मणिपुर में एक महीने से चल रही हिंसा की गंभीरता को इस बात से समझा जा सकता है कि गृहमंत्री अमित शाह को खुद वहाँ जाकर स्थिति पर नियंत्रण करने के निर्देश देने पड़े। उन्होंने अलग-अलग जनजातियों और राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों से बातचीत की है, पर दीर्घकालीन समाधान एक-दो दिनों में नहीं आते। उसके लिए पहले माहौल को बनाना होगा। यह हिंसा देश की बहुजातीय पहचान और सांस्कृतिक-बहुलता के लिए खतरनाक है। इसका राजनीतिक इस्तेमाल और भी खतरनाक है। राज्य के पाँच जिलों में जितनी तेजी से बड़े पैमाने पर विस्थापन हुआ, लोगों की जान गई, घरों, चर्चों, मंदिरों में तोड़फोड़ और आगजनी हुई, वह राज्य में लंबे अर्से से चली आ रही पहाड़ी और घाटी की पहचान के विभाजन का नतीजा है। प्रशासनिक समझदारी से उसे टाला जा सकता था।
पक्षपात का आरोप
इस वक्त सबसे ज्यादा सवाल राज्य सरकार की
भूमिका को लेकर उठाए जा रहे हैं। अमित शाह ने विभिन्न वर्गों और राजनीतिक दलों के
प्रतिनिधियों के साथ बातचीत के दौरान कहा कि राज्य में शांति बहाल करना सरकार की
सबसे पहली प्राथमिकता है। मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह का दावा है कि स्थिति को
नियंत्रण में कर लिया गया है और 20 हज़ार के क़रीब लोगों को हिंसाग्रस्त इलाकों से
निकालकर शिविरों में पहुंचा दिया गया है। राज्य सरकार ने तत्परता और समझदारी से
काम किया होता तो यह धारणा जन्म नहीं लेती कि वह एक खास समुदाय की हिमायती है। ‘ड्रग्स
के खिलाफ युद्ध’ से प्रेरित होकर सरकार ने अति उत्साह में अतिक्रमण विरोधी अभियान
चलाया, जिसमें कुकी समुदाय के गाँव प्रभावित हुए थे। भाजपा के कुछ आदिवासी
विधायकों ने इस पक्षपात का मुद्दा उठाया था और नेतृत्व में बदलाव की मांग भी की
थी।
अतिक्रमण-विरोधी अभियान
मणिपुर सरकार ने फ़रवरी में संरक्षित इलाक़ों से अतिक्रमण हटाना शुरू किया था, तभी से तनाव था। लोग सरकार के इस रुख़ का विरोध कर रहे थे, लेकिन मणिपुर हाईकोर्ट के एक आदेश के बाद 3 मई से स्थिति बेकाबू हो गई, जब ऑल ट्राइबल स्टूडेंट्स यूनियन ऑफ मणिपुर (एटीएसयूएम) ने 3 मई को ‘जनजातीय एकता मार्च’ निकाला। इस मार्च के दौरान कई जगह हिंसा हुई। यह मार्च मैती समुदाय को जनजाति का दर्जा दिए जाने के प्रयास के विरुद्ध हुआ था। हाईकोर्ट ने सरकार को निर्देश दिया था कि वह 10 साल पुरानी सिफ़ारिश को लागू करे, जिसमें ग़ैर-जनजाति मैती समुदाय को जनजाति में शामिल करने की बात कही गई थी। यह शिकायत, कि मैती समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने पर पहाड़ी आदिवासी समुदायों के आरक्षण लाभों को काम कर देगा, एक सीमा तक ठीक लगता है। पर उनकी यह चिंता सही नहीं है कि इससे पारंपरिक भूमि स्वामित्व बदल जाएगा। आदिवासी नेताओं ने घाटी विरोधी भावनाओं को भड़काने में जमीन खोने के दाँव का इस्तेमाल किया है।
ध्रुवीकरण
मणिपुर की कुल आबादी में मैती समुदाय की
हिस्सेदारी 64 फ़ीसदी से भी ज़्यादा है। केंद्रीय इंफाल घाटी
लगभग 10 प्रतिशत भूभाग पर फैली है। इसमें मैती समुदाय का दबदबा है। शेष 90 प्रतिशत क्षेत्र चारों तरफ की पहाड़ियों में बसा है, जिसमें की 35 फ़ीसदी मान्यता प्राप्त जनजातियां रहती हैं। मैती मूलतः हिंदू हैं,
कुछ मुसलमान भी हैं। कुल 60 विधायकों में 40
विधायक मैती समुदाय से हैं, क्योंकि ये 40 सीटें घाटी में हैं। जनजातियों में से
केवल 20 विधायक ही विधानसभा पहुँचते हैं। राज्य में जिन
34 समुदायों को जनजाति का दर्जा मिला है, वे नगा और कुकी
के रूप में जाने जाते हैं। ये दोनों जनजातियां मुख्य रूप से ईसाई हैं।
अतीत की परंपरा
1947 में स्वतंत्रता के समय मणिपुर एक रियासत
थी, जहाँ के महाराजा बोधचंद्र का शासन था। उनकी रियासत ने 21 सितम्बर 1949 को, भारत
के साथ विलय के दस्तावेज़ों पर हस्ताक्षर किए और उसी साल 15 अक्तूबर में मणिपुर
भारत का अभिन्न अंग बन गया।1972 तक मणिपुर केंद्र शासित राज्य बना रहा, उसके बाद 21
जनवरी 1972 को उसे अलग राज्य का दर्जा दे दिया गया। शिड्यूल ट्राइब डिमांड कमिटी
ऑफ़ मणिपुर यानी एसटीडीसीएम 2012 से ही मैती समुदाय को जनजाति का दर्जा
देने की मांग कर रहा है। याचिकाकर्ताओं ने हाईकोर्ट में बताया कि 1949 में भारत में विलय से पहले यहाँ मैती समुदाय को जनजाति का दर्जा
मिला हुआ था। उनकी दलील थी कि मैती को जनजाति का दर्जा इस समुदाय, उसके पूर्वजों की ज़मीन, परंपरा, संस्कृति और भाषा की रक्षा के लिए ज़रूरी है। मैती समुदाय का कहना है
कि अपनी पहचान बनाए रखने और अपने पूर्वजों की जमीन पर कब्जा बनाए रखने के लिए
हमारी पहचान जनजाति के रूप में करना जरूरी है। वे मानते हैं कि हमारा समुदाय अकारण
ही संवैधानिक-संरक्षण से वंचित है और अपनी ही जमीन पर हाशिए पर चला गया है। सन
1951 में मैती समुदाय की जनसंख्या राज्य की 59 फीसदी थी, जो 2011 की जनगणना के
अनुसार अब 44 फीसदी रह गई है।
सियासी खेल
कुछ पर्यवेक्षक मैती समुदाय को जनजाति का दर्जा
देने की मांग को सियासी खेल मानते हैं। सरकार समर्थकों का कहना है कि जनजाति समूह आंदोलन
इसलिए चला रहे हैं, क्योंकि मुख्यमंत्री नोंगथोंबन बीरेन सिंह ने ड्रग्स के
ख़िलाफ़ अभियान चला रखा है। सरकार अफ़ीम की खेती को नष्ट कर रही है। मौजूदा जनजाति
समूहों का कहना है कि मैती का राजनीतिक दबदबा है। पढ़ने-लिखने के साथ वे अन्य
मामलों में भी आगे हैं। इनमें से काफी को अनुसूचित जाति और ओबीसी का दर्जा मिला
हुआ है, जिसके लाभ उन्हें मिल रहे हैं। उन्हें पूरी तरह जनजाति का दर्जा मिल गया
तो हमारे लिए नौकरियों के अवसर कम हो जाएंगे और मैती समुदाय के लोग पहाड़ों पर भी
ज़मीन ख़रीदना शुरू कर देंगे।
अवैध बस्तियाँ
ज्यादातर खेती कुकी-ज़ोमी जनजाति के लोग करते
हैं। इन्हें अवैध प्रवासी माना जाता है। सरकार इन्हें सरकारी ज़मीन पर अफ़ीम की
खेती करने से रोक रही है। पहला हिंसक विरोध प्रदर्शन 10 मार्च
को हुआ था, जब कुकी गाँव से अवैध प्रवासियों को निकाला गया
था। फिर अप्रेल के महीने में चुराचंदपुर में भीड़ ने एक जिम पर हमला बोला, जिसका
एक दिन बाद मुख्यमंत्री बीरेन सिंह उद्घाटन करने वाले थे। पिछले साल अगस्त में
राज्य सरकार ने एक नोटिस लगाया था कि चुराचंदपुर-खूपम संरक्षित वनक्षेत्र में बसे
38 गाँव ‘अवैध बस्तियाँ’ हैं और वहाँ
रहने वालों का अवैध अतिक्रमण हैं। इसके बाद सरकार ने अवैध कब्जे हटाने की
घोषणा कर दी, जिसके विरोध में भी हिंसा भड़की। कुकी समुदाय का कहना है कि भारतीय
वन कानून, 1927 मणिपुर में स्वयमेव लागू नहीं होता है, क्योंकि यह संविधान के
अनुसार ‘सी’ श्रेणी का
राज्य है। यहाँ इसे लागू करने के पहले विधानसभा से प्रस्ताव पास कराना होगा। साथ
ही इस क्षेत्र को संरक्षित क्षेत्र घोषित करने की कोई रिकॉर्ड नहीं है। 1970 में
वन चकबंदी अधिकारी ने 38 गाँवों की जमीन को संरक्षित क्षेत्र से अलग रखा था, पर
पिछले नवंबर में मुख्यमंत्री ने उस आदेश को रद्द कर दिया।
अलग प्रशासन
कुकी-ज़ोमी समुदाय ने ‘अलग प्रशासन’ की मांग
शुरू कर दी है। शरारती तत्वों और कट्टरपंथियों की हरकतों को सरकार रोक नहीं पाई
है। उसने पहाड़ी क्षेत्रों में पोस्ते की खेती के खिलाफ जो अभियान चलाया था, उसे कुकी-ज़ोमी
समुदायों के खिलाफ कदम के रूप में देखा गया। गत 12 मई को मणिपुर विधानसभा के दस
सदस्यों ने, जिनमें सात भारतीय जनता पार्टी के सदस्य हैं, बयान जारी किया कि कुकी
क्षेत्र के लिए अलग प्रशासन होना चाहिए। उनका आरोप है कि राज्य सरकार ने
चिन-कुकी-मिज़ो-ज़ुमी के खिलाफ बहुसंख्यक मैती समुदाय की हिंसा का समर्थन किया है।
जनजातियाँ अब मणिपुर राज्य के विभाजन की माँग कर रही हैं। इसकी प्रतिक्रिया मैती
समुदाय में हुई है। वे राज्य की अखंडता और एकता को लेकर सवाल उठा रहे हैं। दोनों
समुदाय रैलियाँ कर रहे हैं, जिनके दौरान आगजनी और हिंसा हो रही है। प्रशासन का
विभाजन फौरी तौर पर संभव नहीं है और न राज्य का विभाजन। संविधान के अनुच्छेद 3 के
अनुसार देश की संसद किसी राज्य में से उसका क्षेत्र अलग करके अथवा दो या अधिक
राज्यों को या राज्यों के भागों को मिलाकर अथवा किसी राज्यक्षेत्र को किसी राज्य
के भाग के साथ मिलाकर नए राज्य का निर्माण कर सकती है। इलाके में नए संघ-शासित
क्षेत्र के गठन का सुझाव भी काफी समय से चला आ रहा है।
अशांत क्षेत्र
यह क्षेत्र पहले से ही आतंकी गतिविधियों और नशे
के कारोबार के कारण संवेदनशील है। बात केवल कुकी-ज़ो समूहों की नहीं है। यहाँ नगा स्वायत्त
क्षेत्र बनाने का दावा भी है। उनकी माँग का विरोध मैती समुदाय करता है। नगा-कुकी खूनी
संघर्ष भी होते रहे हैं। मणिपुर में कम्युनिस्ट प्रभाव वाले अलगाववादी समूह भी
हैं। म्यांमार की सीमा से जुड़ा होने के कारण इलाका संवेदनशील है। राज्य में आर्म्ड
फोर्सेज़ स्पेशल पावर्स एक्ट भी लागू था। इस साल मार्च के महीने में मणिपुर,
असम और नगालैंड के कई इलाकों से इसे हटाया गया है। शुरू में यह क़ानून
राज्य के नगा बहुल उखरुल ज़िले में ही प्रभावी था, पर 18
सितंबर 1981 को इसे पूरे मणिपुर में लागू कर दिया गया। बहरहाल एक तरफ स्थितियों के
सामान्य होने की संभावनाएं बन रही हैं, तो दूसरी तरफ उसे बिगाड़ने के प्रयास हो
रहे हैं। यह परीक्षा की घड़ी है।
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