Sunday, June 3, 2018

बंगाल में राजनीतिक हिंसा

हाल में जब कर्नाटक विधानसभा चुनाव का प्रचार चल रहा था, पश्चिम बंगाल में पंचायत चुनाव हो रहे थे। मीडिया पर कर्नाटक छाया था, बंगाल पर ध्यान नहीं था। अब खबरें आ रहीं हैं कि बंगाल में लोकतंत्र के नाम हिंसा का तांडव चल रहा था। पिछले हफ्ते पुरुलिया जिले में बीजेपी कार्यकर्ता की हत्या का मामला सामने आने पर इसकी वीभत्सता का एहसास हुआ है। 20 साल के त्रिलोचन महतो की लाश घर के पास ही नायलन की रस्सी ने लटकती मिली। महतो ने जो टी-शर्ट पहनी थी, उसपर एक पोस्टर चिपका मिला जिसपर लिखा था, बीजेपी के लिए काम करने वालों का यही अंजाम होगा। जाहिर है कि इस हत्या की प्रतिक्रिया भी होगी। वह बंगाल, जो भारत के आधुनिकीकरण का ध्वजवाहक था। जहाँ रवीन्द्रनाथ ठाकुर और शरत चन्द्र जैसे साहित्यकारों ने शब्द-साधना की। कला, संगीत, साहित्य, रंगमंच, विज्ञान, सिनेमा जीवन के तमाम विषयों पर देश का ऐसा कोई श्रेष्ठतम कर्म नहीं है, जो बंगाल में नहीं हुआ हो। क्या आपने ध्यान दिया कि उस बंगाल में क्या हो रहा है? 

पश्चिम बंगाल के 20 जिलों के 48,650 ग्राम पंचायत, 9217 पंचायत समिति और 825 जिला परिषद सीटों के लिए मई के पहले हफ्ते में चुनाव हुए। चुनाव के दौरान भारी खून-खराबा हुआ। 60,000 से ज्यादा सुरक्षाकर्मियों की तैनाती के बावजूद उत्तर 24 परगना, दक्षिण 24 परगना, पूर्वी मिदनापुर, बर्दवान, नदिया, मुर्शिदाबाद और दक्षिणी दिनाजपुर जिलों में हिंसक झड़पें हुई, इनमें कम से कम एक दर्जन लोगों के मरने की खबरें थीं। अलबत्ता पुलिस के आँकड़ों में यह गिनती पिछले पंचायत चुनाव में मरे 25 लोगों से कम है।


इस चुनाव की खासियत थी मतदान से पहले ही तृणमूल कांग्रेस के एक तिहाई प्रत्याशियों का निर्विरोध चुनाव। 58 हजार 692 सीटों में 20,076 पर टीएमसी ने बगैर चुनाव लड़े ही कब्जा कर लिया। पिछले 40 साल में पंचायत चुनाव में निर्विरोध चुने जाने का यह सबसे बड़ा रिकॉर्ड है। राज्य में पंचायत चुनाव में निर्विरोध सदस्यों का खेल 1978 से चला आ रहा है। तब से लेकर 2017 तक के निर्विरोध चुने गए उम्मीदवारों की संख्या 23,185 के आसपास थी। यानी कि 1978 से 2017 तक जितने उम्मीदवार निर्विरोध चुने गए, करीब उतने अकेले इस बार चुने गए। यह प्रवृत्ति इस बार चरम पर है।

बंगाल में साठ के दशक से वामपंथी राजनीति के उभार के बाद से ग्रामीण इलाकों में जबर्दस्त हिंसा का बोलबाला है। सन 1977 के बाद से 2011 तक 34 साल तक बंगाल पर वाममोर्चे का निर्बाध शासन रहा। इस दौरान गाँव-गाँव में सीपीएम की शाखाएं स्थापित हो गईं और राजनीति की जड़ें बहुत गहराई से प्रवेश कर गईं। वामपंथी विचार-दृष्टि के कारण औद्योगिक घराने राज्य छोड़कर भागने लगे। जो बंगाल भारत में औद्योगिक क्रांति का वाहक था, आज नए उद्योगों के लिए तरस रहा है।

बंगाल में ममता बनर्जी के नेतृत्व में तृणमूल कांग्रेस ने सन 2011 में वैकल्पिक राजनीति के रूप में प्रवेश किया था। तृणमूल का नारा था ‘परिवर्तन।’ बहरहाल राज्य में सत्ता परिवर्तन तो हुआ, पर सामाजिक जीवन में बड़ा परिवर्तन नजर नहीं आ रहा है। इन दिनों वहाँ तृणमूल की सत्ता को चुनौती देने के लिए भारतीय जनता पार्टी का प्रवेश हो रहा है, जिसके कारण टकराव बढ़ा है।

तृणमूल कांग्रेस की हिंसक गतिविधियों के निशाने पर केवल बीजेपी ही नहीं है। सीपीएम और कांग्रेस भी है। बीजेपी हालांकि राज्य में दूसरे नम्बर की पार्टी बनती जा रही है, पर ग्रामीण इलाकों में सीपीएम की पकड़ आज भी काफी है। इस हिंसा में सीपीएम के कार्यकर्ता भी मारे जा रहे हैं। माकपा महासचिव सीताराम येचुरी के अनुसार इस साल जिन लोगों ने नाम वापस नहीं लिए, उन पर हमले किए गए। उधर तृणमूल का कहना है कि जो कुछ हो रहा है, वह पिछले वाम शासन की तुलना में कम है।

बंगाल से आ रही तस्वीरें भयानक हिंसा की कहानी सुना रही हैं। यह सब लोकतंत्र के नाम पर हो रहा है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के अनुसार, वर्ष 2016 में बंगाल में राजनीतिक झड़पों की 91 घटनाएं हुईं, जिनमें 205 लोग हिंसा के शिकार हुए। इससे पहले 2015 में 131 घटनाएं दर्ज की गई थीं, जिनमें 184 लोग इसके शिकार हुए थे। सन 1997 में वाममोर्चा सरकार के गृहमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने विधानसभा मे जानकारी दी थी कि वर्ष 1977 से 1996 तक पश्चिम बंगाल में 28,000 लोग राजनीतिक हिंसा में मारे गए थे।

बंगाल की इस हिंसा पर शोध कर रहे सुजात भद्र के अनुसार , शोध करते हुए मैंने जाना कि भारत में सबसे ज्यादा राजनीतिक हिंसा की घटनाएं अगर कहीं हुई हैं, तो वह बंगाल है। इस हिंसा के पीछे तीन बड़ी वजहें मानी जा रही हैं- बेरोजगारी, कानून-व्यवस्था पर सत्ताधारी दल का वर्चस्व और नई राजनीतिक शक्तियों का प्रवेश। इसमें साम्प्रदायिकता का एक तत्व और जुड़ गया है। रोजगार के अवसर नहीं होने के कारण बेरोजगार युवक कमाई के लिए राजनीतिक पार्टियों से जुड़ रहे हैं ताकि पंचायत व नगरपालिका स्तर पर होने वाले विकास कार्यों के ठेके मिल सकें। हफ़्ता-वसूली भी उनकी कमाई का जरिया है। यानी राज्याश्रय में अपराधों की छूट।

तृणमूल कांग्रेस सरकार ने आंदोलनों को अपनी विचारधारा बनाया है। सरकार के निर्देश पर आठवीं कक्षा की इतिहास की पुस्तक में सिंगुर आंदोलन और ममता बनर्जी की भूमिका को शामिल किया गया है। हालांकि सिंगुर के अलावा तेलंगाना, तेभागा और नर्मदा बचाओ समेत कई मशहूर आंदोलनों को इस अध्याय में शामिल किया है। इसमें तेलंगाना आंदोलन को दो पेज में और बाकी तमाम आंदोलनों को जहां पांच-पांच लाइनों में निपटाया गया है। वहीं सिंगुर आंदोलन पर पूरे सात पेज हैं। सन 2006 के इस आंदोलन ने राज्य में तृणमूल के शासन की बुनियाद डाली थी।

बंगाल की इस हिंसा के पीछे कोई विचारधारा नहीं है। यहाँ की वामपंथी सरकारें तमाम सैद्धांतिक बातें करती रहीं, पर उन्होंने नौजवानों को रोजगार दिलाने के रास्ते नहीं खोजे। और जब उनकी सरकार ने इस दिशा में सोचना शुरू किया, ममता बनर्जी तकरीबन वैसी ही राजनीति लेकर सामने आईं, जैसी वामपंथी सरकारें चला रहीं थीं। इस राजनीति में इस्लामी कट्टरपंथी संगठनों को भी उन्होंने अपने साथ जोड़ लिया है। जिन किशोरों के माध्यम से यह हिंसा हो रही है, उन्हें उकसाने के लिए जिन बातों का सहारा लिया जा रहा है, वह और भी खतरनाक है। इस राजनीतिक हिंसा ने समाज को साम्प्रदायिक खानों में बाँट दिया है।

उधर सरकार पुलिस और प्रशासन में ऐसे लोगों को आगे बढ़ा रही है, जो उसकी जी-हुजूरी करें। जो अफसर नियमानुसार काम करना चाहते हैं, उन्हें फौरन हटा दिया जाता है। बंगाल की दहकती राजनीति का यह मॉडल भयावह है। इसके निहितार्थों पर हम सोच नहीं रहे हैं। कृपया इस तरफ ध्यान दें।

हिन्दू में प्रकाशित इन दो रिपोर्टों को भी पढ़ें 

2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (05-06-2018) को "हो जाता मजबूर" (चर्चा अंक-2992) (चर्चा अंक-2985) पर भी होगी।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. कम्युनिस्टों व ममता ने पश्चिम बंगाल की जो दुर्दशा की है उस से बदतर और कोई पार्टी नहीं कर सकती थी व है , आज कौन मानेगा कि यह बंगाल गुरदेव रविंद्र नाथ , बंकिम चंद्र, चंद्र, व सुभाष बोस वाला बंगाल है , जिसमैंट से बहुत बड़ी उम्मीद थी वह तो कम्युनिस्टों से भी दो कदम आगे निकली , राष्ट्र व समाज के विभाजन की जो दीक्षा उन्हें कांग्रेस में मिली थी उसका उन्होंने भरपूर प्रयोग बंगाल में किया , अब इस गुंडई राज से बंगाल कब मुक्त होगा कहना बहुत मुश्किल है , जब मुक्त होगा तब किसी भी राष्ट्र वादी पार्टी के लिए उसे वापिस सही मार्ग पर ला पाना बहुत दुःसाध्य होगा , कम से कम अभी तो बंगाल का साम्प्रदायिक व सामजिक माहौल सुधारना जटिल होगा , राष्ट्रवाद का अग्रिम प्रदेश आज मात्र एक कथा बन कर रह गया है

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