प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका की राजकीय-यात्रा और उसके बाद मिस्र की यात्रा का महत्व केवल इन दोनों देशों के साथ रिश्तों में सुधार ही नहीं है, बल्कि वैश्विक-मंच पर भारत के आगमन को रेखांकित करना भी है। वर्तमान अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन का भारत को लेकर दृष्टिकोण नया नहीं है। उन्होंने पहले सीनेट की विदेशी मामलों की समिति के अध्यक्ष के रूप में और बाद में जब वे बराक ओबामा के कार्यकाल में उपराष्ट्रपति थे, अमेरिका की भारत-समर्थक नीतियों को आगे बढ़ाया। उपराष्ट्रपति बनने के काफी पहले सन 2006 में उन्होंने कहा था, ‘मेरा सपना है कि सन 2020 में अमेरिका और भारत दुनिया में दो निकटतम मित्र देश बनें।’ उन्होंने ही कहा था कि भारत-अमेरिकी रिश्ते इक्कीसवीं सदी को दिशा प्रदान करेंगे। इस यात्रा के दौरान जो समझौते हुए हैं, वे केवल सामरिक-संबंधों को आगे बढ़ाने वाले ही नहीं हैं, बल्कि अंतरिक्ष-अनुसंधान, क्वांटम कंप्यूटिंग, सेमी-कंडक्टर और एडवांस्ड आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस के क्षेत्र में नए दरवाजे खोलने जा रहे हैं। कुशल भारतीय कामगारों के लिए वीज़ा नियमों में ढील दी जा रही है। अमेरिका असाधारण स्तर के तकनीकी-हस्तांतरण के लिए तैयार हुआ है, वहीं आर्टेमिस समझौते में शामिल होकर भारत अब बड़े स्तर पर अंतरिक्ष अनुसंधान में शामिल होने जा रहा है। भारत के समानव गगनयान के रवाना होने के पहले या बाद में भारतीय अंतरिक्ष-यात्री किसी अमेरिकी कार्यक्रम में शामिल होकर अंतरराष्ट्रीय स्पेस स्टेशन (आईएसएस) पर काम करें। अमेरिका के साथ 11 देशों के खनिज-सुरक्षा सहयोग में शामिल होने के व्यापक निहितार्थ हैं। इस क्षेत्र में चीन की इज़ारेदारी खत्म करने के लिए यह सहयोग बेहद महत्वपूर्ण है। रूस और चीन के साथ भारत के भविष्य के रिश्तों की दिशा भी स्पष्ट होने जा रही है। भारत में अल्पसंख्यकों और मानवाधिकार से जुड़े कुछ सवालों पर भी इस दौरान चर्चा हुई और प्रधानमंत्री मोदी ने पैदा की गई गलतफहमियों को भी दूर किया।
स्टेट-विज़िट
यह तीसरा मौका था, जब भारत के किसी नेता को
अमेरिका की आधिकारिक-यात्रा यानी ‘स्टेट-विज़िट’ पर
बुलाया गया था। अमेरिका को चीन के बरक्स संतुलन बनाने के लिए भारत की जरूरत है। भारत
को भी बदलती अमेरिकी तकनीक, पूँजी और राजनयिक-समर्थन चाहिए। अमेरिका अकेला नहीं
है, उसके साथ कनाडा, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया और यूरोप के कई देश हैं। जिस प्रकार के
समझौते अमेरिका में हुए हैं, वे एक दिन में नहीं होते। उनकी लंबी पृष्ठभूमि होती
है। प्रधानमंत्री की यात्रा के कुछ दिन पहले अमेरिकी रक्षामंत्री लॉयड ऑस्टिन भारत
आए थे। उनके साथ बातचीत के बाद काफी सौदों की पृष्ठभूमि तैयार हो चुकी थी। जनवरी
में भारत के रक्षा सलाहकार अजित डोभाल और अमेरिकी रक्षा सलाहकार जेक सुलीवन ने
इनीशिएटिव फॉर क्रिटिकल एंड इमर्जिंग टेक्नोलॉजी (आईसेट) को लॉन्च किया था। पश्चिमी
देश इस बात को महसूस कर रहे हैं कि भारत की रूस पर निर्भरता इसलिए भी बढ़ी,
क्योंकि उन्होंने भारत की उपेक्षा की। इस यात्रा के ठीक पहले भारत और जर्मनी के
बीच छह पनडुब्बियों के निर्माण पर सहमति बनी। भारत के दौरे पर आए जर्मन
रक्षामंत्री बोरिस पिस्टोरियस ने कहा कि भारत का रूसी हथियारों पर निर्भर रहना
जर्मनी के हित में नहीं है।
रिश्तों की पृष्ठभूमि
भारत-अमेरिका रिश्तों के संदर्भ में बीसवीं और इक्कीसवीं सदी का संधिकाल तीन महत्वपूर्ण कारणों से याद रखा जाएगा। पहला, भारत का नाभिकीय परीक्षण, दूसरा करगिल प्रकरण और तीसरे भारत और अमेरिका के बीच लंबी वार्ताएं। सबसे मुश्किल काम था नाभिकीय परीक्षण के बाद भारत को वैश्विक राजनीति की मुख्यधारा में वापस लाना। नाभिकीय परीक्षण करके भारत ने निर्भीक विदेश-नीति की दिशा में सबसे बड़ा कदम अवश्य उठाया था, पर उस कदम के जोखिम भी बहुत बड़े थे। ऐसे नाजुक मौके में तूफान में फँसी नैया को किनारे लाने का एक विकल्प था कि अमेरिका से रिश्तों को सुधारा जाए। तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने राष्ट्रपति बिल क्लिंटन को एक पत्र लिखा, हमारी सीमा पर एटमी ताकत से लैस एक देश बैठा है, जो 1962 में हमला कर भी चुका है। हालांकि उसके साथ हमारे रिश्ते सुधरे हैं, पर अविश्वास का माहौल है। इस देश ने हमारे एक और पड़ोसी को एटमी ताकत बनने में मदद की है। अमेरिका भी व्यापक फलक पर सोच रहा था, तभी तो उसने उस पत्र को सोच-समझकर लीक किया।
न्यूक्लियर डील
नई सहस्राब्दी में जसवंत सिंह और अमेरिकी
उप-विदेश मंत्री स्ट्रोब टैलबॉट के बीच दो साल में 14 बार मुलाक़ातें हुईं। मार्च
2000 में राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने भारत का दौरा किया। क्लिंटन के बाद जॉर्ज डब्ल्यू बुश के कार्यकाल में न्यूक्लियर
डील हुआ, जिसने दोनों देशों के बीच रिश्तों को सामरिक स्तर
पर मज़बूती दी। सितंबर 2008 में न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप की ओर से भारत-अमेरिका
परमाणु समझौते को स्वीकृति दिए जाने के बाद भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने
कहा था, ‘इस समझौते ने भारत के परमाणु ऊर्जा से जुड़ी
तकनीकों की मुख्य धारा से अलग-थलग रहने और तकनीक से वंचित रखने के दौर को खत्म
किया है।’ 2016 में प्रधानमंत्री मोदी ने अमेरिकी संसद में कहा कि भारत और
अमेरिका ने ऐतिहासिक हिचकिचाहट से पार पा लिया है। बात केवल भारतीय हितों की ही
नहीं है। इसमें अमेरिका की दिलचस्पी भी है। इसकी वजह है चीन की बढ़ती आक्रामकता।
पिछलग्गू नहीं
भारत ने फ्रांस के साथ रक्षा-सहयोग भी बढ़ाया
है। अमेरिका की यात्रा के बाद जुलाई में मोदी फ्रांस जाने वाले हैं। भारतीय सेना
की एक टुकड़ी फ्रांस के राष्ट्रीय दिवस बास्तील के अवसर पर होने वाली परेड में भाग
लेगी। भारत को विमानवाहक पोतों पर तैनात करने के लिए लड़ाकू विमानों की जरूरत है,
जो रूसी मिग-29के की जगह लेंगे। इसके लिए फ्रांसीसी राफेल और अमेरिका के एफ/ए-18
सुपर हॉर्नेट के परीक्षण हो चुके हैं। संभावना है कि मोदी की फ्रांस-यात्रा के
दौरान राफेल के सौदे पर मोहर लगेगी। हम अमेरिका पर भी पूरी तरह आश्रित होना नहीं
चाहेंगे। आज की परिस्थिति में भारत अपनी स्वतंत्र विदेश-नीति पर चलने का प्रयास कर
रहा है। हम अमेरिका के अच्छे दोस्त बनना चाहते हैं, पिछलग्गू नहीं।
भारत-रूस रिश्ते
अमेरिका के साथ बेहतर होते रिश्तों का
भारत-रूस, और भारत-चीन रिश्तों पर भी प्रभाव पड़ेगा। हम आसानी से रूस का साथ नहीं
छोड़ सकते हैं। यह बात अमेरिकी प्रशासन को भी समझ में आती है। गुट-निरपेक्षता की
नीति पर चलने के बावजूद भारत का रूसी-झुकाव कभी छिपा नहीं रहा। हंगरी,
चेकोस्लोवाकिया और अफगानिस्तान में रूसी कार्रवाइयों पर चुप्पी साधकर भारत ने अपनी
राजनीतिक-प्रतिबद्धता भी जता दी थी। पर अब जो हो रहा है, वह बदलती वैश्विक-स्थिति
के अनुरूप है। भारत, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया
और जापान का ‘क्वाड’ शक्ल ले चुका है। रूस के साथ रिश्तों के पीछे एक बड़ा कारण
रक्षा-तकनीक है। भारतीय सेनाओं के पास जो उपकरण हैं, उनमें
सबसे ज्यादा रूसी हैं। साठ के दशक में हमने ब्रिटेन की सहायता से लिएंडर श्रेणी के
फ्रिगेट बनाने शुरू किए थे, पर बाद में नौसेना ने रूसी पोत भी खरीदे। हमने परमाणु
शक्ति चालित पनडुब्बी रूस से पट्टे पर ली। विदेशमंत्री एस जयशंकर ने गत पिछले साल अक्तूबर
में ऑस्ट्रेलिया की एक प्रेस-वार्ता में कहा कि पश्चिमी देशों ने हमें रूस की ओर
धकेला। दशकों तक भारत को कोई भी पश्चिमी देश हथियार नहीं देता था। केवल हथियारों की बात ही नहीं है। कश्मीर के
मामले में महत्वपूर्ण मौकों पर रूस ने संरा सुरक्षा परिषद में ऐसे प्रस्तावों को
वीटो किया, जो भारत के खिलाफ जाते थे। कश्मीर के मसले पर
पश्चिमी देशों के मुकाबले रूस का रुख भारत के पक्ष में था। यह बात दोस्ती को मजबूत
करती चली गई। अब सस्ता पेट्रोलियम हमें रूस से मिल रहा है।
रक्षा में आत्मनिर्भरता
रक्षा-प्रणाली, अर्थव्यवस्था के विस्तार की बुनियादी
शर्त होती है। खासतौर से मजबूत नौसैनिक-शक्ति की जरूरत होती है। रक्षा-तकनीक में
आत्मनिर्भरता प्राप्त करना हमारी सबसे बड़ी जरूरत है। इस दृष्टि से जनरल
इलेक्ट्रिक एयरोस्पेस और हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड के बीच हुआ समझौता बहुत
महत्वपूर्ण है। इसके अंतर्गत लाइट कॉम्बेट एयरक्राफ्ट तेजस एमके-2 के लिए जीई एफ-414 इंजन बनाया जाएगा। इस दौरान भारत अपने कावेरी
इंजन का उत्तरोत्तर विकास करेगा। इसके साथ ही फ्रांस के सैफ्रान और ब्रिटेन के
रॉल्स रॉयस के साथ भी जेट इंजन विकास की बातें चल रही हैं। इस प्रकार के तकनीकी हस्तांतरण
का यह बड़ा मौका है। लंबे समय से भारत उच्चस्तरीय तकनीक से वंचित रहा है। साठ के
दशक में मिग-21 विमानों की खरीद के साथ इसकी शुरुआत हुई थी। पर इसके कारण हमारे
स्वदेशी एचएफ-24 मरुत लड़ाकू विमान के विकास पर विपरीत प्रभाव पड़ा था। 1977 में
जनता पार्टी सरकार ने रूसी आश्रय को तोड़ने की कोशिश की थी। डीप पैनेट्रेशन
स्ट्राइक एयरक्राफ्ट (डीपीएसए) के रूप में ब्रिटिश-फ्रांस सहयोग से बने जैगुआर
विमान की खरीद की गई थी। इसके पहले फ्रांस से मिराज विमान खरीदे गए थे।
स्वतंत्र नीति
आत्मनिर्भरता और आत्मविश्वास बढ़ने पर ही हम
स्वतंत्र विदेश-नीति अपना सकते हैं। अमेरिकी मीडिया में इस बात का उल्लेख बार-बार
होता है कि संरा में भारत अमेरिका का खुलकर समर्थन नहीं करता। 2014 से 2019 के बीच
संरा महासभा में हुए मतदानों में भारत के केवल 20 फीसदी वोट ही अमेरिका के समर्थन
में पड़े। इतना ही नहीं अमेरिका के वैश्विक-समझौतों से भारत दूर रहता है। वह किसी
भी अमेरिकी व्यापारिक-समझौते में शामिल नहीं हुआ है। यूक्रेन-युद्ध के बाद ये
अंतर्विरोध बढ़े हैं। दूसरी तरफ अमेरिकी नीति में भी झोल है। कश्मीर समस्या को
उलझाने में सबसे बड़ी भूमिका ब्रिटेन और अमेरिका की है। बहरहाल आज भारत न तो रूस
का उतना गहरा मित्र है, जितना कभी होता था। पर वह उतना गहरा
शत्रु कभी नहीं बन पाएगा, जितना अमेरिका चाहता है। इन बातों को
अब हमें साफ-साफ कहना होगा।
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