लोकसभा चुनाव आने के पहले देश में जाति के आधार पर आरक्षण की बहस एकबार फिर से छिड़ने की संभावना है। कर्नाटक विधानसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस पार्टी ने दावा किया था कि हम आरक्षण का प्रतिशत 50 फीसदी से ज्यादा करेंगे। कोलार की एक रैली में राहुल गांधी ने नारा लगाया, ‘जितनी आबादी, उतना हक।’ वस्तुतः यह बसपा के संस्थापक कांशी राम के नारे का ही एक रूप है, ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी।’ राहुल गांधी ने यह भी कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने जातीय आधार पर आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत तक रखी है, उसे खत्म करना चाहिए।
इसके पहले रायपुर में हुए पार्टी महाधिवेशन में इस
आशय का एक प्रस्ताव पास भी किया गया था। कर्नाटक चुनाव
के ठीक पहले तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम करुणानिधि ने 3 अप्रेल को सामाजिक न्याय
का नया मोर्चा बनाने की घोषणा की थी, जिसके पीछे विरोधी दलों की एकता कायम करना
था। साथ ही इस एकता के पीछे ओबीसी तथा दलित जातियों के हितों के कार्य को आगे
बढ़ाना था। बिहार की जातिगत जनगणना भी इसी का एक हिस्सा थी।
ओबीसी राजनीति का यह आग्रह केवल विरोधी दलों की ओर से ही नहीं है, बल्कि अब भारतीय जनता पार्टी भी इसमें पूरी ताकत से शामिल है। अगले साल चुनाव के ठीक पहले अयोध्या में राम मंदिर का एक हिस्सा जनता के लिए खोल दिया जाएगा। राम मंदिर का ओबीसी राजनीति से टकराव नहीं है, क्योंकि ओबीसी जातियाँ प्रायः मंदिर निर्माण के साथ रही हैं। बिहार में इस समय नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव की राजनीति के समांतर बीजेपी की सोशल इंजीनियरी भी चल रही है।
अगस्त 2021 में संसद से 127वाँ संविधान संशोधन
विधेयक पारित होने के बाद यह राजनीति और तेज हुई है। इस संशोधन का मुख्य उद्देश्य
ओबीसी की अपनी सूची की पहचान करने के लिए राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की
शक्ति को बहाल करना था। ओबीसी की लिस्ट तैयार करने का अधिकार हमेशा से केंद्र के
पास नहीं रहा था, बल्कि केंद्र सरकार ने 2018 में कानून में संशोधन करके यह अधिकार
राज्यों से छीन लिया था। उससे पहले, वर्ष 1993 से ही
राज्य अपने-अपने यहां की ओबीसी जातियों की लिस्ट तैयार किया करती थी।
केंद्रीय सूची में देश की 2,700 जातियों को
अन्य पिछड़े वर्ग का दर्जा हासिल है। इनमें 1,000 जातियों को ही आरक्षण मिल रहा है,
बाकी इस दायरे से बाहर हैं। इनमें भी करीब एक सौ जातियों को आरक्षण
का लाभ मिला है। दूसरी तरफ आरक्षण के दायरे से अनेक जातियां खुद को पिछड़ा वर्ग
में शामिल करने की मांग कर रही हैं। केंद्र सरकार का कहना था कि संविधान संशोधन के
बाद राज्य उन जातियों की मांगें पूरा कर पाएंगे। केंद्र सरकार के अनुसार राज्यों
की शक्ति को बहाल करने का सीधा लाभ उन जातियों को मिलेगा, जिनकी राज्य सूचियों में
की गई अधिसूचनाओं के रद्द होने का ख़तरा था। इस विधेयक को सभी दलों का जबर्दस्त
समर्थन मिला और वह सर्वानुमति से पास हो गया। अब इसके कारण पैदा हुए राजनीतिक
अंतर्विरोध भी सामने आ रहे हैं।
राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग (एनसीबीसी) के
प्रमुख हंसराज गंगाराम अहीर ने कहा है कि आने वाले महीनों में केंद्र की ओबीसी
लिस्ट में छह राज्यों के क़रीब 80 जातियों के नाम जोड़े जा सकते हैं। पर
आयोग के एक और बयान से राजनीतिक गंध आ रही है। आयोग ने कहा है कि बिहार, पश्चिम बंगाल, राजस्थान और पंजाब में ओबीसी आरक्षण
नियमों का उल्लंघन किया जा रहा है। एनसीबीसी के अनुसार फरवरी से मई 2023 के बीच इन
राज्यों में एक सर्वे कराया गया, जिसमें आरक्षण नियमों को लागू करने में
गड़बड़ी पाई गई। ध्यान दें कि ये सभी चार राज्य गैर-भाजपा शासित हैं। एनसीबीसी ने
पश्चिम बंगाल में रोहिंग्या और बांग्लादेश के प्रवासियों को ओबीसी सर्टिफिकेट देने
का आरोप लगाया है।
एनसीबीसी अध्यक्ष के अनुसार राज्य में ओबीसी
लिस्ट की 179 जातियों में 118 मुस्लिम समुदाय से हैं। इसी तरह एनसीबीसी को
राजस्थान में सात जिले ऐसे मिले, जहाँ एक भी व्यक्ति ने ओबीसी आरक्षण का
लाभ नहीं लिया है। आरक्षण नियमों में उल्लंघन की जानकारी एक प्रकार से इन चार
राज्यों पर निशाना है। मंडल-कमंडल राजनीति के लिहाज से बिहार की महत्वपूर्ण भूमिका
है। वहीं से विरोधी दलों की महागठबंधन राजनीति बाहर निकल कर आई है।
आयोग के मुताबिक, पंजाब
में ओबीसी श्रेणी में आरक्षण कम दिया जा रहा है। वहीं, बिहार
में साल 1993 से 2023 तक नॉन क्रीमी लेयर सर्टिफिकेट देने के लिए ग्रुप सी और डी
के कर्मचारियों की आय में खेती के जरिए हुई आमदनी को जोड़ा जा रहा है। आयोग का
कहना है कि यह आरक्षण नीति का उल्लंघन है। इसी तरह बिहार और झारखंड के बँटवारे के
बाद बिहार में जाति प्रमाणपत्र कुर्मी (छोटा नागपुर) के नाम से जारी हो रहे है।
आयोग के मुताबिक, इस जाति प्रमाणपत्र का कोई मतलब नहीं
रह है, क्योंकि यह जाति झारखंड में है, बिहार में नहीं।
बिहार के लिए यह अटपटी जानकारी है, क्योंकि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार स्वयं कुर्मी
जाति से आते हैं और राज्य में यादवों के बाद सबसे बड़ी ओबीसी आबादी कुर्मी–कोइरी की
है।
लगता है कि चुनाव का समय आने तक आरक्षण की बहस
तेजी पकड़ेगी। सुप्रीम कोर्ट ने मई 2021 में मराठा आरक्षण के फैसले को यह कहते हुए खारिज कर
दिया था कि आरक्षण के दायरे में जातियों को जोड़ने-घटाने का अधिकार केंद्र के पास
है। उसके पहले हरियाणा के जाट आरक्षण को भी अदालत ने नामंजूर किया था। मराठा के
अलावा गुजरात में पाटीदार, राजस्थान में गुर्जर, हरियाणा में जाट, कर्नाटक में लिंगायत के साथ-साथ
बिहार-यूपी में भी कई जातियां खुद को ओबीसी लिस्ट में शामिल करके आरक्षण का लाभ
देने की मांग कर रही हैं। राजनीतिक दृष्टि से ये सब ताकतवर समूह हैं।
केंद्र ने 2019 के चुनाव के पहले आर्थिक रूप से
कमजोर वर्गों के लिए जिस 10 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की थी, उसे नवंबर 2022 में
सुप्रीम कोर्ट ने वैध ठहराया है। कर्नाटक के चुनाव में कांग्रेस के
सामाजिक-फॉर्मूले की परीक्षा भी थी। यह फॉर्मूला है अल्पसंख्यक, दलित और पिछड़ी जातियाँ। इसकी तैयारी सिद्धरमैया ने सन 2015 से शुरू
कर दी थी, जब उन्होंने राज्य की जातीय जनगणना कराई। उसके
परिणाम घोषित नहीं हुए, पर सिद्धारमैया ने पिछड़ों और दलितों
को 70 फीसदी आरक्षण देने का वादा जरूर किया।
सुप्रीम कोर्ट के आदेशों को देखते हुए आरक्षण
50 फीसदी से ज्यादा नहीं किया जा सकता था, पर उन्होंने कहा
कि हम इसे 70 फीसदी करेंगे। ऐसा तमिलनाडु में हुआ है, पर
इसके लिए संविधान के 76 वां संशोधन करके उसे नवीं अनुसूची में रखा गया, ताकि अदालत में चुनौती नहीं दी जा सके। कर्नाटक में यह तबतक संभव
नहीं, जबतक केंद्र की स्वीकृति नहीं मिले।
127 वें संविधान संशोधन के बाद कुछ लोगों ने
संभावना जताई कि राज्यों को सूची बनाने का अधिकार मिलने के बाद ओबीसी आरक्षण की
सीमा 27 प्रतिशत से ज्यादा बढ़ाई जा सकती है और सुप्रीम कोर्ट की तरफ से तय की गई
50 प्रतिशत की सीमा भी बढ़ जाएगी। ऐसा फिलहाल संभव नहीं है। राज्यों को ओबीसी
लिस्ट में जातियों के नाम जोड़ने-घटाने का अधिकार मिलने का मतलब यह नहीं है कि
आरक्षण भी बढ़ जाएगा। इसका मकसद आरक्षण के दायरे में उन जातियों को लाना था, जो इसके
दायरे से बाहर हैं।
माना जाता है कि ओबीसी आरक्षण का लाभ केवल कुछ
खास जातियाँ ही ले पाती हैं। बड़ी संख्या में पिछड़ी जातियों की पहुँच आरक्षण तक
नहीं है। इस विसंगति को दूर करने के लिए अब रोहिणी आयोग की रिपोर्ट का इंतज़ार है।
केंद्र सरकार ने संविधान के अनुच्छेद 340 के तहत
ओबीसी के उप वर्गीकरण के लिए 2017 में रोहिणी आयोग का गठन किया था। दिल्ली
हाईकोर्ट की सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश जी रोहिणी इसकी अध्यक्ष हैं। आयोग को गठन
के 12 सप्ताह में अपनी रिपोर्ट देनी थी, लेकिन 6 साल बाद भी रिपोर्ट नहीं आई है और
उसके कार्यकाल को सेवा विस्तार मिलता रहा। संभावना है कि जुलाई के अंत तक रिपोर्ट
आएगी। यकीनन वह रिपोर्ट भी आरक्षण की इस बहस को तेज करेगी और संभवतः वह लोकसभा
चुनाव का प्रस्थान बिंदु साबित हो।
कोलकाता के दैनिक वर्तमान में प्रकाशित
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