Wednesday, June 14, 2023

राष्ट्रीय-प्रतिष्ठा से जुड़ी है ‘कोहिनूर’ और पुरावस्तुओं की वापसी


हाल में भारतीय संसद की एक स्थायी समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि ‘कोहिनूर’ हीरे को वापस लाने की भारत की माँग जायज़ है. हालांकि हाल के वर्षों में संस्कृति मंत्रालय और विदेश मंत्रालय की कोशिशों से भारत की पुरानी कलाकृतियाँ और पुरातात्विक वस्तुएं देश में आई हैं, फिर भी ‘कोहिनूर’ हीरे को देश में वापस लाना आसान नहीं है.

‘कोहिनूर’ को लौटाने की माँग सिर्फ भारत ही नहीं करता, बल्कि पाकिस्तान, ईरान और अफगानिस्तान की भी इसपर दावेदारी है. भारत ने पहली बार ब्रिटेन से 1947 में आजादी मिलने के बाद ही इसे सौंपने की मांग की थी. दूसरी बार 1953 में मांग की गई.

2000 में भारत की तरफ से फिर माँग की गई. कुछ सांसदों ने ब्रिटिश सरकार को चिट्ठी लिखी. ब्रिटिश सरकार ने तब कहा कि ‘कोहिनूर’ के कई दावेदार हैं. 2016 में भारत के संस्कृति मंत्रालय ने कहा कि वह ‘कोहिनूर’ को भारत लाने के लिए हर संभव प्रयास करेगा.

जुलाई 2010 में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरन भारत दौरे पर आए तो ‘कोहिनूर’ लौटाने की बात उनके सामने भी उठी. कैमरन ने तब कहा कि ऐसी मांगों पर हाँ कर दें, तो ब्रिटिश म्यूजियम खाली हो जाएंगे. फरवरी 2013 में भारत दौरे पर कैमरन ने फिर कहा कि ब्रिटेन ‘कोहिनूर’ नहीं लौटा सकता.

क्वीन कैमिला ने नहीं पहना

पिछले साल ब्रिटेन की महारानी एलिज़ाबेथ द्वितीय के निधन के बाद और हाल में उनके पुत्र किंग चार्ल्स तृतीय के राज्याभिषेक के दौरान कई बार ‘कोहिनूर’  का जिक्र हुआ. यह चर्चा इसलिए भी हुई, क्योंकि ‘कोहिनूर’ हीरा महारानी एलिज़ाबेथ के मुकुट में था, पर रानी कैमिला के मुकुट में नहीं है. उसकी जगह महारानी मैरी के मुकुट को सजा-सँवार उन्हें पहनाया गया.

अब राजपरिवार को लगता है कि ‘कोहिनूर’ पहनने से भारत के साथ राजनयिक संबंधों पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा. मीडिया रिपोर्टों के अनुसार राजपरिवार अब यह मानने लगा है कि ‘कोहिनूर’ हीरा जबरन हासिल किया गया था.

‘कोहिनूर’ दुनिया का सबसे मशहूर हीरा है. यह आंध्र प्रदेश के गोलकुंडा की खान से निकला था. मूल रूप में यह 793 कैरेट का था. अब यह 105.6 कैरेट का रह गया है जिसका वजन 21.6 ग्राम है.

संसदीय समिति

इस दौरान भारतीय संसद की एक स्थायी समिति की रिपोर्ट के बाद यह मसला फिर से चर्चा का विषय बना. परिवहन, पर्यटन और संस्कृति जैसे विषयों से संबद्ध इस स्थायी समिति ने विरासत की चोरी शीर्षक से अपनी इस रिपोर्ट को गत 15 मई को पास किया है.

समिति ने इस विषय पर संस्कृति मंत्रालय के अधिकारियों के साथ भी विमर्श किया था. उन्होंने जानकारी दी कि ‘कोहिनूर’ का मसला जटिल है, क्योंकि उसे 1849 की संधि के अंतर्गत महाराज दिलीप सिंह ने अंग्रेजी राज को अर्पित किया था. इस हीरे को वापस माँगने का कोई कानूनी आधार नहीं है.

देश के पुरावशेष एवं बहुमूल्य कलाकृति अधिनियम 1972 के अंतर्गत भारत का पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग केवल उन्हीं पुरावस्तुओं की भारत में वापसी के प्रयास करता है, जिन्हें गैर-कानूनी तरीके से देश के बाहर ले जाया गया है.

अदालत में

अप्रेल 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने ‘‘कोहिनूर’ वापस लाने के लिए सुधारात्मक याचिका खारिज कर दी थी. मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाले पाँच सदस्यीय पीठ ने अपने उस आदेश में दखल देने से इनकार कर दिया, जिसमें कहा गया था कि हीरा भारत लाने या विदेशी सरकार को उसकी नीलामी रोकने का आदेश अदालत नहीं दे सकती.

केंद्र सरकार ने अदालत को यह भी बताया था कि ब्रिटिश शासक ‘कोहिनूर’ जबरन या चुराकर नहीं ले गए, बल्कि पंजाब के शासकों ने उन्हें दिया था. संस्कृति मंत्रालय का यह दृष्टिकोण 2016 में सुप्रीम कोर्ट में पेश किए गए हलफनामे के बाद से स्पष्ट हुआ. मंत्रालय ने अदालत में कहा था कि इस हीरे की वापसी की माँग नहीं कर सकते हैं, क्योंकि वह उपहार में दिया गया था.

मंत्रालय के उस हलफनामे पर देश में आपत्ति व्यक्त की गई, तब मंत्रालय ने एक अस्पष्ट सा बयान जारी किया कि ‘कोहिनूर’  हीरे के संदर्भ में भी भारत सरकार को आशा है कि कोई ऐसा समाधान निकल आएगा, जिसमें भारत को अपनी वे कलाकृतियाँ वापस मिल जाएंगी, जिनकी गहरी जड़ें भारत में हैं. यानी कि यूके सरकार के साथ डिप्लोमैटिक-संवाद बढ़ाया जाए.

वैधानिक आधार है

समिति ने विधि सचिव नितेन चंद्रा से भी बात की. उन्होंने कहा कि 1970 की युनेस्को संधि के अनुच्छेद 7 और 15 को मिलाकर पढ़ें, तो पाएंगे कि सांस्कृतिक-संपदा की वापसी के लिए देशों के बीच विशेष-समझौते संभव हैं.

मई के महीने में ब्रिटिश अखबार द टेलीग्राफ में एक खबर छपी कि भारत ‘कोहिनूर’ हीरे और अन्य प्रतिमाओं के साथ औपनिवेशिक युग की कलाकृतियों को वापस लाने के लिए अभियान छेड़ने वाला है. ‘कोहिनूर’ की वापसी नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार की प्राथमिकताओं में से एक है.

लाखों वस्तुएं!

एक मोटा अनुमान है कि भारत की लाखों वस्तुएँ अलग-अलग देशों में मौजूद हैं. इनमें बड़ी संख्या में छोटी-मोटी चीजें हैं, पर ऐसी वस्तुओं की संख्या भी हजारों में है, जो सैकड़ों-हजारों साल पुरानी हैं. इन्हें आक्रमणकारियों ने लूटा या चोरी करके या तस्करी के सहारे बाहर ले जाया गया.

हाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि पिछले नौ वर्षों में 240 प्राचीन कलाकृतियां बरामद की गई हैं और भारत वापस लाई गई हैं. सितंबर, 2021 में प्रधानमंत्री मोदी अमेरिका के दौरे के बाद स्वदेश लौटते समय अपने साथ 157 प्राचीन कलाकृतियाँ और पुरा-वस्तुएँ लेकर आए.

पुरावस्तुओं का लेखा-जोखा देश में पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) रखता है. उसके अनुसार स्वतंत्रता के बाद भी संरक्षित 3,696 स्मारकों, भवनों, मंदिरों आदि से 486 पुरावस्तुएं चोरी गई हैं. 1976 के बाद से 305 वस्तुओं की वापसी हुई है. इनमें से 292 की वापसी 2014 के बाद हुई है.

करीब चार साल पहले अमेरिका के आंतरिक सुरक्षा विभाग की जाँच शाखा ने न्यूयॉर्क की एक अदालत को जानकारी दी थी कि उसने एशिया से लाई गई 2,622 वस्तुएं केवल सुभाष कपूर नाम के एक व्यक्ति के पास से बरामद की हैं. इन वस्तुओं की कीमत 14.3 करोड़ डॉलर (1,165 करोड़ रुपये) आँकी गई थी. पुरावस्तुओं का यह तस्कर इस समय तमिलनाडु की एक जेल में दस साल की सजा पा रहा है.

दस्तावेजी विवरण

राष्ट्रीय स्मारक और पुरावस्तु मिशन ने देश में 16.70 लाख पुरावस्तुओं की प्रभावी जाँच का दस्तावेज तैयार किया है, इनमें से अबतक 3.52 लाख पुरावस्तुओं का पंजीकरण किया है. पिछले साल संसद संस्कृति मंत्रालय ने करीब 58 लाख पुरावस्तुओं की सूचना दी थी. इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि भारत की इस संपदा में से कितनी चोरी हुई है और कितनी संरक्षित है.

पीएम मोदी ने गत 27 फरवरी 2022 को ‘मन की बात’ में देश की प्राचीन मूर्तियों का जिक्र किया था. 2015 में जर्मनी की तत्कालीन चांसलर एंजेला मर्केल भारत आईं, तो उन्होंने दसवीं सदी की मां दुर्गा के महिषासुर मर्दनी अवतार वाली प्रतिमा लौटाने की घोषणा की थी. यह प्रतिमा जम्मू-कश्मीर के पुलवामा से 1990 के दशक में गायब हो गई थी. बाद में यह जर्मनी के स्टटगार्ट के लिंडन म्यूज़ियम में पाई गई.

ग्लासगो संग्रहालय

पिछले साल ग्लासगो लाइफ नाम के एक संगठन ने, जो स्कॉटिश शहर के संग्रहालयों का संचालन करता है, भारत सरकार के साथ सात कलाकृतियों को भारत लाने के लिए एक समझौते पर हस्ताक्षर किए थे. इनमें से ज्यादातर कलाकृतियाँ 19वीं सदी के दौरान भारत से चुराई गई थीं.

जो कलाकृतियां भारत लाई जाएंगी, उनमें 14वीं सदी की पत्थर की तराशी गईं मूर्तियां और 11वीं सदी की पत्थर की चौखटें हैं. इन्हें 19वीं सदी में मंदिरों और धर्मस्थलों से चुरा लिया गया था. इनमें टीपू सुल्तान की एक तलवार और म्यान भी शामिल है. इसे 1905 में हैदराबाद के निज़ाम के संग्रहालय से उनके वज़ीर ने चुरा लिया और उसे ब्रिटिश जनरल आर्किबाल्ड हंटर को बेच दिया था.

ये सभी कलाकृतियां ग्लासगो म्यूजियम को बतौर उपहार मिली थीं. ये कलाकृतियां कानपुर, कोलकाता, ग्वालियर, बिहार और हैदराबाद से लाई गई हैं. इनमें से कई 1000 साल पुरानी हैं.

युनेस्को संधि

सन 1970 में संयुक्त राष्ट्र के सम्मेलन में 100 से ज्यादा देशों ने सांस्कृतिक रूप से महत्वपूर्ण कलाकृतियों और वस्तुओं की तस्करी पर रोक लगाने की संधि की. उन वस्तुओं को उन देशों को वापस करने का समझौता भी हुआ था, जहाँ से उन्हें चुराया या लूटा गया था. युनेस्को-संधि में चोरी गई वस्तुओं को जब्त करने की बात भी कही गई थी. इसके लिए पर्याप्त दस्तावेजी प्रमाणों की जरूरत भी होती है.

इसके बाद 1978 की युनेस्को संधि में दुनिया के देशों के बीच इन वस्तुओं की वापसी तथा आदान-प्रदान की व्यवस्था की गई. 1995 की यूनिड्रॉइट संधि में अवैध रूप से हासिल की गई वस्तुओं की वापसी की व्यवस्था की गई.

ये तमाम संधियाँ मध्यकाल में लूटे गए सांस्कृतिक कलाकृतियों पर लागू नहीं होतीं. फिलहाल आधुनिक भारत से लूटी गई कलाकृतियों की ही वापसी का दावा किया जा सकता है.

बर्मिंघम बुद्धा

भारत की सांस्कृतिक-संपदा को लूटने का काम सैकड़ों वर्ष से होता रहा है, पर अंग्रेजी शासन में यह काम खुलकर और काफी बड़े स्तर पर हुआ. सबसे बड़ा प्रतीक है ‘कोहिनूर’ हीरा, पर वह ऐसी अकेली विरासत नहीं है, जिसपर भारत का दावा है.

ग्लासगो के संग्रहालय से जिन वस्तुओं को भारत लाने का समझौता हुआ है, उनके अलावा भी बहुत सी वस्तुएं ब्रिटेन में हैं. इनमें एक है गौतम बुद्ध की साढ़े सात फुट ऊंची प्रतिमा, जो पिछले डेढ़ सौ साल से इंग्लैंड के बर्मिंघम म्यूजियम में रखी है. विडंबना है कि अब इसे ‘बर्मिंघम बुद्धा’ का नाम दे दिया गया है. यह प्रतिमा 500 से 700 ईसवी की है. भागलपुर के पास रेलवे निर्माण कार्य की शुरुआत में खुदाई के दौरान यह मूर्ति मिली थी.

महाराजा रणजीत सिंह के सिंहासन को भी इसी सूची में रख सकते हैं. 1830 के दशक में महाराजा रणजीत सिंह का सिख साम्राज्य अपने वैभव के शिखर पर था. उस समय राजकीय स्वर्णकार हाफिज मुलतानी ने उनके लिए एक स्वर्णजड़ित सिंहासन तैयार किया था. सन 1849 में जब पंजाब कंपनी राज का हिस्सा बना, तो अंग्रेजों ने सिंहासन को ‘सरकारी संपत्ति’ घोषित करते हुए कब्जे में ले लिया. इस समय यह विक्टोरिया एंड अल्बर्ट म्यूजियम में रखा गया है.

आंध्र प्रदेश के अमरावती में स्थित बौद्ध स्तूप के चारों तरफ पत्थरों का एक घेरा और दरवाजा बनाया गया था. यह बौद्ध स्तूप ईसा से तीसरी शताब्दी पूर्व का है और पहली ईसवी से आठवीं ईसवी के बीच इसे शिलाओं से घेरा गया था. इन शिलाओं पर जातक कथाएं उकेरी गई हैं.

स्तूप के अवशेष 17वीं शताब्दी के अंतिम दशक में एक अंग्रेज अधिकारी ने खोजे थे.1850 के दशक में मद्रास सिविल सर्विस के एक अधिकारी सर वॉल्टर ईलियट ने यहां खुदाई करवाई. यहां से कई शिलाएं निकली. इनमें से कुछ भारत के संग्रहालयों में हैं, लेकिन सबसे ज्यादा 120 शिलाएं ब्रिटिश म्यूजियम में रखी हैं.

भारतीय पुरातत्व विभाग इन शिलाओं को वापस करने की माँग करता रहा है, लेकिन 2010 में इंग्लैंड ने इस मांग को खारिज कर दिया था. सूची बनाई जाए, तो वह काफी लंबी बनेगी, फिर भी वह पूरी नहीं होगी.

आवाज़ द वॉयस में प्रकाशित

 

                                                                                       

 

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