, जो हालांकि केवल 6 सीटें ही जीत पाई, पर उसे 9.83 फीसदी वोट मिले। इसके मुकाबले कांग्रेस को 36.6, जेडीएस को 20.2 और बीजेपी को 19.9 फीसदी वोट मिले थे। ज़ाहिर है कि बीजेपी के बिखराव का नुकसान पार्टी को हुआ।

येदियुरप्पा की वापसी

इस चुनाव में येदियुरप्पा न केवल पार्टी के साथ हैं, बल्कि मुख्यमंत्री पद के प्रत्याशी भी हैं। कर्नाटक का सामाजिक-सांस्कृतिक ताना-बाना पूरे राज्य में एक जैसा नहीं है। राज्य के तटवर्ती इलाकों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपना प्रभाव क्षेत्र कायम किया है। संघ के कई कार्यकर्ताओं की इस इलाके में हत्याएं भी हुईं हैं। इस क्षेत्र में समृद्ध मुस्लिम आबादी है और अंतर-धर्म विवाह की घटनाएं यहाँ काफी हुईं हैं, जिन्हें लव जेहादकहा जाता है। इसी इलाके में पीएफआई से निकली सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ इंडिया (एसडीपीआई) भी मैदान में है और जिसने सात सीटों पर अपने प्रत्याशी खड़े किए हैं। सन 2013 में बीजेपी की हार का एक बड़ा कारण इस इलाके का हाथ से निकलना था। मंगलोर और उडुपी जिलों की कुल 13 सीटों में बीजेपी को केवल एक सीट मिली थी, जबकि 2008 में उसे यहाँ से 8 सीटें मिली थीं।

राज्य का दूसरा महत्वपूर्ण क्षेत्र है हाले (पुराना) मैसूर क्षेत्र। इस इलाके में सबसे बड़ी आबादी वोक्कालिगा लोगों की है। उनके अलावा कुरबा और दलित भी बड़ी संख्या में हैं। सन 2013 में कांग्रेस को इस इलाके में 40 और 2008 में 41 सीटें मिलीं थीं। वोक्कालिगा वोटर सामान्यतः जेडीएस को वोट देता है। पिछले चुनाव में जेडीएस ने इस क्षेत्र में 30 सीटें हासिल की थीं, जबकि 2008 में उसे यहाँ से 18 सीटें ही मिलीं थीं।

आंध्र प्रदेश से लगे हैदराबाद कर्नाटक वीरशैव लिंगायत बहुल क्षेत्र है। लिंगायत वोट सामान्यतः बीजेपी को जाता है, पर सिद्धारमैया सरकार ने वीरशैव (हिन्दू) और लिंगायत (गैर-हिन्दू) को विभाजित कर दिया है। देखना होगा कि वोटर इस आधार पर विभाजित हुआ है या नहीं। येदियुरप्पा लिंगायत नेता है। इस क्षेत्र से कांग्रेस ने पिछली बार 19 सीटें, जेडीएस और बीजेपी ने चार-चार येदियुरप्पा की कर्नाटक जनता पक्ष ने तीन सीटें जीतीं।

बेलगावी कर्नाटक पश्चिमी घाट का उत्तरी क्षेत्र है, जो महाराष्ट्र और गोवा से मिलता है। इसे मुम्बई-कर्नाटक क्षेत्र भी कहते हैं। इसके तहत उत्तरी कर्नाटक के सात जिले आते हैं, जिनमें विधानसभा की 56 सीटें हैं। यह इलाका बीजेपी के प्रभावक्षेत्र में आता था, जहाँ से 2008 के चुनाव में उसने 38 सीटें जीती थीं। पर 2013 के चुनाव में उसे यहाँ भारी धक्का लगा। यहाँ से कांग्रेस ने 34 सीटें जीतीं और बीजेपी को केवल 14 सीटें मिलीं। बीजेपी इसबार इस इलाके में अपनी ताकत बढ़ाने की उम्मीद कर रही है। नरेन्द्र मोदी ने अपने चुनाव अभियान की शुरूआत इसबार इसी इलाके से की है। इस इलाके में बीजेपी और कांग्रेस की सीधी टक्कर है।

सामाजिक ध्रुवीकरण

बेंगलुरु के शहरी इलाके भी चुनाव परिणामों पर असर डालेंगे। यहाँ कुल 28 सीटें हैं। पिछले चुनाव में यहाँ से कांग्रेस ने 13 सीटें जीती थीं और बीजेपी ने 12। इसके पहले 2008 में बीजेपी को यहाँ से 17 सीटें मिलीं थीं। राज्य की राजधानी और शहरी क्षेत्र होने के कारण यहाँ के वोटर की सामाजिक संरचना मिली-जुली है और उसके ज्यादातर मसले शहर की व्यवस्था, पानी की किल्लत, बढ़ते अपराध और विकास से जुड़े हैं।

मध्य कर्नाटक के तुमकुर, दावणगेरे, चित्रदुर्ग और शिवमोगा जिलों की कुल 32 सीटों में से 18 पिछले चुनाव में कांग्रेस ने जीती थीं। जेडीएस को 10 और बीजेपी को केवल 2 सीटें मिलीं थीं। राज्य में ही नहीं राष्ट्रीय राजनीति में अबकी बार बीजेपी के हिन्दुत्व की परीक्षा है। दक्षिण भारत के इस हिस्से में अतीत में काफी धर्मांतरण हुआ है। खाड़ी देशों में रोजगार के कारण यहाँ का मुस्लिम-समुदाय समृद्ध है।

राज्य में 35 विधानसभा सीटें ऐसी हैं जहां मुसलमानों की आबादी बीस प्रतिशत या उससे ज़्यादा है। इस वोट पर कांग्रेस के अलावा जेडीएस की निगाहें भी हैं। दक्षिण कर्नाटक के जिलों में खाड़ी देशों में काम करने वाले मुसलमानों के परिवार रहते हैं। इनके बीच 'पॉपुलर फ्रंट ऑफ़ इण्डिया' यानी पीएफआई भी सक्रिय है, जिसपर लव जेहाद के मार्फत धर्मांतरण को बढ़ावा देने का आरोप है। प्रतिक्रिया में इस इलाके में हिन्दूवादी संगठन भी सक्रिय हैं। इन बातों से बीजेपी की राष्ट्रीय-राजनीति भी प्रभावित होती है।



पिछले परिणाम

पार्टी
1999
2004
2008
2013
कांग्रेस
132
65
80
121
बीजेपी
44
79
110
40
जेडीएस
10
58
28
40
अन्य
38 (जेडीयू 18)
22
06
22








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