नेपाल के गणतांत्रिक लोकतंत्र का सपना अचानक टूटता नज़र आ रहा है। सारे रास्ते बन्द नहीं हुए हैं, पर मई के पहले हफ्ते में जो उम्मीदें बनी थीं, वे बिखर गई हैं। देश के पाँचवें गणतंत्र दिवस यानी 27 मई को समारोहों की झड़ी लगने के बजाय, असमंजस और अनिश्चय के बादल छाए रहे। उम्मीद थी कि उस रोज नया संविधान लागू हो जाएगा और एक नई अंतरिम सरकार चुनाव की घोषणा करेगी। ऐसा नहीं हुआ, बल्कि संविधान सभा का कार्यकाल खत्म हो गया। और एक अंतरिम प्रधानमंत्री ने नई संविधान सभा के लिए चुनाव की घोषणा कर दी। पिछले चार साल की जद्दो-जेहद और तकरीबन नौ अरब रुपए के खर्च के बाद नतीज़ा सिफर रहा। चार साल के विचार-विमर्श के बावजूद तमाम राजनीतिक शक्तियाँ सर्व-स्वीकृत संविधान बनाने में कामयाब नहीं हो पाईं हैं। यह संविधान दो साल पहले ही बन जाना चाहिए था। दो साल में काम पूरा न हो पाने पर संविधान सभा का कार्यकाल दो साल के लिए और बढ़ाया गया। इन दो साल यानी 730 दिन में संविधान सभा सिर्फ 101 दिन ही बैठक कर पाई। विडंबना यह है कि मसला बेहद मामूली जगह पर जाकर अटका। मसला यह है कि कितने प्रदेश हों और उनके नाम क्या हों, इसे लेकर आम राय नहीं बन पाई।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार संविधान सभा का कार्यकाल अब और आगे नहीं बढ़ाया जा सकता था। 3 मई की रात सभी बड़ी राजनीतिक पार्टियों के मंत्रियों ने सरकार से इस्तीफा देकर माओवादी नेता बाबूराम भट्टराई के नेतृत्व में अंतरिम सरकार गठित की थी। वह अंतरिम सरकार ही थी। राष्ट्रपति रामबरन यादव ने भट्टराई को केयर टेकर प्रधानमंत्री घोषित किया है। चुनाव का एकतरफा फैसला फैसला करके एक ओर उन्होंने उस आम सहमति को खत्म कर दिया जो पिछले कुछ समय से नज़र आ रही थी। सहमति इस बात पर बनी थी कि बाबूराम भट्टराई की सरकार 27 मई के पहले नया संविधान लागू होने तक रहेगी। इसके बाद नेपाली कांग्रेस के नेतृत्व में एक और अंतरिम सरकार आएगी जो नई संवैधानिक व्यवस्थाओं के अंतर्गत चुनाव वगैरह का रास्ता खोलेगी। नया संविधान लागू करने के लिए राष्ट्रीय एकता वाली सरकार के गठन के लिए पांच सूत्रीय समझौते पर सहमति हुई थी।
27 मई की आधी रात तक इस बात की कोशिश हो रही थी कि जितने पर भी सहमति है उतने संविधान को स्वीकार करके अनसुलझे मामलों को नई संसद से पास करा लिया जाए। यों भी प्रदेशों का पुनर्गठन संविधान का कोर मसला नहीं था। भारत में संविधान लागू होने के एक दशक बाद राज्य पुनर्गठन आयोग ने इस काम को पूरा किया। और आज भी नए राज्य बन रहे हैं। ऐसा नेपाल में भी हो सकता है। इस वक्त इस मसले पर जोर देने से कुछ ऐसे विवाद खड़े होंगे, जिनसे मूल उद्देश्य को धक्का लगेगा। मसलन कम्युनिस्ट पार्टी एमाले के जनजातीय नेता चाहते हैं कि जनजातीय पहचान के आधार पर राज्यों का निर्माण हो। ऐसा नहीं हुआ तो वे नई पार्टी बनाने की धमकी दे रहे हैं। इसी तरह माओवादी पार्टी में किरण वैद्य के नेतृत्व में एक धड़ा सर्वहारा की तानाशाही वाली व्यवस्था चाहता है। वे चाहते हैं कि पुष्प दहल प्रचंड पार्टी प्रमुख के पद को छोड़ें। ऐसा नहीं हुआ तो माओवादी पार्टी दोफाड़ हो जाएगी।
सवाल यह है कि सेना के पुनर्गठन और दूसरे महत्वपूर्ण मुद्दों पर सहमति बनाने में कामयाब होने वाली संविधान सभा राज्यों के सवाल पर सहमति क्यों नहीं बना सकी? प्रदेशों को जातीय आधार पर तय करने की सबसे बड़ी समर्थक पार्टी माओवादी है। वह चाहती है कि राज्यों के नाम और भौगोलिक सीमाएं उनकी बहुसंख्यक जातियों के नाम के आधार पर तय किए जाएं। मतभेद के पीछे नेताओं का अहम भी एक वजह है। कभी बाबूराम भट्टराई के साथी रहे और माओवादी पार्टी के संस्थापको में से एक मात्रिका यादव कहते हैं, "इस स्थिति के लिए बाबूराम भट्टराई और प्रचंड मुख्य रूप से जिम्मेदार हैं।“ एमाले और नेपाल कांग्रेस राज्य पुनर्गठन के पक्ष में थे ही नहीं।
15 पार्टियों की गठबंधन सरकार में कई जातीय गुटों के प्रतिनिधि शामिल हैं। उनकी अगुआई करनेवाले माओवादियों की मांग है कि प्रांतों का गठन और नामकरण ऐसा हो जिससे कि उन क्षेत्रों के बहुसंख्यक जातीय गुटों की पहचान प्रकट हो सके। नेपाली कांग्रेस और एमाले का कहना है कि इससे सांप्रदायिकता और अलगाववाद के बीज पड़ेंगे। और यह नज़र भी आ रहा है। यह भी स्पष्ट हो रहा है कि 27 मई को संविधान लागू न हो पाने के पीछे माओवादी नेताओं की भूमिका है। माओवादी नेता प्रचंड संविधान सभा की विवाद निस्तारण समिति के कन्वीनर थे। वे कोशिश करते तो इस मामले को सुलझाया जा सकता था। बाबूराम भट्टराई ने इस बीच एकतरफा तरीके से चुनाव की तिथि 22 नवम्बर घोषित कर दी। देश की चारों प्रमुख राजनीतिक ताकतें अंतर्विरोधों की शिकार हैं। देश में मई 2010 तक संविधान तैयार हो जाना चाहिए था, पर संविधान सभा का कार्यकाल चार बार बढ़ाया गया और हासिल कुछ नहीं हुआ।
27 मई को संवैधानिक रास्ता साफ न होने के बाद नेपाल के दोनों बड़े पड़ोसियों भारत और चीन ने उम्मीद ज़ाहिर की कि जल्द ही यह देश लोकतांत्रिक तरीके से अपनी समस्याओं के समाधान खोज लेगा। फिलहाल माओवादी नेतृत्व में हिंसा और अराजकता शुरू होने का अंदेशा नहीं है। पूर्व विद्रोहियों को सेना में जगह दी जा चुकी है। अंदेशा सांप्रदायिक हिंसा का है। परस्पर विरोधी माँगें लेकर लोग सड़कों पर उतर रहे हैं। नए संघीय ढांचे को जातीय आधार पर तैयार किया जाए या नहीं, इसे लेकर मतभेद हैं।
नई संविधान सभा के चुनाव कराना क्या कानूनन सही है? इस सवाल का जवाब देने की स्थिति में कोई नहीं है। बहरहाल भट्टराई को इस चुनाव से ही उम्मीद है क्योंकि तमाम राजनीतिक ताकतों के लिए जातीय पहचान एक आकर्षक नारा है। खासतौर से मधेशी इलाके में इस माँग का जबर्दस्त समर्थन है।
उच्चतम न्यालय ने एक बार ऐसी सलाह दी थी कि बेहतर हो कि नए चुनाव की घोषणा कर दी जे। पर अंतरिम संविधान में संविधान सभा का चुनाव सिर्फ एक बार कराने की बात है। दूसरे चुनाव का फैसला होना भी था तो वह संसद को करना चाहिए था। पर वह तो भंग हो गई है। और अब जो स्थिति है उसमें सभी पार्टियों की रज़ामंदी के बगैर कोई फैसला नहीं हो पाएगा। कोई चुनी हुई संस्था न होने के कारण चुनाव करवाने के लिए जरुरी नियम बनाना दिक्कत तलब होगा। विपक्षी पार्टियों का आरोप है कि प्रधानमंत्री ने मौजूदा संविधान सभा को ही अंतरिम संसद मान लेने की उनकी अपील को मानने से इनकार कर दिया। यह संवैधानिक संशोधन से हो सकता था। बाबूराम भट्टराई ने एकतरफा फैसला करके शेष दलों को अपने खिलाफ कर लिया, जबकि इस वक्त सबसे बड़ी ज़रूरत सर्वानुमति से काम करने की थी। अब नेपाली कांग्रेस और सीपीएन-यूएमएल सहित पाँच दलों ने प्रधानमंत्री के फैसले को चुनौती देते हुए राष्ट्रपति से अपील की है। विपक्ष का तर्क है कि संविधान सभा के भंग होते ही भट्टराई का प्रधानमंत्री पद पर बने रहना स्वतः समाप्त हो गया। यों भी 3 मई को समझौते के तहत उन्हें सिर्फ 27 मई तक प्रधानमंत्री पद पर रहना था। एक खतरा यह है कि अब राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के बीच सत्ता संघर्ष छिड़ सकता है। अंतरिम संविधान में दोनों को कुछ आपात अधिकार प्राप्त हैं। विडंबना है कि लोकतांत्रिक रास्ता जातीय और साम्प्रदायिक गलियों से होकर गुजर रहा है। भारतीय परिस्थितियों की तुलना इससे करें तो पता लगेगा कि हमारे नेताओं ने कितनी कुशलता से इस देश को संकीर्ण पहचानों के दायरे से बाहर निकाला। नेपाल को भी देखना चाहिए। सी एक्सप्रेस में प्रकाशित
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार संविधान सभा का कार्यकाल अब और आगे नहीं बढ़ाया जा सकता था। 3 मई की रात सभी बड़ी राजनीतिक पार्टियों के मंत्रियों ने सरकार से इस्तीफा देकर माओवादी नेता बाबूराम भट्टराई के नेतृत्व में अंतरिम सरकार गठित की थी। वह अंतरिम सरकार ही थी। राष्ट्रपति रामबरन यादव ने भट्टराई को केयर टेकर प्रधानमंत्री घोषित किया है। चुनाव का एकतरफा फैसला फैसला करके एक ओर उन्होंने उस आम सहमति को खत्म कर दिया जो पिछले कुछ समय से नज़र आ रही थी। सहमति इस बात पर बनी थी कि बाबूराम भट्टराई की सरकार 27 मई के पहले नया संविधान लागू होने तक रहेगी। इसके बाद नेपाली कांग्रेस के नेतृत्व में एक और अंतरिम सरकार आएगी जो नई संवैधानिक व्यवस्थाओं के अंतर्गत चुनाव वगैरह का रास्ता खोलेगी। नया संविधान लागू करने के लिए राष्ट्रीय एकता वाली सरकार के गठन के लिए पांच सूत्रीय समझौते पर सहमति हुई थी।
27 मई की आधी रात तक इस बात की कोशिश हो रही थी कि जितने पर भी सहमति है उतने संविधान को स्वीकार करके अनसुलझे मामलों को नई संसद से पास करा लिया जाए। यों भी प्रदेशों का पुनर्गठन संविधान का कोर मसला नहीं था। भारत में संविधान लागू होने के एक दशक बाद राज्य पुनर्गठन आयोग ने इस काम को पूरा किया। और आज भी नए राज्य बन रहे हैं। ऐसा नेपाल में भी हो सकता है। इस वक्त इस मसले पर जोर देने से कुछ ऐसे विवाद खड़े होंगे, जिनसे मूल उद्देश्य को धक्का लगेगा। मसलन कम्युनिस्ट पार्टी एमाले के जनजातीय नेता चाहते हैं कि जनजातीय पहचान के आधार पर राज्यों का निर्माण हो। ऐसा नहीं हुआ तो वे नई पार्टी बनाने की धमकी दे रहे हैं। इसी तरह माओवादी पार्टी में किरण वैद्य के नेतृत्व में एक धड़ा सर्वहारा की तानाशाही वाली व्यवस्था चाहता है। वे चाहते हैं कि पुष्प दहल प्रचंड पार्टी प्रमुख के पद को छोड़ें। ऐसा नहीं हुआ तो माओवादी पार्टी दोफाड़ हो जाएगी।
सवाल यह है कि सेना के पुनर्गठन और दूसरे महत्वपूर्ण मुद्दों पर सहमति बनाने में कामयाब होने वाली संविधान सभा राज्यों के सवाल पर सहमति क्यों नहीं बना सकी? प्रदेशों को जातीय आधार पर तय करने की सबसे बड़ी समर्थक पार्टी माओवादी है। वह चाहती है कि राज्यों के नाम और भौगोलिक सीमाएं उनकी बहुसंख्यक जातियों के नाम के आधार पर तय किए जाएं। मतभेद के पीछे नेताओं का अहम भी एक वजह है। कभी बाबूराम भट्टराई के साथी रहे और माओवादी पार्टी के संस्थापको में से एक मात्रिका यादव कहते हैं, "इस स्थिति के लिए बाबूराम भट्टराई और प्रचंड मुख्य रूप से जिम्मेदार हैं।“ एमाले और नेपाल कांग्रेस राज्य पुनर्गठन के पक्ष में थे ही नहीं।
15 पार्टियों की गठबंधन सरकार में कई जातीय गुटों के प्रतिनिधि शामिल हैं। उनकी अगुआई करनेवाले माओवादियों की मांग है कि प्रांतों का गठन और नामकरण ऐसा हो जिससे कि उन क्षेत्रों के बहुसंख्यक जातीय गुटों की पहचान प्रकट हो सके। नेपाली कांग्रेस और एमाले का कहना है कि इससे सांप्रदायिकता और अलगाववाद के बीज पड़ेंगे। और यह नज़र भी आ रहा है। यह भी स्पष्ट हो रहा है कि 27 मई को संविधान लागू न हो पाने के पीछे माओवादी नेताओं की भूमिका है। माओवादी नेता प्रचंड संविधान सभा की विवाद निस्तारण समिति के कन्वीनर थे। वे कोशिश करते तो इस मामले को सुलझाया जा सकता था। बाबूराम भट्टराई ने इस बीच एकतरफा तरीके से चुनाव की तिथि 22 नवम्बर घोषित कर दी। देश की चारों प्रमुख राजनीतिक ताकतें अंतर्विरोधों की शिकार हैं। देश में मई 2010 तक संविधान तैयार हो जाना चाहिए था, पर संविधान सभा का कार्यकाल चार बार बढ़ाया गया और हासिल कुछ नहीं हुआ।
27 मई को संवैधानिक रास्ता साफ न होने के बाद नेपाल के दोनों बड़े पड़ोसियों भारत और चीन ने उम्मीद ज़ाहिर की कि जल्द ही यह देश लोकतांत्रिक तरीके से अपनी समस्याओं के समाधान खोज लेगा। फिलहाल माओवादी नेतृत्व में हिंसा और अराजकता शुरू होने का अंदेशा नहीं है। पूर्व विद्रोहियों को सेना में जगह दी जा चुकी है। अंदेशा सांप्रदायिक हिंसा का है। परस्पर विरोधी माँगें लेकर लोग सड़कों पर उतर रहे हैं। नए संघीय ढांचे को जातीय आधार पर तैयार किया जाए या नहीं, इसे लेकर मतभेद हैं।
नई संविधान सभा के चुनाव कराना क्या कानूनन सही है? इस सवाल का जवाब देने की स्थिति में कोई नहीं है। बहरहाल भट्टराई को इस चुनाव से ही उम्मीद है क्योंकि तमाम राजनीतिक ताकतों के लिए जातीय पहचान एक आकर्षक नारा है। खासतौर से मधेशी इलाके में इस माँग का जबर्दस्त समर्थन है।
उच्चतम न्यालय ने एक बार ऐसी सलाह दी थी कि बेहतर हो कि नए चुनाव की घोषणा कर दी जे। पर अंतरिम संविधान में संविधान सभा का चुनाव सिर्फ एक बार कराने की बात है। दूसरे चुनाव का फैसला होना भी था तो वह संसद को करना चाहिए था। पर वह तो भंग हो गई है। और अब जो स्थिति है उसमें सभी पार्टियों की रज़ामंदी के बगैर कोई फैसला नहीं हो पाएगा। कोई चुनी हुई संस्था न होने के कारण चुनाव करवाने के लिए जरुरी नियम बनाना दिक्कत तलब होगा। विपक्षी पार्टियों का आरोप है कि प्रधानमंत्री ने मौजूदा संविधान सभा को ही अंतरिम संसद मान लेने की उनकी अपील को मानने से इनकार कर दिया। यह संवैधानिक संशोधन से हो सकता था। बाबूराम भट्टराई ने एकतरफा फैसला करके शेष दलों को अपने खिलाफ कर लिया, जबकि इस वक्त सबसे बड़ी ज़रूरत सर्वानुमति से काम करने की थी। अब नेपाली कांग्रेस और सीपीएन-यूएमएल सहित पाँच दलों ने प्रधानमंत्री के फैसले को चुनौती देते हुए राष्ट्रपति से अपील की है। विपक्ष का तर्क है कि संविधान सभा के भंग होते ही भट्टराई का प्रधानमंत्री पद पर बने रहना स्वतः समाप्त हो गया। यों भी 3 मई को समझौते के तहत उन्हें सिर्फ 27 मई तक प्रधानमंत्री पद पर रहना था। एक खतरा यह है कि अब राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के बीच सत्ता संघर्ष छिड़ सकता है। अंतरिम संविधान में दोनों को कुछ आपात अधिकार प्राप्त हैं। विडंबना है कि लोकतांत्रिक रास्ता जातीय और साम्प्रदायिक गलियों से होकर गुजर रहा है। भारतीय परिस्थितियों की तुलना इससे करें तो पता लगेगा कि हमारे नेताओं ने कितनी कुशलता से इस देश को संकीर्ण पहचानों के दायरे से बाहर निकाला। नेपाल को भी देखना चाहिए। सी एक्सप्रेस में प्रकाशित
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