हिन्दू सें सुरेन्द्र का कार्टून |
ममता बनर्जी यूपीए का हिस्सा हैं और मुलायम सिंह यूपीए के हमदर्द। तमाम मौकों पर वे यूपीए का साथ देते आए हैं। राष्ट्रपति पद के लिए प्रत्याशी का नाम सर्वसम्मति से तय होना है तो ममता बनर्जी को अपने प्रत्याशियों के नाम प्रेस कांफ्रेंस में घोषित करने की ज़रूरत क्या थी? जैसा कि दिग्विजय सिंह ने कहा है कि सब मिलकर बैठेंगे, तब फैसला होगा। पर यहाँ तो यूपीए के मंच से बाहर जाकर बात हो रही है। ऐसा क्यों? प्रणब मुखर्जी का नाम अस्वीकार है तो यह बात सोनिया गांधी से कही जानी चाहिए थी। दूसरी ओर जो जानकारी सोनिया गांधी को देनी थी, वह भी ममता ने दी। सोनिया की ओर से अभी तक औपचारिक रूप से यह नहीं कहा गया था कि प्रणब मुखर्जी और हामिद अंसारी उनके प्रत्याशी हैं। यह घोषणा भी बुधवार को ममता बनर्जी ने की।
ममता बनर्जी ने हाल में रिटेल में एफडीआई, तीस्ता मामले, एनसीटीसी प्रकरण, दिनेश त्रिवेदी एपिसोड और पेंशन बिल वगैरह में सीधे-सीधे मनमोहन सिंह की सत्ता को ही चुनौती दी। हर मामले में मनमोहन सिंह को पीछे हटना पड़ा। तब क्या माना जाए कि पार्टी ही मनमोहन सिंह से नाखुश है? सत्ता के गलियारों में चर्चा पहले से है कि सरकार और पार्टी के बीच रिश्ते खराब हैं। पर पार्टी या दूसरे शब्दों में सोनिया गांधी चाहतीं तो मनमोहन को पिछले साल ही हटाया जा सकता था। सोनिया गांधी ने हाल में यूपीए की वर्षगाँठ के मौके पर और कांग्रेस वर्किंग कमेटी की मीटिंग में भी मनमोहन का समर्थन किया।
यह मान भी लें कि मनमोहन सिंह को हटाने की कामना है तो उन्हें हटाना क्या इतना आसान होगा? राष्ट्रपति चुनाव के फौरन बाद रिटेल, पेंशन, एविएशन, इंश्योरेंस, जीएसटी, डीएसटी, खाद्य सुरक्षा, भूमि अधिग्रहण और सबसे ऊपर लोकपाल बिल का मामला आएगा। उनसे निपटना आसान नहीं। देश का उद्योग-व्यापार जगत, वित्तीय संस्थाएं और इसी तरह की तमाम अदृश्य ताकतें इसे स्वीकार कर लेंगी? क्या यह बात उजागर नहीं होगी कि पॉलिसी पैरेलिसिस तो खुद अपनी पार्टी ही करा रही है? इससे बड़ा सवाल यह है कि क्या पार्टी को भी समझ में आ रहा है कि मध्यावधि चुनाव सामने हैं? क्या पार्टी चुनाव चाहती है, जिसमें ममता बनर्जी और मुलायम सिंह को तो फायदा होगा और कांग्रेस को नुकसान?
हाल में यूपीए ने ममता बनर्जी के हमलों के बरक्स मुलायम सिंह का हाथ थामा था और ऐसा लगता था कि ममता को उनकी हैसियत बताने के लिए मुलायम का साथ लिया जाएगा। पर यहाँ तो दोनों मिल गए और कांग्रेस को ही धौंसियाते नज़र आ रहे हैं। क्या यह राष्ट्रपति चुनाव के बाद की परिस्थितियों को सोचकर शुरू की गई कोई राजनीति है? व्यापक फलक पर देखने पर मनमोहन को पद से हटाने वाली बात ठीक नहीं लगती। हाल में हुई कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में आर्थिक उदारीकरण के एजेंडा को आगे बढ़ाने का फैसला किया गया था। तमाम बड़े फैसले रुके हुए हैं। अंतरराष्ट्रीय एजेंसियाँ हमारी साख घटा रही हैं। रुपया गिर रहा है, शेयर बाजार खतरे में है, मुद्रास्फीति बढ़ रही है, विकास दर घट रही है। इसे ठीक करने के लिए कुछ बड़े नीतिगत फैसले करने होंगे। इस घटनाक्रम से तो यह सम्भव नहीं लग रहा है। तब परिणाम क्या होगा? यूपीए सरकार क्या अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारेगी?
ऐसा लगता है कि अभी जो सामने आ रहा है उससे ज्यादा महत्वपूर्ण बातें वे हैं जो सामने नहीं आई हैं। राजनीति में ज्यादातर फैसले बंद कमरों में होते हैं। फिलहाल दो बातों पर हमें ध्यान देना चाहिए। एक, राष्ट्रपति चुनाव और दूसरे चुनाव के बाद की राजनीति। लगता है कि अरसे से चली आ रही राजनीतिक यथा-स्थिति टूटने वाली है। उस राजनीति को समझने के लिए यूपीए के बाहर भी जाना होगा। खासतौर से एनडीए की योजना समझनी होगी। फिलहाल एनडीए अपनी ताकत से किसी प्रत्याशी को राष्ट्रपति बनाने की स्थित में नहीं है, पर किसी किस्म की सौदेबाज़ी हुई तो वह भी उसमें भाग लेगा। हाल में जसवंत सिंह की मुलायम सिंह से हुई मुलाकात के बाद कई तरह के कयास लगाए जा रहे हैं। राष्ट्रपति के पद के अलावा उप राष्ट्रपति का पद भी है। अनुमान है कि एनडीए राष्टपति पद के लिए कांग्रेस से समझौता कर ले और उप राष्ट्रपति पद के लिए अपने प्रत्याशी का नाम आगे कर दे। या कांग्रेस कलाम के नाम को स्वीकार कर ले तो उप राष्ट्रपति पद कांग्रेस के लिए छोड़ दे। राजनीति में असंभव कुछ भी नहीं है। कांग्रेस और एनडीए के अनौपचारिक गठजोड़ को पूरी तरह खारिज नहीं किया जा सकता। ऐसे तमाम अनौपचारिक-अघोषित गठजोड़ होते रहते हैं। 1969 में कांग्रेस पार्टी के घोषित प्रत्याशी नीलम संजीव रेड्डी को निर्दलीय प्रत्याशी वीवी गिरि से पराजित होना पड़ा था।
अब हमें राष्ट्रपति चुनाव के बाद के परिदृश्य के बारे में सोचना चाहिए। सम्भव है कि लोकसभा के अगले चुनाव 2014 के पहले हों। उस चुनाव का ममता, मुलायम के अलावा जयललिता, नवीन पटनायक, नरेन्द्र मोदी, नीतीश कुमार, येदुरप्पा, चन्द्रबाबू नायडू और जगनमोहन रेड्डी से लेकर मायावती सहित तमाम उन राजनेताओं को है जो अपने-अपने हिस्से की विजय हासिल करना चाहते हैं। आंध्र विधानसभा के उप चुनावों के नतीजे आज आने वाले हैं। उनका प्रभाव यूपीए पर पड़ेगा।
सन 2009 के लोकसभा चुनाव ने कांग्रेस की किस्मत का पिटारा एकबारगी बदला था। उस जीत का संदेश यह भी था कि आर्थिक विकास की जो गति हमें पकड़ी है उसे तेज करो। बेशक उसकी तेजी में तमाम तरह के अंतर्विरोध सामने आए, पर ज्यादा बड़ा नुकसान राष्ट्रीय राजनीति को हुआ। इस दौर में आवश्यक कानूनी और नीतिगत सुधार नहीं हो पाए। यह दौर अंतरराष्ट्रीय आर्थिक असमंजसों का दौर भी है। पर हमारे लिए इसमें घबराने की बात नहीं है। इन असमंजसों का फायदा हमें ही मिलना है। चीन की कहानी भी पीछे जाने वाली है। पर वह तभी होगा जब सरकार पूरी ताकत से काम करेगी। ऐसा नहीं हो पा रहा है तो इसकी वजह केवल मनमोहन सिंह नहीं हैं। फिलहाल एक और समुद्र मंथन सामने है, जो विषपात्र और अमृत कलश दोनों को लाएगा। अमृत का महत्व तभी होता है, जब विष को धारण करने की सामर्थ्य हो।
जनवाणी में प्रकाशित
No comments:
Post a Comment