देश
में गठबंधन राजनीति के बीज 1967 से पहले ही पड़ चुके थे, पर केन्द्र में उसका पहला
तजुरबा 1977 में हुआ। फिर 1989 से लेकर अबतक इस दिशा में लगातार प्रयोग हो रहे हैं
और लगता है कि 2019 का चुनाव गठबंधन राजनीति के प्रयोगों के लिए भी याद रखा जाएगा।
सबसे ज्यादा रोचक होंगे, चुनाव-पूर्व और चुनाव-पश्चात इसमें आने वाले बदलाव। तीसरे
मोर्चे या थर्ड फ्रंट का जिक्र पिछले चार दशक से बार-बार हो रहा है, पर ऐसा कभी
नहीं हुआ कि यह पूरी तरह बन गया हो और ऐसा भी कभी नहीं हुआ कि इसे बनाने की
प्रक्रिया में रुकावट आई हो। फर्क केवल एक आया है। पहले इसमें एक भागीदार जनसंघ
(और बाद में भाजपा) हुआ करता था। अब उसकी जगह कांग्रेस ने ले ली है। यानी तब
मोर्चा कांग्रेस के खिलाफ होता था, अब बीजेपी के खिलाफ है। फिलहाल सवाल यह है कि
गठबंधन होगा या नहीं? और हुआ तो एक होगा या दो?
पिछले
तीन दशक से इस फ्रंट के बीच से एक नारा और सुनाई पड़ता है। वह है ‘गैर-भाजपा, गैर-कांग्रेस’ गठबंधन
का। इस वक्त ‘गैर-भाजपा महागठबंधन’ और ‘गैर-भाजपा, गैर-कांग्रेस संघीय मोर्चे’ दोनों की बातें सुनाई पड़ रहीं हैं। अभी बना कुछ भी नहीं है और हो
सकता है राष्ट्रीय स्तर पर एनडीए और यूपीए के अलावा कोई तीसरा गठबंधन राष्ट्रीय
स्तर पर बने ही नहीं। अलबत्ता क्षेत्रीय स्तर पर अनेक गठबंधनों की सम्भावनाएं इस
वक्त तलाशी जा रहीं हैं। साथ ही एनडीए और यूपीए के घटक दलों की गतिविधियाँ भी बढ़
रहीं हैं। सीट वितरण का जोड़-घटाना लगने लगा है और उसके कारण पैदा हो रही
विसंगतियाँ सामने आने लगी हैं। कुछ दलों को लगता है कि हमारी हैसियत अब बेहतर हुई
है, इसलिए यही मौका है दबाव बना लो, जैसाकि हाल में लोजपा ने किया।
आना-जाना शुरू
एनडीए
के नजरिए से इस साल तेदेपा ने उसका साथ छोड़ा है। हाल में बिहार में उपेंद्र
कुशवाहा की पार्टी आरएलएसपी को अलग होना पड़ा। दूसरी तरफ बिहार में जेडीयू की
एनडीए में वापसी हुई है, जिसके कारण गणित बदला है। उत्तर प्रदेश में अपना दल के
नेतृत्व ने भी हल्की सी जुम्बिश ली और फिर चुप्पी साध ली। महाराष्ट्र में शिवसेना
के साथ उसके गठबंधन को लेकर कयास चल ही रहे हैं। पर क्या शिवसेना से अलग होकर अपने
लिए पर्याप्त सीटें बटोर पाएगी? शिवसेना को ममता बनर्जी का समर्थन भी मिल
रहा है, पर क्या शिवसेना ममता के साथ खुलेआम जा पाएगी? ममता की छवि को देखते
हुए क्या शिवसेना का वोटर इस गठबंधन को स्वीकार करेगा? विचारधारा, रणनीति,
व्यक्तिगत हित और संगठनात्मक हितों से जुड़े तमाम सवाल अनुत्तरित हैं।
ऐसे
ही कयास उत्तर प्रदेश में कांग्रेस पार्टी के गठबंधन को लेकर हैं। वहाँ सपा-बसपा
गठबंधन तो घोषित हो गया है, पर कांग्रेस के बारे में स्थिति स्पष्ट नहीं है।
वस्तुतः इस वक्त जो कुछ भी चल रहा है, उसका सिद्धांत और विचारधारा से कोई जितना
रिश्ता है उससे ज्यादा यह शुद्ध हितों का मामला है। असली सवाल है कि सीटें जीतने
में कौन मददगार होगा? और सीटें जीतने तक की बात नहीं है, चुनाव के
बाद सरकार बनाने की सम्भावनाएं क्या बनेंगी? पार्टियों के रणनीतिकार इन बारीक बातों पर विचार में
मसरूफ हैं।
बिहार से शुरूआत
महागठबंधन
की चालू अवधारणा सन 2014 की बीजेपी की महा-विजय के बाद 2015 के बिहार विधानसभा
चुनावों में विकसित हुई। वहाँ से यह विचार सन 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव
में ले जाने की कोशिश हुई, पर केवल सपा और कांग्रेस का गठबंधन ही हो पाया, वह भी
बुरी तरह विफल रहा। पिछले साल के अंत में गुजरात विधानसभा के चुनाव में कांग्रेस
पार्टी को गठबंधन की जरूरत महसूस नहीं हुई।
इस
साल अप्रैल-मई में कर्नाटक विधानसभा के चुनाव में भी कांग्रेस ने अकेले ही लड़ना
पसंद किया और जेडीएस को मुँह नहीं लगाया। पर चुनाव परिणाम आते ही पार्टी ने झपटकर
मुख्यमंत्री के रूप में एचडी कुमारस्वामी को स्वीकार करते हुए जेडीएस के साथ
दोस्ती कर ली। चुनाव परिणाम आने के दिन बारह बजे तक गठबंधन नहीं था। फिर अचानक
गठबंधन बन गया।
कर्नाटक
विधान सौध के मंच पर विरोधी दलों के नेताओं ने हाथ उठाकर वही फोटो फिर से खिंचाई,
जो इसके पहले कई बार खिंचाई जा चुकी है। कर्नाटक की उस एकता से एकबारगी ऐसा लगा कि
अब राष्ट्रीय स्तर पर एक महागठबंधन बन ही जाएगा, जिसमें कांग्रेस की बड़ी भूमिका
होगी। पर उसी शपथ-ग्रहण समारोह में उस एकता के अंतर्विरोध भी नजर आए। ओडिशा के
मुख्यमंत्री नवीन पटनायक एचडी देवेगौडा के व्यक्तिगत निमंत्रण पर भी उस शपथ-समारोह
में नहीं आए।
फेडरल फ्रंट की घोषणा
उन्हीं
दिनों तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव ने फेडरल फ्रंट की घोषणा भी की
थी, जिसे ममता बनर्जी का समर्थन मिला था। बहरहाल चंद्रशेखर राव भी कर्नाटक के शपथ
ग्रहण समारोह में सिर्फ इसलिए नहीं आए कि उन्हें कांग्रेसी नेताओं के साथ खड़ा
होना पड़ेगा। तेलंगाना में कांग्रेस उनका प्रतिस्पर्धी दल है। इन सभी दलों का एक
गठबंधन नहीं बन सकता। मसलन येचुरी और ममता बनर्जी की पार्टियाँ एक साथ नहीं आएंगी।
द्रमुक और अन्नाद्रमुक एक गठबंधन में नहीं रहेंगे।
चंद्रशेखर
राव ने अपने कार्ड सावधानी के साथ खेले और अपने राज्य में समय से पहले विधानसभा
चुनाव करा लिए और भारी जीत भी हासिल कर ली। अब असली चुनौती आंध्र में तेलुगु देशम
के सामने है। तेदेपा ने तेलंगाना में कांग्रेस के साथ गठबंधन किया था। आंध्र में
भी होगा। देखना है कि आंध्र में बीजेपी का गठबंधन किसके साथ होगा। कहा जा रहा है
कि इस वक्त वहाँ वाईएसआर कांग्रेस का जोर है। यदि वहाँ तेदेपा की हार हुई, तो इस
गणित में नुकसान उठाने वाली पार्टी साबित होगी। उसे तेलंगाना में पहले ही कुछ नहीं
मिला।
सपा-बसपा किसके साथ?
भारत
में चुनाव मूलतः सोशल इंजीनियरी है। कर्नाटक में विरोधी दलों की एकता को सफलता
मिलने के बाद उत्तर प्रदेश के गोरखपुर, फूलपुर और कैराना के चुनावों में सपा-बसपा
एकता का असर दिखाई पड़ा। सन 1993 के बाद पहली बार इन दोनों दलों ने अपनी एकता को
पहचाना है। अब सवाल यही है कि कांग्रेस को लेकर इनकी राय क्या है। कांग्रेस ने हाल
में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में इन दलों के साथ गठबंधन नहीं किया था।
उन तीनों जगहों पर कांग्रेस ज्यादा प्रभावशाली दल था, पर यूपी में ये दोनों ज्यादा
प्रभावशाली हैं। इस बीच के चंद्रशेखर राव ने ‘गैर-भाजपा,
गैर-कांग्रेस’ गठबंधन का विकल्प पेश करके एक सम्भावना को
जन्म और दिया है।
लोकसभा
चुनाव के लिहाज से यूपी में सबसे बड़ा मुकाबला है। केसीआर ने नवीन पटनायक और ममता
बनर्जी से मुलाकात के बाद दिल्ली में अखिलेश यादव और मायावती से मुलाकात की योजना
बनाई थी, पर लगता है कि अभी अखिलेश-मायावती इस विचार का अध्ययन ही कर रहे हैं। केसीआर
के साथ उनकी मुलाकात हो नहीं पाई, पर सम्भावना है कि जनवरी के पहले हफ्ते में इनकी
मुलाकात हो। हालांकि उत्तर प्रदेश में इस फेडरल गठबंधन के किसी घटक का असर नहीं
है। पर यदि सपा-बसपा उसके घटक बने तो यह फ्रंट प्रभावशाली बनेगा। यदि परिणाम इनकी
आशा के अनुकूल आए तो 2019 के चुनाव में एनडीए के बाद यह दूसरा सबसे बड़ा मोर्चा
होगा। यूपीए से बड़ा। सवाल यूपी का ही है। कांग्रेस यदि इस फ्रंट में नहीं होगी,
तब भी क्या सपा-बसपा इसमें शामिल होंगे?
महागठबंधन
बना तो क्या होगा?
पिछले कुछ समय से
टीवी चैनलों पर इस बात के कयास लगाए जा रहे हैं कि 2019 के परिणाम कैसे हो सकते
हैं। इन कयासों की बुनियाद दो आधारों पर होती है। भाजपा के खिलाफ गठबंधन बने, तब
और न बने तब। इन कयासों का आधार 2014 और बाद के चुनाव हैं। इन सर्वेक्षणों का कोई
वैज्ञानिक आधार नहीं होता। निष्कर्षों का सरलीकरण होता है।
सन
2014 के चुनाव में 6 राष्ट्रीय, 45 प्रादेशिक और 419 पंजीकृत गैर-मान्यता
प्राप्त पार्टियाँ उतरी थीं। तब बीजेपी को 31.3 फीसदी और कांग्रेस को 19.5 फीसदी
वोट मिले थे। इनके अलावा बीएसपी (4.2), तृणमूल (3.8), अद्रमुक (3.3), सपा
(3.2), सीपीएम (3.2), तेदेपा (2.5), शिवसेना (1.9), द्रमुक
(1.8) और बीजद (1.7) इन नौ दलों को 25.6 फीसदी वोट मिले थे। इनमें सभी दल इस
गठबंधन में शामिल नहीं होंगे। शेष 23.6 फीसदी वोट अन्य दलों और निर्दलीयों को मिले
थे। देश का गणित इतना सरल नहीं है, जितना समझा या समझाया जा रहा है।
2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को उत्तर प्रदेश में कुल 42.30 प्रश वोट
मिले थे, जिनके सहारे उसे 73 सीटें मिलीं। कांग्रेस, सपा और बसपा को मिले वोटों को
जोड़ा जाए तो 49.3 फीसदी होते हैं। 2017 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी के वोट 39.7
फीसदी रह गए, जबकि सपा, बसपा और कांग्रेस के सकल वोट 50.2 फीसदी हो गए। इस स्थिति
में बेशक बीजेपी की सीटें कम होंगी, पर कितनी कम होंगी इसकी गणना आसान नहीं है।
वस्तुतः जो वोट कांग्रेस को मिले, उनमें कुछ वोट सपा और बसपा के विरोधी वोट भी थे।
इसी तरह बसपा को मिले वोटों में कांग्रेस विरोधी वोट भी थे। तीनों पार्टियों के
एकसाथ आने पर कुछ वोट छिटकेंगे भी। फिर भी माना जा रहा है कि बीजेपी को 40 या उससे
भी ज्यादा सीटों का नुकसान होगा। कुछ ऐसा ही गणित दूसरे राज्यों में भी है।
वस्तुतः इस सोशल इंजीनियरी में काफी छोटे कारक भी महत्वपूर्ण होंगे। मसलन
अलग-अलग चुनाव क्षेत्रों में कुछ छोटे जातीय समूह होते हैं, जो हार-जीत में अंतर
पैदा करते हैं। गठबंधन राजनीति में ऐसे समूहों का महत्व भी होता है। बीजेपी के खिलाफ पार्टियों के एकसाथ आने पर
उनके कुछ समर्थक साथ भी छोड़ेंगे। पार्टियों की आपसी प्रतिद्वंद्विता भी है। सपा
और बसपा के वोटर ऐसे भी हैं, जिनकी एक-दूसरे से नाराजगी है। कर्नाटक में
कांग्रेस के बहुत से वोटरों को जेडीएस पसंद नहीं है और जेडीएस के बहुत से वोटर
कांग्रेस को नापसंद करते हैं। ऐसा कोई सीधा गणित नहीं है कि पार्टियों की दोस्ती
हुई, तो वोटरों की भी हो जाएगी।
एनडीए
कुल पार्टियाँ
|
मुख्य दल
|
44
|
भाजपा, जेडीयू, लोजपा, अकाली, शिवसेना, अपना दल, पीएमके, नगा
पीपुल्स फ्रंट, सिक्किम डेमोक्रेटिक फ्रंट के अलावा बड़ी संख्या में पूर्वोत्तर
के दल।
|
यूपीए
और महागठबंधन
कुल पार्टियाँ
|
मुख्य दल
|
21
|
कांग्रेस, राकांपा, तेदेपा, द्रमुक, रालोद, राजद, रालोसपा, झामुमो,
|
20 से ऊपर पार्टियाँ महागठबंधन की बातचीत में शामिल।
|
फेडरल
फ्रंट
कुल पार्टियाँ
|
मुख्य दल
|
3 या 4
|
टीआरएस के साथ असदुद्दीन
ओवेसी की पार्टी एआईएमआईएम, बीजद और तृणमूल की सम्भावना। सपा और बसपा से
सम्पर्क। शिवसेना को भी अपने साथ लाने की कोशिश।
|
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (30-12-2018) को "नये साल की दस्तक" (चर्चा अंक-3201) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'