Monday, June 27, 2016

डायरेक्ट डेमोक्रेसी के लिए परिपक्व समाज चाहिए

ब्रेक्जिट के बवंडर में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड केमरन को अपना पद छोड़ने की घोषणा करनी पड़ी. दुनिया भर के शेयर बाजार इस फैसले से स्तब्ध हैं. विशेषज्ञ समझने की कोशिश कर रहे हैं इसका भारत पर क्या असर पड़ेगा. बेशक यह जनता का सीधा फैसला है. पर क्या इस प्रकार के जनमत संग्रह को उचित ठहराया जा सकता है? क्या जनता इतने बड़े फैसले सीधे कर सकती है? क्या ऐसे फैसलों में व्यावहारिकता के ऊपर भावनाएं हावी होने का खतरा नहीं है? क्या दुनिया डायरेक्ट डेमोक्रेसी के द्वार पर खड़ी है? पश्चिमी देशों की जनता अपेक्षाकृत प्रबुद्ध है. उसके पास सूचनाओं को जाँचने-परखने के बेहतर उपकरण मौजूद हैं. फिर भी ऐसा लगता है कि संकीर्ण राष्ट्रवाद सिर उठा रहा है. ब्रेक्जिट के बाद यूरोप में विषाद की छाया है. कुछ लोग खुश हैं तो पश्चाताप भी कम नहीं है.
 
दुनिया की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक व्यवस्था के सदस्य होने के बावजूद जनमत संग्रह का अवधारणा पर हमने ज्यादा विचार नहीं किया. आमतौर पर हम अपने चुनावों को जनमत संग्रह का पर्याय मानते हैं. पर चुनाव और जनमत संग्रह में अंतर है. जनमत संग्रह किसी खास विषय पर जनता का सीधा फैसला है. एक तरह से प्रत्यक्ष लोकतंत्र. जबकि हम चुनाव में अपने प्रतिनिधि तय करते हैं. यानी अप्रत्यक्ष लोकतंत्र. क्या हम सीधे फैसले कर सकते हैं? यह सवाल इसलिए मौजूं है क्योंकि अरविंद केजरीवाल ने ब्रेक्जिट के फौरन बाद अपने एक ट्वीट में घोषणा की है कि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाने के लिए भी जनमत संग्रह होगा.

केजरीवाल ने यह बात पहली बार नहीं कही है. पिछले साल जुलाई में ग्रीक-जनमत संग्रह के फौरन बाद भी उन्होंने ऐसी माँग की थी. केजरीवाल की जनमत संग्रह की अवधारणा किसी से छिपी नहीं है. उनकी राजनीति के शुरुआती वर्ष में ही इसका इस्तेमाल किया गया था. सन 2013 के चुनाव के बाद दिल्ली में कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाने की बात हुई थी. तब आम आदमी पार्टी ने तकरीबन 250 जनसभाओं के माध्यम से जनता की राय लेने की कोशिश की थी कि सरकार बनानी चाहिए या नहीं. जनता को व्यवस्था से सीधे जोड़ने के तमाम उपकरणों में टाउनहॉल मीटिंग से लेकर जनमत संग्रह तक की तमाम अवधारणाएं हैं. पार्टी के प्रवक्ता आशीष खेतान ने भी इस सिलसिले में अपने ट्वीट में लिखा है, लोकतंत्र में लोगों की इच्छा सबसे बड़ी है.

सिद्धांततः इस बात से किसी को असहमति नहीं. लोकतंत्र में जनता की राय सर्वोपरि नहीं होगी, तो किसकी होगी? पर किस जनता की राय? क्या हमारी सांविधानिक व्यवस्था जनमत संग्रह की अनुमति देती है? हाल में आप सरकार ने दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाने के लिए एक विधेयक का प्रारूप तैयार किया है. यह विधेयक पास हो भी जाए, तब भी लागू नहीं हो पाएगा. तब इस माँग का मतलब क्या है? ज्यादा से ज्यादा जनमत बनाया जा सकता है. पर जनमत संग्रह जैसा यूनाइटेड किंगडम में हुआ है, वह नहीं हो सकता. यह 2020 में दिल्ली विधानसभा के चुनाव का मुद्दा हो सकता है, पर देश की राजधानी का निर्णय केवल दिल्ली के निवासी नहीं कर सकते.

कनाडा और स्विट्ज़रलैंड जैसे देशों में बहुत से फैसले जनमत संग्रह से होते हैं. हम अभी इतने मजबूत नहीं है. भारतीय राष्ट्र-राज्य के नाजुक विकास को देखते हुए अभी इसकी जरूरत नहीं लगती. देश में 1947 के बाद से कई प्रकार के अलगाववादी आंदोलन हुए हैं। पर जनमत संग्रह से उनका फैसला नहीं हुआ. सन 1947 के बाद से जम्मू-कश्मीर में जनमत संग्रह की माँग जरूर उठ रही है, जिसके पीछे संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का एक प्रस्ताव है. उस प्रस्ताव के पीछे उस वक्त भारत सरकार की राजनीतिक सहमति थी. पर वहाँ अब परिस्थितियाँ बदल चुकीं हैं.

तब से अब तक देश ने कई प्रकार के अलगाववादी आंदोलनों का सामना किया. तमिलनाडु में द्रविड़ आंदोलन, पंजाब में खालिस्तानी, मिजोरम और नगालैंड के आंदोलन. सत्तर के दशक से शुरू हुए नक्सली आंदोलन ने भी लोकतंत्र को लेकर सवाल उठाएं हैं. पर उनके लिए जनमत संग्रह की माँग नहीं आई. इसी तरह राज्यों के पुनर्गठन फैसला जनमत संग्रह से नहीं, सांविधानिक व्यवस्था से हुआ.

सन 1947 में भारत के स्वतंत्र होते ही सबसे बड़ी समस्या देशी रियासतों के विलय की थी. जूनागढ़ और हैदराबाद के शासक जनता की इच्छा के विपरीत व्यवहार करने लगे थे. जूनागढ़ में जनमत संग्रह की नौबत भी आई. बाद में गोवा और सिक्किम में परोक्ष रूप में जनता की इच्छा जानने के लिए लोकतांत्रिक व्यवस्था का सहारा लिया गया. पर हमारा लोकतंत्र अभी जनता से सीधे आदेश लेने के लिए तैयार नहीं है. देश के तमाम इलाकों में अलग राज्य बनाने की कामनाएं पनपती रहीं हैं. यदि मतदान का मौका दिया जाए तो इन कामनाओं को पंख लग जाएंगे. अभी हम जोखिम नहीं उठा सकते.

स्विट्ज़रलैंड का आकार और वहाँ का लोकतंत्र जितना परिपक्व है उसे देखते हुए छोटे सवालों पर जनमत संग्रह सम्भव है. पर भारत में यह सम्भव नहीं है. भारत के चुनाव आयोग के पास किसी मसले पर जनमत संग्रह कराने का अधिकार शामिल नहीं है. ऐसे में दिल्ली में जनमत संग्रह कराने की घोषणा करने का कोई मतलब नहीं है. दिल्ली में ऐसी माँग उठाने के पहले यह सोचना चाहिए कि जम्मू-कश्मीर में इसका क्या प्रभाव पड़ेगा. आम आदमी पार्टी ने 2013 में सरकार बनाने का फैसला करने के लिए 250 सभाएं कीं. क्या वैसी ही सभाएं सरकार के शेष फैसलों के लिए क्यों नहीं की गईं? यह तरीका व्यवहारिक नहीं है. क्या जीएसटी के फैसले के लिए जनमत संग्रह से फैसला होगा? क्या एफडीआई के सवाल पर जनता की राय ली जाएगी?

ऐसे मसलों के लिए उचित फोरम जन प्रतिनिधि सदन हैं. हमारा लोकतंत्र अभी इतना परिपक्व नहीं है कि संजीदा सवालों के फैसले सड़कों पर हों. ब्रिटेन के फैसले पर ही कई तरह के सवाल हैं. क्या एक या दो प्रतिशत जनता के झुकाव से इतना बड़ा फैसला करना उचित है? क्या जनता ने यूरोपीय संघ से हटने का निर्णय करने से पहले उसके अच्छे और बुरे परिणामों पर विचार कर लिया होगा? यह लोकतांत्रिक व्यवस्था का सवाल है. कोई फैसला करने के पहले हमें देखना होगा कि अखबारों के पन्नों, मीडिया-मंचों और नुक्कड़ों-चौराहों पर गम्भीर सवालों को लेकर विचार हो भी रहा है या नहीं. पहले विचार तो करें, फैसले उसके बाद होंगे ही.

प्रभात खबर में प्रकाशित

1 comment:

  1. जनमत का प्रावधान हमारे संविधान में ही नहीं हैं , केजरीवाल जैसे लोग जो संविधान से इतर चलने की बात करते हैं वे ही ऐसा सोच सकते हैं , दूसरी जो सब से बड़ी बात यह भी है कि हमारा लोकतंत्र अभी इतना परिपक्वनहीं हुआ है कि इस प्रकार के मामलों में जाति धर्म, क्षेत्र वाद से ऊपर उठ कर स्वतत्र मत दे सके , इसलिए भारत के संदर्भ में ऐसी बातें करना निर्रथक है व समय से पूर्व की बातें हैं

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