Monday, June 18, 2012

समय से सबक सीखो ममता दी

पिछले बुधवार सोनिया गांधी के साथ मुलाकात करने के बाद ममता बनर्जी जितनी ताकतवर नज़र आ रहीं थीं, उतनी ही कमज़ोर आज लग रहीं हैं। राजनीति में इस किस्म के उतार-चढ़ाव अक्सर आते हैं, पर पिछले एक अरसे से ममता बनर्जी का जो ग्राफ क्रमशः ऊपर जा रहा था, वह ठहर गया है। एक झटके में उनकी सीमाएं भी सामने आ गईं। अभी तक कांग्रेस मुलायम सिंह के मुकाबले ममता को ज्यादा महत्व दे रही थी, क्योंकि उसे पता है कि मुलायम सिंह अपनी कीमत वसूलना जानते हैं। ममता बनर्जी ने जो बाज़ी चली वह कमजोर थी। जिन एपीजे अब्दुल कलाम को वे प्रत्याशी बनाना चाहती थीं उनकी रज़ामंदी उनके पास नहीं थी। बहरहाल वे अब अकेली और मुख्यधारा की राजनीति से कटी नज़र आती हैं। बेशक उनके पास विकल्प खुले हैं। पर एक साल के मुख्यमंत्री पद और पिछले छह महीने में राष्ट्रीय राजनीति से प्राप्त अनुभवों का लाभ उन्हें उठाना चाहिए। वे देश की उन कुछ नेताओं में से एक हैं जो सिर्फ अपने दम पर राजनीति की राह बदल सकते हैं। देखना यह है कि बदलते वक्त से वे कोई सबक सीखती हैं या नहीं।

पिछले महीने बंगाल में उनकी सरकार का एक साल पूरा होने पर अंग्रेजी के एक चैनल ने एक ओपन हाउस सैशन आयोजित किया, जिसमें प्रायः नौजवानों को बुलाया गया था। उद्देश्य था कि ममता बनर्जी इनसे बात करें और उनके द्वारा उठाए गए सवालों के जवाब दें। ममता बनर्जी शुरूआती एक-दो सवालों पर सामान्य रहीं, पर जैसे ही कुछ आलोचनात्मक सवाल सामने आए वे नाराज होने लगीं। उन्होंने कार्यक्रम के दौरान ही आरोप लगाया कि इसमें बुलाए गए लोग वाममोर्चा से जुड़े हैं और माओवादी हैं। वे जानबूझकर ऐसे सवाल कर रहे हैं। देखते ही देखते वे उठीं और कार्यक्रम छोड़कर चल दीं। उनसे एक छात्रा ने बंगाल के एक मंत्री और एक सांसद के सार्वजनिक आचरण को लेकर सवाल पूछे थे। उसके कुछ दिन पहले ही एक एंग्लो इंडियन लड़की के साथ बलात्कार का मामला हुआ था, जिसे सरकार स्वीकार नहीं कर रही थी। बाद में एक महिला पुलिस अधिकारी ने उस मामले को उजाकर किया तो उसका तबादला कर दिया गया। ममता बनर्जी ने हाल में वाम मोर्चा के लोगों के सोशल बॉयकॉट का आह्वान कर रखा है। उसके पहले कार्टून प्रकरण हुआ था, जिसे लेकर पूरे देश में ममता बनर्जी की आलोचना की गई।

आवेश, भावनाएं, गुस्सा, ईमानदारी, सादगी, खुलापन और कमज़ोरों के प्रति हमदर्दी ममता बनर्जी के साथ इस तरह की बातें आसानी से जोड़ी जा सकती हैं। वे अपने किस्म की राजनेता हैं, जो तिकड़मी नहीं हैं और लड़ाई के हर मोर्चे पर सबसे आगे रहती हैं। टकराव शब्द शायद उनके लिए ही बना है और सुलह-समझौतों, समन्वय से उनका वास्ता नहीं है। उनकी खासियत है कि पल भर में उनके चेहरे पर हँसी की जगह नाराजगी आ जाती है और देखते ही देखते खुला युद्ध शुरू कर देती हैं। फायरब्रैंड, लड़ाकू, योद्धा वगैरह विशेषण उनके नाम के पहले आसानी से लगाए जा सकते हैं। सन 1991 में वे पहली बार मानव संसाधन विकास, युवा और खेल तथा महिला और बाल कल्याण राज्य मंत्री बनाई गईं। खेल नीतियों को लेकर मंत्री रहते हुए भी कोलकाता की एक रैली में सरकार पर तमाम लानतें भेजीं और इस्तीफे की घोषणा कर दी। इसके बाद उन्होंने आरोप लगाना शुरू कर दिया कि कांग्रेसपार्टी सीपीएम की चेरी है। 1996 में उन्होंने पेट्रोलियम की कीमतें बढ़ाने के खिलाफ धरना दे दिया। और 1997 में पार्टी छोड़कर अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस नाम से नई पार्टी बना ली।

वैचारिक रूप से तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस से फर्क नहीं है, पर व्यावहारिक रूप से यह वाम मोर्चा विरोधी है। बंगाल में वाममोर्चे को हरा पाना कांग्रेस के बस में नहीं था। यह ममता बनर्जी का अदम्य संघर्ष था जिसने वाममोर्चा का सूपड़ा साफ कर दिया। पर उनकी दृष्टि में राजनीति माने क्या सिर्फ इतना ही है? सन 1999 में वे भाजपा-नीत एनडीए की सरकार में शामिल हो गईं। सन 2000 में पेट्रोलियम कीमतों में वृद्धि के विरोध में उन्होंने और उनके पार्टी सहयोगी अजित कुमार पांजा ने कैबिनेट से इस्तीफा दे दिया और बाद में इस्तीफा वापस ले लिया। सन 2001 में तहलका मामला सामने आने पर फिर वे एनडीए छोड़कर बाहर चली गईं। सन 2001 में उन्होंने बंगाल में कांग्रेस के साथ मिलकर चनाव लड़ा कि शायद वाम मोर्चा परास्त हो जाए, पर ऐसा हुआ नहीं। 2004 के चुनाव के पहले वे फिर एनडीए में वापस आ गईं। मंत्री बनीं पर उसके बाद लोकसभा चुनाव में एनडीए की पराजय हो गई।

इसमें दो राय नहीं कि ममता बनर्जी मूलतः विपक्ष की राजनेता हैं। संघर्ष उनके स्वभाव में है और व्यक्तिगत जीवन में वे ईमानदार और सादगी पसंद हैं। सन 2004 से 2009 के बीच उन्होंने इस संघर्ष को निर्णायक रूप दिया। बंगाल में वाम मोर्चा सरकार के सामने नीतियों को लेकर संकट था। सीपीएम पर उद्योग विरोधी होने का लम्बा ठप्पा लगा था। बुद्धदेव दासगुप्त की सरकार के सामने तेज औद्योगीकरण की चुनौती थी। नन्दीग्राम में दस हजार जमीन पर इंडोनेशिया के सलीम ग्रुप के माध्यम से स्पेशल इकोनॉमिक ज़ोन बनाने के खिलाफ संघर्ष शुरू हुआ। दूसरी ओर सिंगुर में टाटा के कार प्लांट के लिए सरकार ने ज़मीन का अधिग्रहण हुआ। ममता बनर्जी ने इन दोनों आंदोलनों के मार्फत ग्रामीण इलाकों में अपनी जगह बनाई। भयानक खून-खराबे के बीच उनका माओवादी संगठनों के साथ भी सम्पर्क रहा। पर वे समझ नहीं पाईं कि संघर्ष की इस कथा में तब किस किस्म के मोड़ आएंगे जब वे खुद शासन में आएंगी। यह अंतर्विरोध भी वैसा ही है जैसा वामपंथियों का अंतर्विरोध था। 1967 के पहले वे किसानों के जिस आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे, उनके शासन में आने के बाद वही आंदोलन नक्सलपंथी आंदोलन के रूप में उनके सामने चुनौती बनकर खड़ा हो गया। आज ममता को माओवादी खराब लग रहे हैं। जबकि वे वैसे ही हैं जैसे वे थे।

ममता बनर्जी के करिश्मे को खारिज नहीं किया जा सकता। खासतौर से गरीबों, भूमिहीनों और किसानों के पक्ष में लड़ाई लड़ रहीं हैं। इस मामले में उनकी अपील बनती जा रही है। वे बंगाल की राजनेता हैं, पर उनकी अपील बंगाल के बाहर भी है। इस साल पाँच राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में तृणमूल कांग्रेस अपने क्षेत्र का विस्तार करने की कोशिश की। बंगाल के बाहर उन्हें मणिपुर में सात सीटें मिलीं जो छोटी सफलता नहीं है। पार्टी ने आने वाले समय में हरियाणा और हिमाचल प्रदेश में भी चुनाव मैदान में उतरने की घोषणा की है। उत्तर प्रदेश में मथुरा जिले की मांट सीट पर तृणमूल कांग्रेस प्रत्याशी श्याम सुन्दर शर्मा की जीत काफी हद तक प्रत्याशी की अपनी जीत है, पर ममता बनर्जी के कदम प्रतीक रूप में उत्तर प्रदेश में पड़े हैं। राष्ट्रपति चुनाव के प्रत्याशी को लेकर कुछ लोग मुलायम सिंह के विचार परिवर्तन को ममता बनर्जी के साथ धोखा कह रहे हैं। अलबत्ता ममता ने मुलायम की आलोचना नहीं की है। पर मांट में मुलायम सिंह की पार्टी के तीसरे नम्बर पर रह गई है। बंगाल में बांकुड़ा और दासपुर की सीटें फिर से जीतकर उन्होंने इतना साबित किया बंगाल में उनका दबदबा कायम है।

ममता बनर्जी की राजनीति की शुरुआत शहरों से हुई थी। बंगाल के शहरों में उनके समर्थकों ने माहौल बनाया था। वह बंगाल का मध्य वर्ग था जो वामपंथी राजनीति से आजिज आ गया था। शहरों का मध्यवर्ग अब ममता से नाराज़ नजर आता है। पर ग्रामीण इलाकों में उनकी पकड़ कमज़ोर नहीं हुई है। इसकी वजह है ममता की दरिद्र-मुखी छवि। गरीबों के बीच उनकी लोकप्रियता बढ़ी ही होगी। इस मामले में देश का कोई राजनेता ममता की बराबरी नहीं कर सकता। पर मीडिया और शहरी मध्यवर्ग ममता से निराश है। प्रणव मुखर्जी की दावेदारी के विरोध में ममता बनर्जी ने जिस तेजी से कहानी बदली थी उसी तेजी से कांग्रेस ने प्रणव मुखर्जी के नाम की घोषणा करके मामले को सम्हाल लिया। पर ममता के कारण कुछ विसंगतियाँ उजागर हुईं हैं। मुलायम सिंह और मायावती एक पाले में खड़े हैं। ये विसंगतियाँ आने वाले समय में कांग्रेस के लिए घातक होंगी। इसमें ममता बनर्जी की भूमिका महत्वपूर्ण होगी, पर उसके पहले उन्हें अपनी रीति-नीति बदलनी होगी।

सी एक्सप्रेस में प्रकाशित

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