Sunday, March 25, 2018

पत्रकारिता माने मछली-बाजार नहीं

पिछले हफ्ते सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस दीपक मिश्रा ने जय शाह मामले की सुनवाई के दौरान कहा कि मीडिया को और ज्यादा जिम्मेदार होने की जरूरत है। उन्होंने अपनी बात को स्पष्ट करते हुए कहा, हम प्रेस की आवाज को नहीं दबा रहे हैं, लेकिन कभी-कभी पत्रकार कुछ ऐसी बातें लिखते हैं जो पूर्ण रूप से अदालत की अवमानना होती हैं। उन्होंने यह भी कहा कि कुछ उच्च पदों पर बैठे पत्रकार कुछ भी लिख सकते हैं। क्या यह वाकई पत्रकारिता है? हम हमेशा प्रेस की आजादी के पक्षधर रहे हैं, लेकिन किसी के बारे में कुछ भी बोल देना और कुछ भी लिख देना गलत है। इसकी भी एक सीमा होती है।

चीफ जस्टिस की इस टिप्पणी को किसी खास संदर्भ में देखने के बजाय उसके व्यापक संदर्भों में देखा जाना चाहिए, पर पिछले कुछ वर्षों परिस्थितियों को सामने जरूर रखा जाना चाहिए। जब तक मुद्रित अख़बार प्रचलन में थे, यह सवाल उठता था, तो पत्रकार और उनके संगठन स्वयं हस्तक्षेप करके अराजकता और गैर-जिम्मेदारी की भर्त्सना करते थे। हमारी परम्परागत समझ के दो पहलू हैं। एक, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर पाबंदियाँ नहीं होनी चाहिए। हालांकि हमारे संविधान ने विवेक सम्मत पाबंदियाँ लगाईं हैं, पर ये पाबंदियाँ मूल संविधान में नहीं थीं, बल्कि पहले संशोधन के बाद लागू हुईं हैं।
दूसरी समझ यह है कि पत्रकारीय मर्यादा इस कर्म के भीतर से निकल कर आनी चाहिए। पत्रकारिता को श्रेष्ठ कर्म या नोबल प्रफेशन इसीलिए माना गया है, क्योंकि यह मर्यादित और उदात्त मूल्य-बद्ध कर्म है। हम इसीलिए सेंसरशिप और सरकारी-सामाजिक वर्जनाओं को अस्वीकार करते हैं, क्योंकि हम सीधे जनता से जुड़े हैं। और उसके हित में ही काम करते हैं। प्रेस को शासन-व्यवस्था का चौथा स्तम्भ इसीलिए माना जाता है। संविधान और नागरिक कानूनों को शासन-व्यवस्था ने दिया है। इस चौथे स्तम्भ की रचना किसी सरकार ने नहीं की है। यह अपने प्रभाव-क्षेत्र के कारण विकसित हुआ है।  
जिस व्यवस्था ने संविधानों की रचना की है, उसी व्यवस्था ने हमें अभिव्यक्ति का अधिकार दिया है। और जिस प्रकार न्याय-व्यवस्था पर अपनी साख की रक्षा का भार है, उसी तरह पत्रकारीय-कर्म पर भी अपनी साख की रक्षा का भार है। क्या हम अपनी इस जिम्मेदारी को समझते हैं? हाल के वर्षों में पत्रकारीय-कर्म को लेकर जो सवाल उठ रहे हैं, उसके पीछे दो बड़े कारण हैं। एक है, तकनीकी विकास से जुड़ी नई-पत्रकारिता का विकास और दूसरे पत्रकारीय-विचार और दर्शन के अनुरूप उसकी औद्योगिक संरचना का विकसित न हो पाना।
हम मानते रहे कि नागरिक या पाठक हमारा संरक्षक है और वही हमारी स्वतंत्रता की रक्षा करेगा। पर यह आदर्श स्थिति है। यदि नागरिक इतना जागरूक और शक्तिशाली हो कि शासन और समाज की विभिन्न संस्थाओं की निगरानी कर सके, तब उम्मीद की जा सकती है कि वह पत्रकारीय-कर्म का संरक्षण भी करेगा। स्वतंत्र-पत्रकारिता की जरूरत नागरिकों को है, सरकार या पत्रकारीय-संस्थानों को नहीं। पर, यह व्यावहारिक सत्य नहीं है। जब समाज जागरूकता के शिखर पर होगा तब ऐसी विसंगतियाँ नहीं होंगी। भारत और पश्चिमी देशों के समाज में इस अंतर को देखा जा सकता है। पश्चिमी समाज में भी पत्रकारिता आदर्श स्थिति पर नहीं है, पर हमसे बेहतर है।
पत्रकारीय-कर्म का लगातार विकास हो रहा है। लोकतंत्र का कच्चा माल सूचना है, इसलिए इस कर्म की आवश्यकता हमेशा रहेगी। जरूरत है कि इसका परिष्कार किया जाए। सूचना और विचार के स्रोत बढ़ रहे हैं। सूचना का विस्फोट होने से भी भ्रम की स्थिति पैदा हो रही है। हाल के वर्षों में सोशल मीडिया के उद्भव से हालात में बड़ा बदलाव आया है। बेशक सोशल मीडिया ने मुख्यधारा की पत्रकारिता के दोषों को उजागर किया है। पर यह पत्रकारिता बेलगाम है और झूठी-सच्ची और अक्सर तोड़-मरोड़ी सूचनाओं पर आधारित होती है।  
सुप्रीम कोर्ट में जिस मामले के संदर्भ में मुख्य न्यायाधीश ने टिप्पणी की है वह एक न्यूज वैबसाइट से जुड़ा है। इस वैबसाइट ने दावा किया था कि एनडीए के सत्ता में आने के बाद ही अमित शाह के बेटे जय शाह की कंपनी का कारोबार 16,000 गुना बढ़ गया। मूल खबर में तथ्यों की प्रस्तुति में मामूली अंतर के कारण खबर का स्वर बदल गया था। बहरहाल यह मामला अदालत के विचाराधीन है। इसे तार्किक परिणति तक पहुँचने में समय लगेगा, पर हाल के घटनाक्रम पर नजर डालें तो कोई दिन ऐसा नहीं जाता, जब हमारा सामना तथ्यों के तोड़-मरोड़ से न होता हो। अमर्यादित टिप्पणियों की अति होने लगी, तो सरकारों ने कोड़े चलाने शुरू कर दिए। सूचना प्रौद्योगिकी कानून की धारा 66ए अचानक विवाद का विषय बन गई। फेसबुक पर मामूली टिप्पणियों के लिए किशोरों को गिरफ्तार किया जाने लगा तो सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप किया।
मार्च 2015 में सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद धारा 66ए का प्रकोप थमा, पर अभिव्यक्ति का सवाल अपनी जगह रहा। सवाल था कि क्या किसी को कुछ भी लिख देने का लाइसेंस मिल गया है? सन 2008 में जब सूचना प्रौद्योगिकी कानून में संशोधन करके धारा 66ए को जोड़ा जा रहा था, तब इसका उद्देश्य महिलाओं को भद्दे, अश्लील मोबाइल संदेश भेजने वालों को पकड़ना था। पर हुआ क्या? विश्वविद्यालय के प्रोफेसर, लेखक, कार्टूनिस्ट, छात्र-छात्राएं और राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी तक इस कानून के दायरे में आ गए। कानून अपने उद्देश्य से भटक गया।
हरेक आज़ादी की सीमा होती है। पर हर सीमा की भी सीमा होती है। हमारे संविधान ने जब अनुच्छेद 19(1)(क) के तहत व्यक्ति को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार दिया था, तब सीमाओं का उल्लेख नहीं था। पर 1951 में संविधान के पहले संशोधन में इस स्वतंत्रता की युक्तियुक्त सीमाएं भी तय कर दी गईं। सुप्रीम कोर्ट के फैसलों से इस स्वतंत्रता ने प्रेस की स्वतंत्रता की शक्ल ली। अन्यथा ‘प्रेस की स्वतंत्रता’ शब्द संविधान में नहीं है। हमारे यहाँ प्रेस की नहीं, नागरिक की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। यह स्वतंत्रता प्रेस की औपचारिक स्वतंत्रता से कहीं ज्यादा व्यापक है।
मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ये नहीं सोच सकता कि वह रातों-रात पोप बन सकता है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में कई लोग ये सोचते हैं कि वे कुछ भी लिख सकते हैं। यह पत्रकारिता है ही नहीं। पत्रकारिता पर दो-तरफा जिम्मेदारियाँ है। उसे सत्य को सामने लाना है और मर्यादाओं की रक्षा भी करनी है। ऐसा नहीं होगा तो उसकी साख गिरेगी। दो अक्षरों वाले शब्द साख के अर्थ को समझना होगा।

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