Sunday, March 11, 2018

चुनावी चिमगोइयों का दौर

लोकसभा चुनाव में एक साल से ज्यादा समय बाकी है, पर नेपथ्य में चुनाव के नगाड़े सुनाई पड़ने लगे हैं। पूर्वोत्तर के तीन राज्यों में भाजपा का प्रवेश हो गया है। तीन राज्य पहले से उसकी झोली में हैं। सातवाँ राज्य मिजोरम है, जहाँ इस साल के अंत में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। पूर्वोत्तर का केवल सांकेतिक महत्व है। तुरुप के पत्ते तो उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु जैसे राज्य हैं, जहाँ असली राजनीतिक घमासान होगा। इन्हीं राज्यों से ऐसे गठबंधन निकलेंगे, जो 2019 की जंग में निर्णायक साबित होंगे। आज हालात बीजेपी बनाम शेष के बन चुके हैं। पर यक्ष-प्रश्न है कि क्या शेषएकसाथ आएगा?

सब जानते हैं कि असली मुकाबला लोकसभा चुनाव में है, पर उसकी राहें विधानसभा चुनाव से ही खुलती हैं। इससे स्थानीय स्तर पर संगठन तैयार होता है और वोटर के बीच पैठ बनती है। इस लिहाज से पूर्वोत्तर पर बीजेपी का ध्वज लहराना सांकेतिक होने के साथ-साथ उपयोगी भी है। त्रिपुरा में वाममोर्चे और कांग्रेस दोनों का सफाया हो गया। इससे बीजेपी के हौसले बुलंद हुए हैं। उधर विरोधी दलों ने बीजेपी के इस विस्तार को खतरनाक मानते हुए पेशबंदी शुरू कर दी है। 

विरोधी दलों की पहलकदमी का पहला संकेत मिला है उत्तर प्रदेश से, जहाँ लोकसभा की दो सीटों पर हो रहे उपचुनाव में बसपा ने सपा को समर्थन देने की घोषणा की है। शायद कांग्रेस भी अपने प्रत्याशियों को हटा ले। इतना होने के बावजूद इसे उत्तर प्रदेश में भाजपा-विरोधी महागठबंधन का आगाज़ नहीं मान लेना चाहिए। दूसरी तरफ हैदराबाद में तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव ने बीजेपी और कांग्रेस दोनों से अलग रहते हुए एक राजनीतिक मोर्चे का ऐलान कर दिया है, जिसका ममता बनर्जी ने समर्थन किया है। यानी एक और तीसरे मोर्चे का आग़ाज़। इसमें शिवसेना, आम आदमी पार्टी और डीएमके तक के शामिल होने का कयास है।

अब चुनाव ही चुनाव

इस महीने उपचुनावों के साथ राजनीतिक गतिविधियाँ तेज हुईं हैं। इसके अलावा राज्यसभा के चुनाव भी हैं। इस साल अप्रैल और मई में खाली होने वाली राज्यसभा की 58 सीटों के चुनाव 23 मार्च को होंगे। केरल के सदस्य वीरेन्द्र कुमार ने पिछले दिसम्बर में इस्तीफा दिया था, जबकि उनका कार्यकाल अप्रैल 2022 तक था। उनकी सीट पर भी चुनाव होगा। इन चुनावों में उत्तर प्रदेश से 10, महाराष्ट्र और बिहार से छह-छह, मध्य प्रदेश और पश्चिम बंगाल से पाँच-पाँच, गुजरात और कर्नाटक से चार-चार, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, ओडिशा और राजस्थान से तीन-तीन, झारखंड से दो और छत्तीसगढ़, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड से एक-एक सदस्य का चुनाव होना है।

इस चुनाव के बाद राज्यसभा की संरचना में बदलाव आएगा, जिसकी झलक राष्ट्रीय राजनीति में नजर आने लगेगी। पूर्वोत्तर के चुनाव में सफलता के बावजूद बीजेपी को लोकसभा चुनाव के सफलता-सूत्र उत्तर भारत में ही खोजने होंगे, खासतौर से उत्तर प्रदेश में। पूर्वोत्तर के सातों राज्यों से लोकसभा की कुल जमा 24 सीटें हैं। पार्टी के सामने इस साल राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ को बचाने की चुनौती है। लोकसभा चुनाव की जमीन इन राज्यों से तैयार होगी। कर्नाटक का चुनाव भी महत्वपूर्ण है।

सपा-बसपा मिलाप

पिछले साल राष्ट्रपति चुनाव के समय कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्ष ने एक होने की कोशिश शुरू की थी, जो अभी चल ही रही है। बीजेपी और उसके विरोधियों दोनों की नजरें उत्तर प्रदेश पर टिकी हैं। सन 2015 में बिहार विधानसभा चुनाव के वक्त बना महागठबंधन जुलाई 2017 में टूट गया, पर उसके पहले उत्तर प्रदेश में कांग्रेस ने समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन बना लिया था। बसपा ने तब इस गठबंधन को स्वीकार नहीं किया था। पर उत्तर प्रदेश में सूपड़ा साफ होने से उसके होश उड़े हुए हैं। उत्तर प्रदेश में अब उसे एक प्रयोग करने का मौका मिल रहा है। यों बसपा उपचुनावों में हिस्सा लेती भी नहीं है। इन दो सीटों पर उसे चुनाव लड़ना भी नहीं था। अब पार्टी ने बीजेपी को हराने के लिए सपा प्रत्याशियों के समर्थन का फैसला किया है।

क्या यह महागठबंधन की शुरुआत है? मायावती ने साफ किया है कि यह आम-चुनाव के पहले का गठबंधन नहीं है। साफ तौर पर यह दोनों उपचुनावों और इस महीने होने वाले राज्यसभा चुनाव तक सीमित है, पर यह भी साफ है कि दोनों पार्टियों के बीच 23 साल पुरानी लाग-डाट कम हो रही है। लगता यह भी है कि इन दोनों सीटों पर समर्थन के बदले समाजवादी पार्टी राज्यसभा चुनाव में मायावती को या उनके किसी प्रत्याशी को समर्थन देगी। पिछले साल जुलाई में मायावती ने राज्यसभा की सीट से गुस्से में आकर इस्तीफा दे दिया था। फिलहाल यह इस हाथ ले, उस हाथ दे वाला हिसाब लगता है।

उत्तर प्रदेश के चुनावी इंजीनियर पिछले एक साल से माथापच्ची कर रहे हैं। बीजेपी ने सारा गणित फेल कर दिया। विधानसभा चुनाव में सपा को 47 और बसपा को केवल 19 सीटें मिलीं थीं। चुनाव परिणाम आ ही रहे थे कि मायावती ने वोटिंग मशीनों का सवाल उठा दिया। उसके बाद उन्होंने अप्रैल में आम्बेडकर जयंती के अवसर पर कहा, वोटिंग मशीनों के साथ छेड़छाड़ और बीजेपी के खिलाफ लड़ाई में हमारी पार्टी दूसरे दलों की मदद ले सकती है। हालांकि उसके पहले अखिलेश यादव कई बार सहयोग करने की बात कर चुके थे। बहरहाल दोनों उपचुनावों में समर्थन के बावजूद बसपा कार्यकर्ताओं को अभी निर्देश हैं कि वे सपा नेताओं के साथ एक ही मंच पर नहीं आएंगे।

कितने महागठबंधन?

सोनिया गांधी ने 13 मार्च को डिनर पर विरोधी दलों के नेताओं को बुलाया है। क्या इसमें ममता बनर्जी आएंगी? क्या मायावती की शिरकत इसमें होगी? लोकसभा चुनाव के लिए मायावती ने अपने पत्ते अभी छिपाकर रखे हैं। कांग्रेस ने पिछले साल समाजवादी पार्टी के साथ जो गठबंधन किया था उसके अपेक्षित परिणाम नहीं मिले। अब उन्हें लगता है कि जबतक बसपा इस गठबंधन में शामिल नहीं होगी, सफलता नहीं मिलेगी। क्या ये दोनों दल कांग्रेस के साथ मिलकर महागठबंधन बना सकते हैं?

बसपा अभी तक कांग्रेस के नेतृत्व में तैयार हो रहे राष्ट्रीय गठबंधन से दूर है। पिछले दिनों सोनिया गांधी ने 17 विरोधी दलो की जो एकता-बैठक बुलाई थी, उसमें बसपा की भागीदारी नहीं थी। पार्टी ने कर्नाटक-विधानसभा चुनाव में जेडी(एस) के साथ गठबंधन का फैसला किया है। वह गैर-भाजपा, गैर-कांग्रेस गठबंधन बनाने पर जोर दे रही है। इस लिहाज से वह के चंद्रशेखर राव के गठबंधन के करीब नजर आती है, पर भरोसे के साथ कुछ भी नहीं कहा जा सकता।

तमाम तरह के सवालों का जवाब देने के लिए उत्तर प्रदेश में होने वाले राज्यसभा चुनावों की रणनीति को भी देखना होगा। प्रदेश से राज्यसभा के 31 में से 9 सदस्यों का कार्यकाल आगामी 2 अप्रैल को खत्म हो रहा है। पिछले साल जुलाई में मायावती ने अपनी सीट छोड़ दी थी। इस प्रकार 10 नए प्रतिनिधि चुनकर जाएंगे। जिन 9 की सदस्यता खत्म हो रही है, उनमें छह सपा के, एक-एक सदस्य भाजपा, बसपा और कांग्रेस के हैं। इनमें से 8 सीटों पर बीजेपी को जीत मिल जाएगी।

सपा के पास विधानसभा में 47 सदस्य हैं, जो उसे एक सीट दिला देंगे। विपक्षी दल एकजुट हो जाएं तो वे एक सीट और जीत सकते हैं। शायद एकता की इस मुहिम के पीछे यह सीट है। यह छोटी सी कसौटी है।

राजनीतिक पाला-बदल

अभी कुछ और हो रहा है। बीजेपी के सहयोगी दलों के नाम भी बदल रहे हैं। महाराष्ट्र में अबकी बार शिवसेना उसके साथ नहीं है। पंजाब में अकाली दल और आंध्र प्रदेश में तेलुगु देशम के साथ भी रिश्तों में खटास आ रही है। पंजाब में गठजोड़ टूटने के आसार नहीं हैं, पर तेदेपा का कहना है कि केन्द्र सरकार 5 अप्रेल तक आंध्र को विशेष राज्य का दर्जा नहीं देगी, तो हमारे सांसद इस्तीफा दे देंगे। तेदेपा के कड़े रुख को देखकर कांग्रेस ने उसकी तरफ हाथ बढ़ाया है। 6 मार्च को दिल्ली में तेदेपा के विरोध प्रदर्शन में राहुल गांधी खुद पहुँच गए। उन्होंने न केवल आंध्र के लिए विशेष पैकेज का समर्थन किया, बल्कि कहा कि कांग्रेस सत्ता में आई तो हम पैकेज देंगे। सोनिया गांधी के 13 मार्च के रात्रि भोज में तेदेपा को भी निमंत्रण दिया गया है। तेदेपा का जन्म कांग्रेसी राजनीति के विरोध में हुआ था। अब वह घूम-फिरकर फिर कांग्रेस के करीब जा रही है, तो उसके राजनीतिक कारणों को भी समझना होगा।

कांग्रेस पार्टी ने 2004 के पहले के चंद्रशेखर राव को इसी तरह तेलंगाना बनाने का आश्वासन दिया था, बाद में उसके गले की हड्डी बना। हाल में गुजरात के पाटीदारों को आरक्षण दिलाने का वादा भी उसने किया था। राजनीति में इन आश्वासनों की भूमिका भी है। आंध्र विशेष राज्य का दर्जा दिलाने की जद्दोजहद 2014 से चल रही है। केन्द्र का कहना है कि 14वें वित्त आयोग की सिफारिश है कि अब किसी राज्य को विशेष दर्जा न दिया जाए। अब देखना होगा कि इस सवाल पर तेदेपा क्या एनडीए से अलग होगी? शायद इसी अंदेशे में बीजेपी ने वाईएसआर कांग्रेस के साथ सम्पर्क तोड़ा नहीं है।

राहुल की कांग्रेस

सवाल है क्या कांग्रेस पार्टी अगले लोकसभा चुनाव तक सुसंगठित हो सकेगी? दिसम्बर में पार्टी अध्यक्ष का पद संभालने के बाद से राहुल गांधी ने कांग्रेस पार्टी में बदलाव शुरू कर दिए हैं। यह चुनौती का समय है, क्योंकि कांग्रेस की एक बड़ी समस्या संगठन को एकजुट बनाए रखने की भी है। राहुल गांधी की धारणा है कि पार्टी के भीतर आंतरिक लोकतंत्र होना चाहिए। यानी कि ज्यादातर फैसले मतदान के सहारे हों। क्या अब ऐसा होगा? अब 16 से 18 मार्च तक कांग्रेस महासमिति का सम्मेलन है, जिसमें राहुल की नियुक्ति की पुष्टि की जाएगी। पर ज्यादा बड़ा काम है नई कार्यसमिति का गठन।

कांग्रेस कार्यसमिति के 24 में से 12 सदस्यों का चुनाव महासमिति को करना है। शेष सदस्यों का मनोनयन अध्यक्ष को करना होता है। व्यावहारिक सच यह है कि सभी सदस्यों का मनोनयन अध्यक्ष को करना होता है। केवल दो अवसर ऐसे आए हैं, जब कार्यसमिति के सदस्यों का चुनाव हुआ है, अन्यथा हमेशा मनोनयन का रास्ता ही अपनाया जाता है। सन 1992 में तिरुपति अधिवेशन में हुए चुनाव के बाद नव-निर्वाचित सदस्यों से इस्तीफे ले लिए गए थे। सन 1997 में कोलकाता महाधिवेशन में हुए चुनाव के बाद ऐसे सदस्य चुनकर आ गए, जिन्हें तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष सीताराम केसरी का प्रतिद्वंद्वी माना जाता था। बहरहाल तर्क यह दिया जाता है कि मनोनयन के कारण सभी वर्गों को उचित प्रतिनिधित्व मिल जाता है, चुनाव से ऐसा सम्भव नहीं।

लगता है कि राहुल गांधी भी फिलहाल मनोनयन के रास्ते पर जाएंगे। इसकी पेशबंदी कर ली गई है। कहा गया है कि पार्टी की मतदाता सूची अभी तैयार नहीं है, क्योंकि अनेक राज्यों में चुनाव प्रक्रिया पूरी नहीं हो पाने के कारण महासमिति के सदस्यों के नाम तय नहीं हो पाए हैं। राहुल गांधी के नेतृत्व की शुरूआत ही हो रही है और पार्टी नहीं चाहती कि ऐसा कुछ हो जिससे नैया डांवांडोल होने लगे।

अच्छे दिनोंका जुमला

बीजेपी क्या करने वाली है? सन 2014 में पार्टी नौजवानों और स्त्रियों के वोटों से जीतकर आई थी। बदलाव, विकास और आधुनिकीकरण का पर्याय बनकर नरेन्द्र मोदी उभरे थे। पर पिछले चार साल में पार्टी धीरे-धीरे हिन्दुत्व के रास्ते पर आ गई है। क्या यह फॉर्मूला चुनाव में सफलता दिलाएगा? क्या नौजवानों के मन में आज भी मोदी की छवि आराध्य देवता जैसी है? क्या आर्थिक गतिरोध मोदी की राजनीति के आड़े नहीं आएगा? इस साल के बजट में सरकार ने ग्रामीण क्षेत्रों पर खासतौर से ध्यान दिया है। क्या पार्टी गियर बदल रही है? क्या आर्थिक अपराधों के खिलाफ अपनी मुहिम को वह किसी तार्किक परिणति तक पहुँचा पाएगी? वोटर का ध्यान क्या अच्छे दिनों के जुमले से हटाया जा सकेगा?

बैंक-घोटालों ने विपक्ष को सिर उठाने का मौका दे दिया है। संसद के बजट सत्र का दूसरा दौर हंगामों के साथ शुरू हो गया है। पंजाब नेशनल बैंक के घोटाले की वजह से सरकार अर्दब में है। पूर्वोत्तर के चुनाव-परिणामों ने फिलहाल नाक बचाई है। बावजूद इसके कार्ति चिदम्बरम की गिरफ्तारी ज्यादा महत्वपूर्ण साबित होगी, बशर्ते अदालती प्रक्रिया में वह खरी साबित हो।

इस गिरफ्तारी के अलावा खबरें हैं कि सरकार आर्थिक अपराधों के खिलाफ एक मजबूत कानून संसद के इसी सत्र में पेश करने जा रही है। सरकार यह साबित करना चाहेगी कि हम आर्थिक-अपराधियों को छोड़ेंगे नहीं। नोटबंदी के दौरान चार्टर्ड अकाउंटेंटों और बैंकों की भूमिका को लेकर काफी लानत-मलामत हुईं थीं। देखना होगा कि सरकर विपक्षी घेरे में आती है या पलटवार करती है। कार्ति चिदम्बरम की गिरफ्तारी के बाद इस मामले का घेरा पी चिदम्बरम की ओर बढ़ेगा। यह वह दौर होगा, जब देश में लोकसभा चुनाव की पृष्ठभूमि तैयार होगी। तबतक देश के राजनीतिक आकाश पर आतिशबाजियों की जगमगाहट होने लगेगी। फिलहाल रुकिए एक ब्रेक के लिए।  


जिन राज्यों में इस साल विधानसभा चुनाव हैं वहाँ लोकसभा सीटों की संख्या
राजस्थान
25
मध्य प्रदेश
29
कर्नाटक
28
छत्तीसगढ़
11
मिजोरम
01
त्रिपुरा
02
मेघालय
01
नगालैंड
01



नवोदय टाइम्स में प्रकाशित

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