Saturday, December 1, 2018

‘मंदिर शरणम गच्छामि’ का जाप भटकाएगा राहुल को


पिछले साल हुए गुजरात विधानसभा चुनाव के बाद से कांग्रेस पार्टी ने बीजेपी के जवाब में अपने हिन्दुत्व या हिन्दू तत्व का आविष्कार कर लिया है। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ चुनाव के पहले उनके कैलाश-मानसरोवर दौरे का प्रचार हुआ। उसके पहले कर्नाटक-विधानसभा के चुनाव के दौरान वे मंदिरों और मठों में गए। गुजरात में तो इसकी शुरुआत ही की थी। चुनाव प्रचार के दौरान वे जिन प्रसिद्ध मंदिरों में दर्शन के लिए गए उनकी तस्वीरें प्रचार के लिए जारी की गईं। पोस्टर और बैनर लगाए गए।

छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में चुनाव पूरा होने के बाद अब तेलंगाना और राजस्थान की बारी है। प्रचार की शुरुआत में ही राजस्थान के पुष्कर तीर्थ में उनके गोत्र का सवाल उठा। खुद राहुल गांधी ने अपने गोत्र की जानकारी दी। पूजा कराने वाले पुजारी ने बताया कि उन्होंने अपने गोत्र का नाम दत्तात्रेय बताया। इस जानकारी को उनके विरोधियों ने पकड़ा और सोशल मीडिया पर सवालों की झड़ी लग गई। उनके दादा के नाम और धर्म को लेकर सवाल उठाए जा रहे हैं। क्या उन्होंने धर्म-परिवर्तन किया था? क्या उनका विवाह हिन्दू पद्धति से हुआ था वगैरह। इन व्यक्तिगत बातों का कोई मतलब नहीं होता, पर सार्वजनिक जीवन में उतरे व्यक्ति के जीवन की हर बात महत्वपूर्ण होती है।


यह अध्यात्म नहीं

राहुल गांधी की मंदिरों, आश्रमों, मठों और स्वामियों के डेरों की यात्राओं के पीछे कोई राजनीतिक उद्देश्य जरूर है। ये यात्राएं खासतौर से चुनाव के दौरान हो रही हैं और उन इलाकों में हो रही हैं, जहाँ चुनाव होने वाले हैं। राजनीति शास्त्री सुहास पालशीकर ने इसे मंदिर-प्रवेश आंदोलन का नाम दिया है। ऐसे देश में, जिसमें नागरिकों की काफी बड़ी तादाद धर्मप्राण हो, राजनीति में अध्यात्म का समावेश विस्मयकारी नहीं है। पर राहुल की यह पहल अध्यात्मिक भी नहीं है। महात्मा गांधी मंदिर-मंदिर नहीं घूमते थे, पर उनकी राजनीति में अध्यात्म का समावेश था।

राहुल केवल हिन्दू मंदिरों में जा रहे हैं। उनकी दादी इंदिरा गांधी ने भी अपने जीवन के उत्तरार्ध में धर्म-स्थलों में जाना शुरू किया था, पर वे प्रायः हर तरह के धर्म-स्थलों में जाती थीं। इससे भी व्यापक समझ का संदेश जाता है। राहुल का यह कदम शुद्ध रूप से बीजेपी की रणनीति की नकल है। पार्टी उन्हें शिव भक्त और जनेऊ-धारी जैसे विशेषणों से विभूषित कर रही है। यह बचकाना तरीका है और इससे कुछ भी मिलने वाला नहीं है। उदारता, सहिष्णुता, पोंगापंथ और कठमुल्ला-अवधारणाओं के विरोध में हिन्दू समाज के भीतर भी समर्थन मिलेगा। उसके लिए साहस और संकल्प चाहिए। साथ ही समाज के भीतर तक जाने की सामर्थ्य भी। चुनौती जनता के बीच जाने की है।

मौका-परस्ती

पता नहीं राहुल गांधी ने इस रणनीति को स्वयं अपनाया या पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की यह सलाह है, पर कांग्रेस ने बीजेपी को हाथों में सौंप दी है। पिछले तीन दशक में बीजेपी ने काफी हद तक अपने हिन्दुत्व को परम्परागत सनातन-धर्म की जगह स्थापित करने में सफलता पाई है। हिन्दू-विचार के उस उदार और समावेशी स्वरूप को आगे करने के बजाय कांग्रेस ने उसे संकीर्ण रूप में अपनाने की कोशिश की है, जो बीजेपी के हिन्दुत्व जैसा ही मौका-परस्त विचार है। बीजेपी की योजना धर्म और अध्यात्म केन्द्रित नहीं है, बल्कि आक्रामक पहचान की राजनीति है।

कांग्रेस अपनी राजनीति से भटक चुकी है। वह अब इस किस्म के सस्ते टोटके अपना रही है, जो निश्चित रूप से उसे कहीं नहीं ले जाएंगे। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान कांग्रेस की पहचान धर्म-निरपेक्ष व्यवस्था की समर्थक पार्टी के रूप में थी, पर उसे मूलतः हिन्दू पार्टी के रूप में ही देखा जाता था। पचास के दशक में जब हिन्दू कोड बिल पास हुए थे तबसे कांग्रेस पर हिन्दू विरोधी होने के आरोप लगते रहे हैं। पर कांग्रेस की लोकप्रियता में तब कमी नहीं आई।

इंदिरा गांधी की छवि

साठ के दशक में गोहत्या विरोधी आंदोलन भी उसे हिन्दू विरोधी साबित नहीं कर सका। तब जब शंकराचार्य तक आंदोलन पर उतर आए थे। अस्सी के दशक में मीनाक्षीपुरम के धर्मांतरण के बाद इंदिरा गांधी ने अपनी छवि हिन्दू-मुखी बनाने का प्रयास जरूर किया, पर वह भी इतना संकीर्ण नहीं था। वे गले में रुद्राक्ष पहनती थीं। वे मजबूत भारतीय राष्ट्र-राज्य की समर्थक थीं। सन 1971 में बांग्लादेश के युद्ध के बाद उन्हें दुर्गा का रूपक दिया गया था।

इंदिरा गांधी के उत्तराधिकारी राजीव गांधी ने राम जन्मभूमि आंदोलन का रुख अपनी ओर मोड़ने की कोशिश भी की। सन 1989 के चुनाव के पहले वे रामायण सीरियल के राम अरुण गोविल को साथ लेकर अयोध्या में राम मंदिर का शिलान्यास कराने के लिए गए थे। कांग्रेस के अंतर्विरोध उसी दौर में बढ़े और भाजपा ने उसी दौरान अपनी ताकत बढ़ाई। फिर भी कांग्रेस की छवि ‘हिन्दू-विरोधी’ नहीं थी।

सोशल-इंजीनियरी में मात

उस दौर में कांग्रेस ने केवल धार्मिक जमीन ही नहीं खोई, सामाजिक जमीन भी खो दी। ओबीसी और दलित जातियों की राजनीति उसी दौरान विकसित हुई। बाबरी विध्वंस के बाद मुसलमानों ने भी उसका साथ छोड़ दिया। अस्सी के दशक में कांग्रेस की सामाजिक जमीन छिनी। जनता-परिवार की मंडल राजनीति ने एक तरफ से हमला बोला और कमंडल-परिवार ने दूसरी तरफ से। तबसे कांग्रेस के सिर पर सोशल इंजीनियरी की तलवार लटकी है।

मई 2014 में लोकसभा चुनाव की  पराजय के बाद कांग्रेस पार्टी ने आत्म-मंथन शुरू किया। जून में वरिष्ठ नेता एके एंटनी ने केरल में पार्टी कार्यकर्ताओं से कहा था कि ‘छद्म धर्म निरपेक्षता’ और अल्पसंख्यकों के प्रति झुकाव रखने वाली छवि को सुधारना होगा। फिर दिसम्बर में खबर आई कि राहुल गांधी ने पार्टी के महासचिवों से कहा है कि वे कार्यकर्ताओं से सम्पर्क करके पता करें कि क्या हमारी छवि ‘हिन्दू विरोधी’ पार्टी के रूप में देखी जा रही है।  

क्षीण-हिन्दुत्व

हाँ, सच यह भी है कि राहुल गांधी के इस मरियल सॉफ्ट हिन्दुत्व ने भी बीजेपी के ध्वज-वाहकों को परेशान कर दिया। उनकी कैलाश-मानसरोवर यात्रा की तस्वीरों का पोस्टमार्टम होने लगा कि छड़ी की छाया पड़ रही है या नहीं। उनकी सोमनाथ यात्रा के बाद दस्तावेज निकाले गए कि किसने प्रवेश रजिस्टर में नाम दर्ज किए थे, क्या नाम लिखा था वगैरह। राहुल की मंदिर-यात्राओं के बाद पार्टी के प्रवक्ता कहीं न कहीं तंज करते मिल जाते हैं। उनके गोत्र का सवाल पहले संबित पात्रा ने ही उठाया था।

बीजेपी को भी अपने हिन्दू जनाधार की सच्चाई का पता है। पार्टी केवल हिन्दुत्व के सहारे चुनाव नहीं लड़ती, बल्कि आर्थिक सपनों को भी बेचती है। उसकी विचारधारा में कई तरह के झोल हैं। वैसे ही झोल कांग्रेसी अवधारणाओं में हैं। कांग्रेस बीजेपी के आक्रामक-राष्ट्रवाद की आलोचना करती है, पर अपना विकल्प नहीं दे पाती है।

कश्मीर और नक्सलपंथियों को लेकर उसकी धारणा स्पष्ट नहीं है। यूपीए सरकार सामने दोनों समस्याएं आईं। कश्मीर का पत्थर मार आंदोलन यूपी सरकार के दौर में ही शुरू हुआ था। नक्सलपंथियों के खिलाफ सेना और वायुसेना के इस्तेमाल की योजना पी चिदम्बरम की थी। कदम-कदम पर नीतियाँ नहीं बदली जा सकतीं। अल्पसंख्यकों के प्रति हमदर्दी कांग्रेस की परम्परागत नीति है, जिसपर उसे चलना चाहिए। पर अल्पसंख्यकों को वोट बैंक मानने के बजाय उनकी सामाजिक स्थिति को बेहतर बनाने की नीति पर चलना चाहिए। धर्म-गुरुओं की उँगली पकड़ कर चलने के बजाय आम नागरिक की मुफलिसी और फटेहाली पर ध्यान देना चाहिए। धर्मों-सम्प्रदायों के प्रगतिशील तत्वों को बढ़ावा देना चाहिए, कट्टरपंथियों को नहीं। इसके लिए दीर्घकालीन रणनीति की दरकार है। राजनीति केवल चुनाव जीतने या हारने का नाम नहीं है। 



राष्‍ट्रीय सहारा हस्तक्षेप में प्रकाशित


1 comment:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (02-12-2018) को "अनोखा संस्मरण" (चर्चा अंक-3173) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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