यह भारत की विकास कथा का अंत है। एक वामपंथी पत्रिका की कवर स्टोरी का शीर्षक है। आवरण कथा के लेखक की मान्यता है कि आर्थिक विकास में लगे ब्रेक का कारण यूरोपीय आर्थिक संकट नहीं देश की नीतियाँ हैं। उधर खुले बाजार की समर्थक पत्रिका इकोनॉमिस्ट की रिपोर्ट का शीर्षक है ‘फेयरवैल टु इनक्रेडिबल इंडिया’ अतुल्य भारत को विदा। वामपंथी और दक्षिणपंथी एक साथ मिलकर सरकार को कोस रहे हैं। देश की विकास दर सन 2011-12 की अंतिम तिहाई में 5.3 फीसदी हो गई। पिछले सात साल में ऐसा पहली बार हुआ। पूरे वित्त वर्ष में यह 7 फीसदी से नीचे थी। निर्माण क्षेत्र में यह 3 फीसदी थी जो इसके एक साल पहले 9 फीसदी हुआ करती थी। राष्ट्रीय उपभोक्ता मूल्य सूचकांक अप्रेल में 10.4 प्रतिशत हो गया, जो मार्च में 8.8 और फरवरी में 7.7 था। विदेश व्यापार में घाटा एक साल में 56 फीसदी बढ़ गया। विदेशी मुद्रा कोष में लगातार गिरावट हो रही है। जो कोष 300 से काफी ऊपर होता था, वह 25 मई को 290 अरब डॉलर रह गया है। रुपए की कीमत लगातार गिर रही है।
क्या यह अंतरराष्ट्रीय आर्थिक संकट का परिणाम है? क्या वजह थी कि सन 2008 की अमेरिकी आर्थिक मंदी का हमने सामना कर लिया, पर इधर हमारे छक्के छूट रहे हैं? पिछले साल मॉनसून अच्छा था। खेती अच्छी रही। इस साल का पता नहीं, पर इस मोर्चे पर थोड़ी सी भी गड़बड़ी रही तो दिक्कत पैदा हो जाएगी। देश ने विकास की जो गति पकड़ ली थी अब उसका पहिया धीमा हुआ तो उसके परिणाम भयावह होंगे? ऐसा नहीं कि इस संकट के पीछे यूरोपीय आर्थिक संकट नहीं, पर केवल वही एक कारण नहीं है। बेशक निर्यात के मोर्चे पर हम पिछड़े हैं। विदेशी निवेशकों ने डॉलर वापस निकाले हैं। इससे डॉलर की माँग बढ़ी है और उसकी कीमत चढ़ी है। इसका सबसे बड़ा असर पेट्रोलियम की कीमतों पर पड़ा। साथ में शेयर बाजार पर भी। विदेशी संस्थागत निवेशक अक्सर ऐसे नाजुक मौकों पर मुनाफा कमा कर निकल लेते हैं। वोडाफोन पर टैक्स के मामले को लेकर विदेशी निवेशकों ने भारतीय टैक्स व्यवस्था को लेकर नाराज़गी ज़ाहिर की है।
बेशक यह आर्थिक संकट है, पर इसके पीछे देश का राजनीतिक संकट भी एक बड़ा कारण है। पिछले दो दशक से भारतीय राज व्यवस्था डाँवाडोल चल रही है। यों तो यह कहानी 1971 तक जाती है जब इंदिरा गांधी गरीबी हटाओ के नारे के साथ अपार बहुमत लेकर दिल्ली की गद्दी पर आईं, पर गरीबी को हटा नहीं पाईं। उस दौर का राजनीतिक दोष यह था कि कांग्रेस पार्टी का आंतरिक लोकतंत्र ध्वस्त हो गया। दुर्भाग्य से कांग्रेस पार्टी का कोई विकल्प सामने नहीं था। 1971 में अपार जन समर्थन के सहारे आई इंदिरा सरकार को राजनीतिक विरोध का सामना करने के लिए इमर्जेंसी जैसी संवैधानिक व्यवस्था का सहारा लेना पड़ा। साठ और सत्तर की राजनीतिक पहेलियों के जवाब आज तक नहीं मिले हैं। यह संयोग नहीं है कि इन्हीं पहेलियों से घिरी केन्द्र सरकार को 1991 में उदारीकरण का सहारा लेना पड़ा। तब से अब तक हमने कभी अपनी आर्थिक व्यवस्था और उसे संचालित करने वाली राजनीतिक व्यवस्था पर विचार नहीं किया। आज गठबंधन की जिस राजनीति के नाम पर तमाम आर्थिक सवाल पीछे चले गए हैं वह पिछले तकरीबन चालीस साल से हमें परेशान कर रही है।
हाल में पाँच प्रदेशों के चुनावों में पिटने के बाद यूपीए सरकार अपने आर्थिक एजेंडा को भूल गई। पिछले गुरुवार को कैबिनेट पेंशन विधेयक के प्रस्ताव को पास करने वाली थी, पर ममता बनर्जी ने सीधे ना कर दी और यह मामला ठंडे बस्ते में चला गया। कहना मुश्किल है कि सरकार रिटेल में विदेशी पूँजी के निवेश, इंश्योंरेंस, एविएशन, सब्सिडी और इनफ्रास्ट्रक्चर के अपने कार्यक्रमों को किस तरह आगे लेकर जाएगी। देश के वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी इस वक्त राष्ट्रपति भवन में शिफ्ट करने की तैयारी में नज़र आते हैं। पार्टी का यह फैसला है या नहीं अभी कहना मुश्किल है। एक असमंजस पूरी व्यवस्था पर हावी है। ज्यादातर बड़े फैसले किसी न किसी वजह से टलते जा रहे हैं।
पिछले सोमवार को कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक के बाद सरकार आर्थिक उदारीकरण के एजेंडा पर वापस आती नज़र आई। बुधवार को प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में इन्फ्रास्ट्रक्चर से जुड़े विभागों के मंत्रियों की बैठक में तमाम कामों में तेजी लाने का फैसला हुआ। तकरीबन साढ़े नौ हजार किमी लम्बे राजमार्गों के निर्माण और 4360 किमी लम्बे राजमार्गों के पुनरुद्धार का काम इस साल शुरू होना है। दो नए ग्रीनफील्ड हवाई अड्डों, दो नए बंदरगाहों और कम से कम 18,000 मेगावॉट बिजली उत्पादन की अतिरिक्त क्षमता का सृजन होना है। बुलेट ट्रेन चलाने के लिए एक नए संगठन की स्थापना होनी है। हजारों लाखों करोड़ की परियोजनाएं पिछले कुछ समय से स्वीकृति के लिए पड़ी हैं। उड्डयन, इंश्योरेंस, पेंशन और रिटेल से जुड़े फैसलों की घड़ी आ गई है। डीज़ल और रसोई गैस से सब्सिडी खत्म करने का मौका आ गया है। पर लगता नहीं कि सरकार राजनीतिक रूप से जटिल इन फैसलों को कर पाएगी। दूसरी ओर सोनिया गांधी की राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने खाद्य सुरक्षा और भूमि अधिग्रहण बिल जैसे लोक-लुभावन कार्यों का सुझाव दिया है। उन्हें आगे बढ़ा पाने की सामर्थ्य भी सरकार में दिखाई नहीं पड़ती। राजनीतिक रूप से संवेदनशील लोकपाल विधेयक राज्यसभा की प्रवर समिति को सौंपकर सरकार ने कुछ देर के लिए खुद को बचा लिया है, पर इसका दूरगामी नुकसान होगा। दो रोज़ बाद आंध्र प्रदेश से विधान सभा उप चुनावों के परिणाम आने वाले हैं जो यूपीए की परेशानी का बड़ा कारण बनेंगे।
यह केवल यूपीए की कहानी नहीं है। देश के राजनीतिक दल समस्याओं के समाधान नहीं चाहते, बल्कि समस्याएं बने रहने में उन्हें लाभ नज़र आता है। पिछले छह महीने में देखें तो किसी न किसी किस्म के राजनीतिक विरोध के कारण बड़े फैसले वापस हुए हैं। लगता नहीं कि पेंशन, इंश्योरेंस, बैंकिंग और टैक्स सुधार के कानूनों को सरकार संसद से पास करा पाएगी। जीएसटी और डीएसटी को लागू कराने में दिक्कतें हैं। कांग्रेस कार्यसमिति को जिस बात की ओर ध्यान देना चाहिए था वह राजनीतिक पक्ष था। पाँच राज्यों के विधानसभा चुनावों में पराजय को लेकर एंथनी रपट परविचार-विमर्श नहीं हुआ। इन हालात में पार्टी किस विचार को लेकर आगे जाने वाली है? राहुल गांधी को नेतृत्व सम्हालना है या नहीं? सम्हालना है तो कब? राष्ट्रपति चुनाव में पार्टी का प्रत्याय़ी कौन है? पार्टी को खुद से ये सवाल करने चाहिए।
रिजर्व बैंक ने संकेत दिया है कि ब्याज की दरों में कमी होगी। इस सम्भावना से शेयर बाजार में खुशी की लहर देखी गई। पर दूसरी ओर मुद्रास्फीति बढ़ने का खतरा है। ब्याज की दरें कम करके भवन निर्माण और कारों या मोटर सायकिलों की उत्पादकता कुछ देर के लिए बढ़ सकती है, पर दीर्घकालीन रोजगारों का क्या होगा? हर साल लाखों बच्चे पढ़कर बाहर आ रहे हैं। उनके लिए रोजगारों की संख्या बढ़ाने की ज़रूरत है। अब खतरा इस बात का है कि विकास दर और गिरी तो रोजगारों पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। वित्तमंत्री ने किफायतशारी के कदम उठाने की घोषणा की है। इसका मतलब है सब्सिडी में कमी। शायद मनरेगा जैसे कार्यक्रमों पर भी असर पड़े।
पूरी व्यवस्था दोराहे पर खड़ी है। हमें उदारीकरण चाहिए या नहीं? इकोनॉमिस्ट का कहना है कि भारतीय राजनेता मानते हैं कि वोटर को नीची विकास दर से फर्क नहीं पड़ता। उसे सरकारी प्रचार सामग्री, अगले जून का भोजन, क्रिकेट और धर्म चाहिए। पर क्या ऐसा है? हाल में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पंजाब के परिणामों से तो लगता है कि वोटर आर्थिक प्रगति चाहता है। इस प्रगति का मतलब क्या है? पिछले सात-आठ साल के विकास की गति से क्या ग्रामीण स्तर पर गरीबीमें कमी नहीं हुई? इसे लेकर कई तरह की धारणाएं हैं। बेशक सारी व्यवस्था दो दिन में नहीं बदलेगी, पर आर्थिक गतिविधियों के रुकने का फायदा भी नहीं है। सरकार इस लिए होती है कि वह देखे कि आर्थिक विकास का फायदा नीचे तक पहुँच रहा है या नहीं। साथ ही यह भी कि उदारीकरण का मतलब चोरी और लूट-खसोट नहीं है। इसमें आर्थिक समझ के साथ राजनीतिक सूझ-बूझ की ज़रूरत भी है। भारत की कथा इतनी जल्दी खत्म नहीं होगी।
स्वतंत्र भारत में प्रकाशित
क्या यह अंतरराष्ट्रीय आर्थिक संकट का परिणाम है? क्या वजह थी कि सन 2008 की अमेरिकी आर्थिक मंदी का हमने सामना कर लिया, पर इधर हमारे छक्के छूट रहे हैं? पिछले साल मॉनसून अच्छा था। खेती अच्छी रही। इस साल का पता नहीं, पर इस मोर्चे पर थोड़ी सी भी गड़बड़ी रही तो दिक्कत पैदा हो जाएगी। देश ने विकास की जो गति पकड़ ली थी अब उसका पहिया धीमा हुआ तो उसके परिणाम भयावह होंगे? ऐसा नहीं कि इस संकट के पीछे यूरोपीय आर्थिक संकट नहीं, पर केवल वही एक कारण नहीं है। बेशक निर्यात के मोर्चे पर हम पिछड़े हैं। विदेशी निवेशकों ने डॉलर वापस निकाले हैं। इससे डॉलर की माँग बढ़ी है और उसकी कीमत चढ़ी है। इसका सबसे बड़ा असर पेट्रोलियम की कीमतों पर पड़ा। साथ में शेयर बाजार पर भी। विदेशी संस्थागत निवेशक अक्सर ऐसे नाजुक मौकों पर मुनाफा कमा कर निकल लेते हैं। वोडाफोन पर टैक्स के मामले को लेकर विदेशी निवेशकों ने भारतीय टैक्स व्यवस्था को लेकर नाराज़गी ज़ाहिर की है।
बेशक यह आर्थिक संकट है, पर इसके पीछे देश का राजनीतिक संकट भी एक बड़ा कारण है। पिछले दो दशक से भारतीय राज व्यवस्था डाँवाडोल चल रही है। यों तो यह कहानी 1971 तक जाती है जब इंदिरा गांधी गरीबी हटाओ के नारे के साथ अपार बहुमत लेकर दिल्ली की गद्दी पर आईं, पर गरीबी को हटा नहीं पाईं। उस दौर का राजनीतिक दोष यह था कि कांग्रेस पार्टी का आंतरिक लोकतंत्र ध्वस्त हो गया। दुर्भाग्य से कांग्रेस पार्टी का कोई विकल्प सामने नहीं था। 1971 में अपार जन समर्थन के सहारे आई इंदिरा सरकार को राजनीतिक विरोध का सामना करने के लिए इमर्जेंसी जैसी संवैधानिक व्यवस्था का सहारा लेना पड़ा। साठ और सत्तर की राजनीतिक पहेलियों के जवाब आज तक नहीं मिले हैं। यह संयोग नहीं है कि इन्हीं पहेलियों से घिरी केन्द्र सरकार को 1991 में उदारीकरण का सहारा लेना पड़ा। तब से अब तक हमने कभी अपनी आर्थिक व्यवस्था और उसे संचालित करने वाली राजनीतिक व्यवस्था पर विचार नहीं किया। आज गठबंधन की जिस राजनीति के नाम पर तमाम आर्थिक सवाल पीछे चले गए हैं वह पिछले तकरीबन चालीस साल से हमें परेशान कर रही है।
हाल में पाँच प्रदेशों के चुनावों में पिटने के बाद यूपीए सरकार अपने आर्थिक एजेंडा को भूल गई। पिछले गुरुवार को कैबिनेट पेंशन विधेयक के प्रस्ताव को पास करने वाली थी, पर ममता बनर्जी ने सीधे ना कर दी और यह मामला ठंडे बस्ते में चला गया। कहना मुश्किल है कि सरकार रिटेल में विदेशी पूँजी के निवेश, इंश्योंरेंस, एविएशन, सब्सिडी और इनफ्रास्ट्रक्चर के अपने कार्यक्रमों को किस तरह आगे लेकर जाएगी। देश के वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी इस वक्त राष्ट्रपति भवन में शिफ्ट करने की तैयारी में नज़र आते हैं। पार्टी का यह फैसला है या नहीं अभी कहना मुश्किल है। एक असमंजस पूरी व्यवस्था पर हावी है। ज्यादातर बड़े फैसले किसी न किसी वजह से टलते जा रहे हैं।
पिछले सोमवार को कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक के बाद सरकार आर्थिक उदारीकरण के एजेंडा पर वापस आती नज़र आई। बुधवार को प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में इन्फ्रास्ट्रक्चर से जुड़े विभागों के मंत्रियों की बैठक में तमाम कामों में तेजी लाने का फैसला हुआ। तकरीबन साढ़े नौ हजार किमी लम्बे राजमार्गों के निर्माण और 4360 किमी लम्बे राजमार्गों के पुनरुद्धार का काम इस साल शुरू होना है। दो नए ग्रीनफील्ड हवाई अड्डों, दो नए बंदरगाहों और कम से कम 18,000 मेगावॉट बिजली उत्पादन की अतिरिक्त क्षमता का सृजन होना है। बुलेट ट्रेन चलाने के लिए एक नए संगठन की स्थापना होनी है। हजारों लाखों करोड़ की परियोजनाएं पिछले कुछ समय से स्वीकृति के लिए पड़ी हैं। उड्डयन, इंश्योरेंस, पेंशन और रिटेल से जुड़े फैसलों की घड़ी आ गई है। डीज़ल और रसोई गैस से सब्सिडी खत्म करने का मौका आ गया है। पर लगता नहीं कि सरकार राजनीतिक रूप से जटिल इन फैसलों को कर पाएगी। दूसरी ओर सोनिया गांधी की राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने खाद्य सुरक्षा और भूमि अधिग्रहण बिल जैसे लोक-लुभावन कार्यों का सुझाव दिया है। उन्हें आगे बढ़ा पाने की सामर्थ्य भी सरकार में दिखाई नहीं पड़ती। राजनीतिक रूप से संवेदनशील लोकपाल विधेयक राज्यसभा की प्रवर समिति को सौंपकर सरकार ने कुछ देर के लिए खुद को बचा लिया है, पर इसका दूरगामी नुकसान होगा। दो रोज़ बाद आंध्र प्रदेश से विधान सभा उप चुनावों के परिणाम आने वाले हैं जो यूपीए की परेशानी का बड़ा कारण बनेंगे।
यह केवल यूपीए की कहानी नहीं है। देश के राजनीतिक दल समस्याओं के समाधान नहीं चाहते, बल्कि समस्याएं बने रहने में उन्हें लाभ नज़र आता है। पिछले छह महीने में देखें तो किसी न किसी किस्म के राजनीतिक विरोध के कारण बड़े फैसले वापस हुए हैं। लगता नहीं कि पेंशन, इंश्योरेंस, बैंकिंग और टैक्स सुधार के कानूनों को सरकार संसद से पास करा पाएगी। जीएसटी और डीएसटी को लागू कराने में दिक्कतें हैं। कांग्रेस कार्यसमिति को जिस बात की ओर ध्यान देना चाहिए था वह राजनीतिक पक्ष था। पाँच राज्यों के विधानसभा चुनावों में पराजय को लेकर एंथनी रपट परविचार-विमर्श नहीं हुआ। इन हालात में पार्टी किस विचार को लेकर आगे जाने वाली है? राहुल गांधी को नेतृत्व सम्हालना है या नहीं? सम्हालना है तो कब? राष्ट्रपति चुनाव में पार्टी का प्रत्याय़ी कौन है? पार्टी को खुद से ये सवाल करने चाहिए।
रिजर्व बैंक ने संकेत दिया है कि ब्याज की दरों में कमी होगी। इस सम्भावना से शेयर बाजार में खुशी की लहर देखी गई। पर दूसरी ओर मुद्रास्फीति बढ़ने का खतरा है। ब्याज की दरें कम करके भवन निर्माण और कारों या मोटर सायकिलों की उत्पादकता कुछ देर के लिए बढ़ सकती है, पर दीर्घकालीन रोजगारों का क्या होगा? हर साल लाखों बच्चे पढ़कर बाहर आ रहे हैं। उनके लिए रोजगारों की संख्या बढ़ाने की ज़रूरत है। अब खतरा इस बात का है कि विकास दर और गिरी तो रोजगारों पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। वित्तमंत्री ने किफायतशारी के कदम उठाने की घोषणा की है। इसका मतलब है सब्सिडी में कमी। शायद मनरेगा जैसे कार्यक्रमों पर भी असर पड़े।
पूरी व्यवस्था दोराहे पर खड़ी है। हमें उदारीकरण चाहिए या नहीं? इकोनॉमिस्ट का कहना है कि भारतीय राजनेता मानते हैं कि वोटर को नीची विकास दर से फर्क नहीं पड़ता। उसे सरकारी प्रचार सामग्री, अगले जून का भोजन, क्रिकेट और धर्म चाहिए। पर क्या ऐसा है? हाल में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पंजाब के परिणामों से तो लगता है कि वोटर आर्थिक प्रगति चाहता है। इस प्रगति का मतलब क्या है? पिछले सात-आठ साल के विकास की गति से क्या ग्रामीण स्तर पर गरीबीमें कमी नहीं हुई? इसे लेकर कई तरह की धारणाएं हैं। बेशक सारी व्यवस्था दो दिन में नहीं बदलेगी, पर आर्थिक गतिविधियों के रुकने का फायदा भी नहीं है। सरकार इस लिए होती है कि वह देखे कि आर्थिक विकास का फायदा नीचे तक पहुँच रहा है या नहीं। साथ ही यह भी कि उदारीकरण का मतलब चोरी और लूट-खसोट नहीं है। इसमें आर्थिक समझ के साथ राजनीतिक सूझ-बूझ की ज़रूरत भी है। भारत की कथा इतनी जल्दी खत्म नहीं होगी।
स्वतंत्र भारत में प्रकाशित
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