टी-20 क्रिकेट की तरह आखिरी ओवर में कहानी बदल गई. कर्नाटक के चुनाव
परिणाम जब क्लाइमैक्स पर पहुँच रहे थे तभी उलट-फेर हो गया. बीजेपी सबसे बड़ी
पार्टी बनने में तो सफल हो गई, पर बहुमत से पाँच छह सीटें दूर रहने की वजह से पिछड़
गई. उसके पास कोई विकल्प नहीं बचा. पहले से अनुमान था जेडीएस ‘किंगमेकर’ बनेगी. अब कोई पेच पैदा नहीं हुआ तो एचडी कुमारस्वामी के नेतृत्व में
कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनेगी. कुमारस्वामी ने अपना दावा भी पेश कर दिया है. उधर
येदियुरप्पा का भी दावा है. राज्यपाल के पास सबसे बड़े दल को बुलाने का विकल्प है,
पर कुमारस्वामी बहुमत दिखा रहे हैं, तो सम्भव है कि उन्हें ही बुलाया जाए.
मंगलवार को जब चुनाव परिणाम आ ही रहे थे कि कांग्रेस ने गतिविधियाँ
तेज कर दीं और सिद्धारमैया ने घोषणा की कि हम एचडी कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री
बनाने को तैयार हैं. बेंगलुरु में मौजूद गुलाम नबी आजाद और अशोक गहलोत मीडिया से
बात कर रहे थे कि उधर खबर आई कि सोनिया गांधी ने देवेगौडा से फोन पर बात की है. इस
तेज घटनाक्रम में बीजेपी बैकफुट पर चली गई. उसके पास अब कोई विकल्प नहीं है. सन
2008 में भी ऐसी ही स्थिति बनी थी. तब बीजेपी को 110 सीटें मिलीं थीं. उस वक्त
बीएस येदियुरप्पा ने छह निर्दलीय विधायकों की मदद से सरकार बनाई थी. पर आज वैसा
सम्भव नहीं है.
बेशक एचडी देवेगौडा अब ‘किंगमेकर’ हैं. चुनाव-परिणाम को लेकर तीनों पक्षों को पहले से अंदाजा था
कि त्रिशंकु विधानसभा बन सकती है. तीनों ने इसीलिए अपने प्लान ‘बी’ तैयार करके
रखे थे. ऐसा माना जा रहा था कि बीजेपी और जेडीएस के बीच आपसी सहमति थी, पर यह
सहमति चुनाव को लेकर ही थी. चुनाव के बाद की स्थितियों में जेडीएस के सामने विकल्प
कम हैं. अंततः उसे विरोधी दलों के साथ ही रहना होगा.
कांग्रेस ने बिना शर्त समर्थन दिया है. सवाल है
कि क्या वह सरकार में शामिल होगी? यह अपने आप में पेचीदा
बात है. कुछ चैनल खबर दे रहे हैं कि पार्टी बाहर से समर्थन देगी और कुछ का कहना है
कि सरकार में शामिल होगी. जेडीएस ने कहा है कि कांग्रेस को भी सरकार में शामिल होना
चाहिए. कांग्रेस बाहर रहकर सरकार को समर्थन देगी, तो रोचक स्थितियाँ पैदा होंगी.
सन 1996 में कांग्रेस के समर्थन से एचडी देवेगौडा प्रधानमंत्री के रूप में काम
करके देख चुके हैं. इसी तरह दिल्ली में आम आदमी पार्टी की पहली सरकार भी कांग्रेस के
समर्थन से बनी थी.
कर्नाटक चुनाव के दो पहलू हैं. पहला है चुनाव परिणाम और दूसरा है सरकार
का गठन. इसमें दो राय नहीं कि वोटर ने कांग्रेस को हराया है. इन परिणामों से
कांग्रेस को बड़ा धक्का लगा है. खासतौर से राहुल गांधी के लिए यह खराब खबर है. अध्यक्ष
बनने के बाद उनका यह पहला चुनाव था और पार्टी को यहाँ से बहुत उम्मीदें थीं. बावजूद
चुनाव हारने के उन्होंने बीजेपी को रोकने का श्रेय हासिल कर लिया है. बीजेपी का
कहना है कि चुनाव में हम जीते, पर कांग्रेस की मौकापरस्ती ने हमें सरकार बनाने से
रोक दिया है. बहरहाल यह राजनीति का हिस्सा है, जिसमें ऐसे मौके आते रहते हैं.
कर्नाटक को बीजेपी-विरोधी राजनीति की शुरुआत मान सकते हैं, पर इसके
निहितार्थ पूरी तरह सामने आने में समय लगेगा. देखना होगा कि कांग्रेस इस सरकार में
शामिल होगी या नहीं. उसके शामिल होने से अंतर्विरोध पैदा होंगे. और बाहर रही तो
दूसरी तरह की विसंगतियाँ पैदा होंगी. अंततः यह बीजेपी को रोकने की प्रक्रिया का
हिस्सा है. इस सरकार को बनाने में मायावती और ममता बनर्जी की भूमिका है. ध्यान से
देखें तो आने वाले समय में बीजेपी-विरोधी राजनीति में गैर-कांग्रेसी नेताओं की
भूमिका बढ़ने वाली है.
अब केवल कांग्रेस के नजरिए से देखें कि उसे क्या मिला? यह उसकी जीत नहीं
है. मंगलवार को जब चुनाव परिणाम आ रहे थे, तब ममता बनर्जी ने ट्वीट किया कि कांग्रेस
और जेडीएस ने मिलकर चुनाव लड़ा होता, तो परिणाम कुछ और होते. दोनों दलों का
चुनाव-पूर्व समझौता नहीं हुआ. अब जाहिर है कि लोकसभा चुनाव में दोनों दल मिलकर
लड़ेंगे. और शायद इस गठबंधन के इर्द-गिर्द विरोधी दलों की एकता कायम होगी. दूसरी
ओर कर्नाटक के चुनाव ने वोटर के नजरिए को भी व्यक्त किया है. कांग्रेस कह सकती है
कि बीजेपी की साम्प्रदायिक सरकार को रोकने के लिए उसने त्याग किया है, पर भविष्य
के चुनावों में उसकी रणनीति क्या होगी?
कांग्रेस इस चुनाव को 2019 के चुनाव में वापसी का प्रस्थान-बिन्दु
मानकर चल रही थी. ‘नया नेतृत्व, नई कांग्रेस, नया माहौल’ जैसे उसके नारों का
असर नजर नहीं आया. इस चुनाव का असर राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के चुनाव
पर भी पड़ेगा. कांग्रेस इन राज्यों में से एक या दो में जीत की उम्मीद रखती है.
पार्टी जीती होती, तो कार्यकर्ता उत्साह से भरा होता. फिलहाल वह कुमारस्वामी सरकार
की ओट में अपनी विफलता को छिपा सकती है, पर यह सफलता तो नहीं है.
माना जा रहा था कि सिद्धारमैया ही अकेले ऐसे राजनेता हैं, जो नरेन्द्र
मोदी के सामने सीना तानकर खड़े हुए. फौरी तौर पर लगता है कि उनकी सोशल इंजीनियरी
अपेक्षित परिणाम लाने में मददगार नहीं हुई. खासतौर से लिंगायत से जुड़े फैसले का
लाभ पार्टी को नहीं मिला. लिंगायत प्रभाव वाली 62 सीटों में से 43 बीजेपी की झोली
में गईं. मुस्लिम वोटरों के प्रभाव वाली 23 में से 10 सीटें बीजेपी को मिलीं.
बेंगलुरु शहर की 26 में से 15 सीटों पर बीजेपी को सफलता मिली है.
अपनी रैलियों में मोदी ने कहा था कि इस चुनाव के बाद कांग्रेस ‘पीपीपी (पंजाब, पुदुच्चेरी और परिवार) पार्टी’ बनकर रह जाएगी. अब देखना है कि बना क्या. कुछ
दिन लगेंगे इसे समझने में. कर्नाटक से एक नए किस्म की राजनीति शुरू हो रही है,
जिसकी तार्किक परिणति के बारे में हम सोच नहीं पा रहे हैं.
inext में प्रकाशित
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन गुलशेर ख़ाँ शानी और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
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