Saturday, May 5, 2018

वोट मुसलमान का, सियासत किसी और की...

कर्नाटक विधानसभा चुनावों के प्रचार के दौरान नरेंद्र मोदी ने पहले तो एचडी देवगौड़ा की तारीफ की और फिर अगले ही रोज कहा कि जेडीएस को वोट देने का मतलब है वोट की बरबादी। क्या उनके इन उल्टे-सीधे बयानों के पीछे कोई गहरी राजनीति है? वे वोटर को बहका रहे हैं या अपने प्रतिस्पर्धियों को? क्या बीजेपी और जेडीएस का कोई छिपा समझौता है? क्या बीजेपी ने कांग्रेस को हराने के लिए जेडीएस को ढाल बनाया है? भारतीय राजनीति में सोशल इंजीनियरी का स्वांग तबतक चलेगा, जबतक वोटर को अपने हितों की समझ नहीं होगी। मुसलमान वोटर पर भी यही बात लागू होती है।
कर्नाटक की सोशल इंजीनियरी उत्तर भारत के राज्यों से भी ज्यादा जटिल है। ऐसे में देवेगौडा की तारीफ या आलोचना मात्र से कुछ फीसदी वोट इधर से उधर हो जाए, तो हैरत नहीं होनी चाहिए। इस इंजीनियरी में सिद्धरमैया और अमित शाह में से किसका दिमाग सफल होगा, इसका पता चुनाव परिणाम आने पर लगेगा। इतना समझ में आ रहा है कि बीजेपी की कोशिश है कि दलितों और मुसलमानों के एकमुश्त वोट कांग्रेस को मिलने न पाएं। इसमें जेडीएस मददगार होगी।
सोशल इंजीनियरी का स्वांग
क्या जेडीएस खुद को चारे की तरह इस्तेमाल होने देगी? उसका बीएसपी और असदुद्दीन ओवेसी की एआईएमआईएम के साथ समझौता है और उसका अपना भी वोट-आधार है। उसके गणित को भी समझना होगा। सन 2015 में जबसे ओवेसी बिहार में चुनाव लड़ने गए हैं, उनकी साख घटी है। माना जाता है कि वे कांग्रेस को मिलने वाला मुसलमान वोट काटने के लिए जाते हैं।
राज्य में दलित और मुसलमान दो सबसे बड़े सामाजिक वर्ग हैं। ये दोनों एक साथ आ जाएं, तो बड़ी ताकत बन सकते हैं, पर क्या ऐसा सम्भव है? प्रश्न है कि दलित और मुसलमान क्या टैक्टिकल वोटिंग करेंगे? दलित ध्रुवीकरण अभी राज्य में नहीं है, पर मुसलमान वोट सामान्यतः बीजेपी को हराने वाली पार्टी को जाता है। सिद्धरमैया भी चाहते हैं कि बीजेपी और जेडीएस का याराना नजर आए। इससे मुसलमानों की जेडीएस से दूरी बढ़ेगी। हाल में कांग्रेस ने जेडीएस के कुछ मुस्लिम नेताओं को अपनी तरफ तोड़ा भी है।

सन 2006 में जेडीएस और बीजेपी के बीच रिश्ते कायम होने के बाद से इस पार्टी का मुसलमानों के बीच आधार कमजोर हुआ है। पर कांग्रेस भी संशय में है। वह खुद को मुसलमानों की पार्टी साबित नहीं होने देना चाहती। इस रूप में देखा गया तो हिन्दू वोट बीजेपी को चला जाएगा। इसीलिए कालबुर्गी में गुलाम नबी आजाद ने कहा कि हिन्दुओं का विरोध न करें, केवल कांग्रेस को वोट दें।
सिद्धरमैया की मुसलमान-परस्ती
कर्नाटक सरकार ने हाल में मुसलमानों को खुश करने के कुछ फैसले भी किए हैं। जनवरी, 2018 में एक सर्कुलर के जरिए अल्पसंख्यकों के खिलाफ पिछले 5 पाँच साल दर्ज साम्प्रदायिक हिंसा के केस वापस लेने की घोषणा की गई। बीपीएल परिवारों में अल्पसंख्यक समुदाय की कन्या के विवाह के लिए 50 हजार रुपये की आर्थिक सहायता का कार्यक्रम शुरू हुआ। टीपू सुल्तान के जयंती कार्यक्रम ने भी ध्रुवीकरण को बढ़ावा दिया।
मुसलमानों के बीच सामान्य धारणा है कि सिद्धरमैया ने बीजेपी के खिलाफ मोर्चा खोला है और मजबूती से जमा है। पर उधर कांग्रेस अपनी छवि मुसलमान-परस्त और हिन्दू-विरोधी बनाना नहीं चाहती। राहुल गांधी ने इस बीच तमाम मठों और मंदिरों की यात्रा इस बीच कर ली। अब उन्होंने कैलाश मानसरोवर की यात्रा पर जाने की भी घोषणा की है।
मुसलमानों का महत्व
राज्य में मुसलमान वोटर 13 से 16 प्रतिशत के बीच हैं। 35 विधानसभा सीटें ऐसी हैं जहां मुसलमानों की आबादी बीस प्रतिशत या उससे ज़्यादा है। इसके अलावा 90 सीटों पर मुसलमान वोटर चुनाव को प्रभावित करने की स्थिति में हैं। इन सीटों पर कांग्रेस के अलावा जेडीएस की निगाहें भी हैं। मुस्लिम राजनीति पर नजर रखने वालों का कहना है कि जिन इलाकों में मुसलमानों की संख्या बड़ी होती है, वहाँ ज्यादातर पार्टियाँ मुसलमान प्रत्याशी खड़े करती हैं। कुछ निर्दलीय भी खड़े होते हैं। इससे मुसलमानों का वोट बँट जाता है।
मुसलमानों की सामाजिक संरचना भी एक जैसी नहीं है। दक्षिण कर्नाटक के जिलों में खाड़ी देशों में काम करने वाले मुसलमानों के परिवार रहते हैं। इनके बीच 'पॉपुलर फ्रंट ऑफ़ इण्डिया' यानी पीएफआई भी सक्रिय है, जिसपर लव जेहाद के मार्फत धर्मांतरण को बढ़ावा देने का आरोप है। पीएफआई की राजनीतिक शाखा सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ इंडिया (एसडीपीआई) इस बार सात सीटों पर अपने प्रत्याशी उतार रही है। सवाल है कि क्या एसडीपीआई चुनाव जीतने की स्थिति में है? यदि नहीं तो क्यों खड़ी?
मुसलिम-बहुल इलाके
कर्नाटक के सात-आठ विधानसभा क्षेत्रों में मुसलमानों का प्रतिशत काफी ज्यादा है। मसलन मंगलोर (50.7 प्रश), बेंगलुरु की पुलकेशीनगर सीट (49.3), गुलबर्गा (49.7), बीजापुर शहर (47.3), मैसूर की नरसिंहराजा सीट (44 फीसदी), बेंगलुरु के सर्वज्ञ नगर (40) और चामरेजपेट (43) क्षेत्र में मुस्लिम वोट निर्णायक होंगे। विडंबना है कि राज्य में वोटर की बड़ी ताकत होने के बावजूद पिछले तीन दशक में मुसलमान विधायकों की संख्या 6 से 12 के बीच ही रही है।
सन 1978 में सबसे ज्यादा 16 मुसलमान विधायक जीतकर गए। सन 1972, 1989 और 1999 में 12 मुस्लिम विधायक चुने गए। सन 1983 में केवल दो विधायक ही चुनकर आए। जाहिर है कि राज्य में मुस्लिम नेतृत्व विकसित नहीं हुआ है। अलबत्ता नब्बे के दशक में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद से मुस्लिम वोटर जरूर व्यथित हुआ है और उसके नेता चुनाव में सक्रिय हुए हैं। इस वक्त बीजेपी को हराना मुस्लिम राजनीति का मुख्य लक्ष्य है। बीजेपी ने भी मुसलमानों को अपनी तरफ लाने की कभी कोशिश नहीं की। सन 2004 में उसने दो टिकट मुसलमान प्रत्याशियों को दिए थे। सन 2008 में एक टिकट दिया। इस साल उसने एक भी मुसलमान प्रत्याशी नहीं उतारा है।
मुस्लिम-राजनीति की दिशा
दरअसल मुसलमानों के राजनीतिक-प्रतिनिधित्व से ज्यादा बड़ा सवाल है कि मुसलमानों को सरकार से क्या चाहिए? ज़ाहिर है कि सामाजिक-संरक्षण और धार्मिक अधिकारों के अलावा उनकी जरूरतें भी वही हैं, जो किसी दूसरे धर्म या जाति के लोगों की होती हैं। मुसलमानों की राजनीतिक भूमिका को लेकर देश में लगातार विमर्श चल रहा है। 28 गैर-राजनीतिक संगठनों की संस्था कर्नाटक मुस्लिम मुत्तहिदा महाज़ की चिंता है कि मुसलमान वोट को बँटने से कैसे रोका जाए।
वस्तुतः कोई एकांगी-एकरूपी मुस्लिम राजनीति देश में नहीं है। नब्बे के दशक के बाद से बीजेपी को हराना मुस्लिम राजनीति का लक्ष्य है। उन दिनों देश के मुसलमान बीजेपी के साथ-साथ कांग्रेस से भी नाराज थे। जब मस्जिद टूटी तो केन्द्र में कांग्रेस की सरकार थी। बाबरी मस्जिद टूटने के बाद उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी मुसलमानों की सरपरस्त बनी और बिहार में लालू यादव की राजद।
राष्ट्रीय स्तर पर मुस्लिम राजनीति तब से संशय में है और यह संशय कर्नाटक में भी नजर आता है। कर्नाटक में नई-नई बनी पार्टी एसडीपीआई का कहना है कि कांग्रेस, जेडीएस या दूसरी कोई धर्म-निरपेक्ष पार्टी हमारा वोट लेकर अपनी राजनीति और अपने एजेंडा को लागू करेगी। वह हमारी कौम का प्रतिनिधित्व नहीं करती। हमारे मसलों को सामने लाने वाली पार्टी हमारी अपनी होनी चाहिए।
कांग्रेस की अधीनता क्यों?
हाल के वर्षों में असम में बद्रुद्दीन अजमल की एआईडीयूएफ तेजी से उभरकर आई है। क्या दक्षिण भारत में एसडीपीआई ऐसा कर पाएगी? असदुद्दीन ओवेसी और दूसरे कुछ मुस्लिम नेताओं का कहना है कि मुसलमान वोटों के बँटने का खौफ कांग्रेस फैलाती है। उसकी दिलचस्पी मुसलमानों को अपने अधीन बनाए रखने में है। इधर यूपी में मुसलमान वोटरों ने समाजवादी पार्टी का साथ छोड़कर बसपा और कांग्रेस जैसे दूसरे दलों की ओर देखना शुरू कर दिया है।
इसका मतलब क्या है? मुसलमान संशय में हैं। उन्हें अपनी राजनीति की दिशा के बारे में सोचना चाहिए। केवल बीजेपी को हराना है तो किसी न किसी संरक्षक-दल की उन्हें जरूरत होती रहेगी। बहरहाल कर्नाटक में मुसलमानों के बीच सक्रिय कुछ दूसरी पार्टियाँ भी हैं। तटवर्ती कर्नाटक के सात चुनाव क्षेत्रों में एसडीपीआई ने अपने प्रत्याशी खड़े किए हैं।
राज्य में मुसलमान महिलाओं का एक समूह भी राजनीति में उतरा है। आंध्र प्रदेश की नौहेरा शेख ने ऑल इंडिया महिला एम्पावरमेंट पार्टी बनाई है, जिसने 221 सीटों पर अपने प्रत्याशी खड़े किए हैं। नौहेरा शेख बड़ी कारोबारी हैं और उन्होंने जो तस्वीर जारी की है, उसमें उनके साथ पार्टी का घोषणापत्र लेकर फिल्म अभिनेता सलमान खान के भाई अरबाज़ खान और सुहेल खान भी खड़े हैं। उनके कार्यक्रमों में सानिया मिर्जा और फराह खान भी नजर आती रहीं हैं। उनकी पार्टी ने पचास फीसदी सीटें महिलाओं को देने का दावा किया है।
मुसलमानों का बड़ा तबका मानता है कि ऐसी छोटी पार्टियाँ मुसलमान वोटों को काटने के लिए खड़ी होती हैं। बीजेपी की सभाओं में भी बुर्का पहने कुछ महिलाएं नजर आती हैं। ट्रिपल तलाक को लेकर बीजेपी मुसलमान महिलाओं के बीच जाने की कोशिश भी करती है। यह सब स्वांग जैसा लगता है, पर इसे अस्वीकार भी नहीं कर सकते।
हिन्दू अख़बार की यह रिपोर्ट भी पढ़ें 


1 comment:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (06-05-2018) को "उच्चारण ही बनेंगे अब वेदों की ऋचाएँ" (चर्चा अंक-2962) (चर्चा अंक-1956) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

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