Friday, August 27, 2021

काबुल-धमाके खतरे का संकेत


गुरुवार देर शाम काबुल के अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट पर हुए दो धमाकों में कम से कम 73 लोगों की मौत हो गई है और 140 लोग घायल हुए हैं। बीबीसी को यह जानकारी अफ़ग़ानिस्तान के स्वास्थ्य अधिकारी ने दी है। पेंटागन के मुताबिक़ इस हमले में 13 अमेरिकी सैनिक मारे गए हैं। 2011 के बाद अमेरिकी सैनिकों पर यह सबसे ख़तरनाक हमला है। विस्फोटों की ज़िम्मेदारी इस्लामिक स्टेट समूह ने ली है। उन्होंने अपने टेलीग्राम चैनल के ज़रिए किया है कि एयरपोर्ट पर हुए हमले के पीछे इस्लामिक स्टेट खुरासान (आईएसके) का हाथ है।

प्राचीन खुरासान मध्य एशिया का एक ऐतिहासिक क्षेत्र था, जिसमें आधुनिक अफ़ग़ानिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, उज्बेकिस्तान, ताजिकिस्तान और पूर्वी ईरान के बहुत से भाग शामिल थे। आधुनिक ईरान में ख़ोरासान नाम का एक प्रांत है, जो इस ऐतिहासिक खुरासान इलाक़े का केवल एक भाग है। इस इलाके में सक्रिय इस आतंकी संगठन को इस्लामिक स्टेट खुरासान कहा जाता है।

अफगानिस्तान में चल रहे जबर्दस्त राजनीतिक बदलाव के बीच इस परिघटना के निहितार्थ समझने की जरूरत है। हाल में इस्लामिक स्टेट ने तालिबान को अमेरिका का पिट्ठू बताया था। इस्लामिक स्टेट का कहना है कि अफगानिस्तान में तालिबान शरिया लागू नहीं कर पाएंगे। इसके पहले यह आरोप भी लगाया जाता रहा है कि इस्लामिक स्टेट को अमेरिका ने खड़ा किया है। बहरहाल अब कम से कम दो बातों पर विचार करने की जरूरत होगी। पहले, यह कि अफगानिस्तान से विदेशियों की निकासी पर इस घटना का क्या असर होगा। और दूसरे यह कि क्या तालिबान इस इलाके में स्थिरता कायम करने में सफल होंगे? और क्या वे इस क्षेत्र को आतंकी संगठनों का अभयारण्य बनने से रोक पाएंगे?

रॉयटर्स के अनुसार अमेरिका को अंदेशा है कि इस किस्म के हमले और हो सकते हैं। अमेरिकी सेना यहाँ से 31 अगस्त तक पूरी हट जाने की घोषणा कर चुकी है। दूसरी तरफ तालिबानी व्यवस्था अभी पूरी तरह लागू हो नहीं पाई है। बाजारों में सामान की कमी हो गई है। बैंक-व्यवस्था शुरू हुई है, पर अराजकता है। हजारों-लाखों लोग बेरोजगार हो चुके हैं। ऐसे में इस इलाके में एक और मानवीय त्रासदी खड़ी होने का खतरा है।

 

 

 

 

Thursday, August 26, 2021

तालिबान क्या टिकाऊ साबित होंगे?


तालिबान ने काबुल में प्रवेश जरूर कर लिया है, पर उनकी सरकार पूरी तरह बनी नहीं है। विदेशी सेना और नागरिकों की निकासी अधूरी है। दुनिया ने अभी तय नहीं किया है कि तालिबान-शासन को मान्यता दी जाए या नहीं। भारत से जुड़े मसले भी हैं, जिनपर अभी बात करने का मौका नहीं है, क्योंकि नई सरकार और उसकी नीतियाँ स्पष्ट नहीं हैं। फिलहाल तालिबानी-क्रांति के दूरगामी निहितार्थ को देखने की जरूरत है। 

वैश्विक-प्रतिक्रिया की वजह से तालिबान अपना चेहरा सौम्य बनाने की कोशिश कर रहे हैं। वे कितने सौम्य साबित होंगे, यह अब देखना है। इसके बाद क्या?  वे जो व्यवस्था बनाएंगे, उसमें नया क्या होगा? यह क्रांति तब हुई है, जब सऊदी अरब और खाड़ी के देश आधुनिकता की ओर बढ़ रहे है। क्या तालिबान पहिए को उल्टी दिशा में घुमाएंगे? लड़कियों की पढ़ाई और कामकाज में उनकी भागीदारी का क्या होगा? वैज्ञानिक शिक्षा, मनोरंजन और खेलकूद पर उनकी नीति क्या होगी?

पिछले बीस साल में अफगानिस्तान की करीब बीस फीसदी आबादी नई व्यवस्था की आदी हो गई है। नौजवान नई व्यवस्था में बड़े हुए हैं। तालिबान का क्या आधुनिक-व्यवस्था से मेल सम्भव है? क्या उनकी व्यवस्था टिकाऊ होगी? क्या वे दुनिया को कोई नया सामाजिक-आर्थिक मॉडल देने में सफल होंगे?  दूसरी तरफ सवाल यह भी है कि पाकिस्तान, बांग्लादेश, तुर्की, कजाकिस्तान, ताजिकिस्तान, उज्बेकिस्तान, मलेशिया और इंडोनेशिया जैसे देशों में भी क्या तालिबानी प्रवृत्तियाँ नहीं उभरेंगी?

Tuesday, August 24, 2021

उद्धव ठाकरे को राजनीतिक नुकसान पहुँचाएगी नारायण राणे की गिरफ्तारी


महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे से जुड़े बयान देने के कारण  केंद्रीय मंत्री नारायण राणे की गिरफ्तारी से महाराष्ट्र की ठंडी पड़ती राजनीति में फिर से गर्मा आ गई है। मुम्बई में एक तरफ शिवसेना के कार्यकर्ताओं का आंदोलन शुरू हो गया है, दूसरी तरफ राणे समर्थकों ने मुंबई-गोवा के पुराने हाईवे को जाम कर दिया है। पर इसका नुकसान शिवसेना को ही होगा। नारायण राणे खाँटी मराठा नेता है और उनका जनाधार मजबूत है। इस
 गिरफ्तारी से उनका राजनीतिक आधार न केवल मजबूत होगा, बल्कि शिवसेना की छवि पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।

राणे शिवसेना के भीतर से निकले नेता हैं और वे उद्धव ठाकरे के परम्परागत विरोधी हैं। बीजेपी उन्हें ठाकरे के मुकाबले खड़ा करने में कामयाब होती नजर आ रही है। इतना ही नहीं उनकी सहायता से वह शिवसेना के आंतरिक असंतोष को भी उघाड़ने का प्रयास करेगी। महाराष्ट्र सरकार में शामिल कांग्रेस और एनसीपी बाहरी तौर पर कुछ भी कहें, पर ठाकरे के व्यवहार से वे भी बहुत खुश नहीं हैं।

राजनीतिक निहितार्थ

ठाकरे का भाषण और राणे की प्रतिक्रिया भारतीय राजनीति के लिहाज से सामान्य परिघटना है, पर लगता है कि तिल का ताड़ बन गया है। राणे के खिलाफ तीन एफआईआर दर्ज हुई हैं। महाराष्ट्र सरकार ने गिरफ्तारी का फैसला करके अपना ही नुकसान किया है। सच यह है कि गिरफ्तारियाँ राजनेताओं को नुकसान नहीं लाभ पहुँचाती रही हैं।

नारायण राणे केंद्रीय कैबिनेट मंत्री हैं और उनके गिरफ्तारी आम गिरफ्तारी नहीं है, इसके गहरे राजनीतिक निहितार्थ हैं। पहले देखें कि राणे ने कहा क्या था। हाल में मोदी सरकार में शामिल अन्य मंत्रियों की तरह नारायण राणे महाराष्ट्र के अलग-अलग हिस्सों में जन-आशीर्वाद यात्रा निकाल रहे हैं। भारतीय जनता पार्टी इस तरीके से जनता के बीच अपनी जगह बना रही है। खासतौर से उत्तर प्रदेश में इसका ज्यादा महत्व है, क्योंकि वहाँ विधानसभा चुनाव काफी करीब हैं।

Monday, August 23, 2021

अहमद मसूद क्या कर पाएंगे पंजशीर घाटी में तालिबान का मुकाबला?

 

अहमद शाह मसूद का बेटा अहमद मसूद
तालिबानी व्यवस्था अच्छी तरह पैर जमाने की कोशिश कर रही है, वहीं कुछ जगहों से प्रतिरोध की खबरें हैं। खासतौर से पंजशीर घाटी को लेकर अभी स्थिति स्पष्ट नहीं है। तालिबान की तरफ से पहले कहा गया था कि अहमद वली मसूद ने हमसे हाथ मिला लिया है और वे प्रतिरोध नहीं करेंगे, पर आज सुबह खबर थी कि तालिबान ने काफी बड़ा दस्ता पंजशीर घाटी की ओर रवाना किया है।

आज दिन में खबर थी कि तालिबान ने नॉर्दर्न अलायंस के लोगों के हाथों से उन तीन जिलों को छुड़ा लिया है, जिनपर उन्होंने हफ्ते कब्जा कर लिया था। ये जिले हैं बागलान प्रांत के बानो, देह सालेह और पुल-ए-हेसार। तालिबान के प्रवक्ता ज़बीउल्ला मुज़ाहिद ने ट्वीट किया कि हमारे सैनिक पंजशीर घाटी के पास बदख्शां, ताखर और अंदराब में जमा हो रहे हैं। दूसरी तरफ़ विरोधी ताक़तों ने तीन सौ तालिबानी लड़ाकों को मार गिराने का दावा किया है। तालिबान ने इस दावे को ग़लत बताया है।

समाचार एजेंसी एएफपी ने तालिबान की ओर से किए गए दावा के जानकारी देते हुए बताया है कि तालिबान के लड़ाके पंजशीर में आगे बढ़ रहे हैं। बीबीसी उर्दू सेवा ने तालिबान सूत्रों के हवाले से बताया है कि तालिबानी कमांडर कारी फ़सीहुद्दीन इन दस्तों का नेतृत्व कर रहे हैं।

उधर पंजशीर घाटी में अहमद मसूद के सैनिकों ने मोर्चेबंदी कर ली है। इसके एक दिन पहले तालिबान की अलमाराह सूचना सेवा ने दावा किया था कि सैनिकों तालिबानी सैनिक पंजशीर की ओर गए हैं। ज़बीउल्ला मुज़ाहिद ने दावा किया कि दक्षिणी अफगानिस्तान से उत्तर की ओर जाने वाले मुख्य हाईवे पर सलांग दर्रा खुला हुआ है और दुश्मन की सेना पंजशीर घाटी में घिरी हुई है। बहरहाल इस इलाके से किसी लड़ाई की खबर नहीं है।

Sunday, August 22, 2021

अफगानिस्तान में ‘प्रतिक्रांति’


हालांकि अफगानिस्तान में तालिबानी व्यवस्था पैर जमा चुकी है, वहीं देश के कई शहरों से प्रतिरोध की खबरें हैं। उधर अंतरिम व्यवस्था के लिए दोहा में बातचीत चल रही है, जिसमें तालिबान और पुरानी व्यवस्था से जुड़े नेता शामिल हैं। विश्व-व्यवस्था ने तालिबान-प्रशासन को मान्यता नहीं दी है। भारत ने कहा है कि जब लोकतांत्रिक-ब्लॉक कोई फैसला करेगा, तब हम भी निर्णय करेंगे। लोकतांत्रिक-ब्लॉक का अर्थ है अमेरिका, यूरोप, ऑस्ट्रेलिया और जापान। डर है कि कहीं अफगानिस्तान से नए शीतयुद्ध की शुरुआत न हो।  

तालिबान अपने चेहरे को सौम्य बनाने का प्रयास कर रहे हैं, पर उनका यकीन नहीं किया जा सकता। वे वैश्विक-मान्यता चाहते हैं, पर दुनिया को मानवाधिकार की चिंता है। अफ़ग़ानिस्तान में पहले के मुक़ाबले ज़्यादा लड़कियाँ पढ़ने जा रही है,  नौकरी कर रही हैं। वे डॉक्टर, इंजीनियर और वैज्ञानिक हैं। क्या तालिबान इन्हें बुर्का पहना कर दोबारा घर में बैठाएंगे? इस सवाल का जवाब कोई नहीं जानता। ऐसा लग रहा है कि बीस साल से ज्यादा समय तक लड़ाई लड़ने के बाद अमेरिका ने उसी तालिबान को सत्ता सौंप दी, जिसके विरुद्ध उसने लड़ाई लड़ी थी। देश के आधुनिकीकरण की जो प्रक्रिया शुरू हुई थी, वह एक झटके में खत्म हो गई है। खासतौर से स्त्रियाँ, अल्पसंख्यक, मानवाधिकार कार्यकर्ता और नई दृष्टि से देखने वाले नौजवान असमंजस में हैं।

सेना क्यों हारी?

पिछले बीस साल में अफगान सेना ने एयर-पावर, इंटेलिजेंस, लॉजिस्टिक्स, प्लानिंग और दूसरे महत्वपूर्ण मामलों में अमेरिकी समर्थन के सहारे काम करना सीखा था। अब उसी सेना की वापसी से वह बुरी तरह हतोत्साहित थी। राष्ट्रपति अशरफ ग़नी को उम्मीद थी कि बाइडेन कुछ भरोसा पैदा करेंगे, पर ऐसा नहीं हुआ। अमेरिकी सेना के साथ सहयोगी देशों के आठ हजार सैनिक और अठारह हजार ठेके के कर्मी भी चले गए, जिनसे अफगान सेना हवाई कार्रवाई और लॉजिस्टिक्स में मदद लेती थी। हाल के महीनों में अफगान सेना देश के दूर-दराज चौकियों तक खाद्य सामग्री और जरूरी चीजें भी नहीं पहुँचा पा रही थी। चूंकि कहानी साफ दिखाई पड़ रही थी, इसलिए उन्होंने निरुद्देश्य जान देने के बजाय हथियार डालने में ही भलाई समझी। मनोबल गिराने के बाद किसी सेना से लड़ाई की उम्मीद नहीं करनी चाहिए।

बाइडेन ने अफगान सेना की जो संख्या बताई, वह भी वह भी सही नहीं थी। वॉशिंगटन पोस्ट के अफगान पेपर्स प्रोजेक्ट में सेना और पुलिसकर्मियों की संख्या 3,52,000 दर्ज है, जबकि अफगान सरकार ने 2,54,000 की पुष्टि की। कमांडरों ने फर्जी सैनिकों की भरती कर ली और उन सैनिकों के हिस्से का वेतन मिल-बाँटकर खा लिया। इस भ्रष्टाचार को रोकने में अमेरिका ने दिलचस्पी नहीं दिखाई।