Monday, March 19, 2018

क्षेत्रीय क्षत्रपों की राष्ट्रीय आकांक्षाएं

बीजेपी की राजनीति का पहला निशाना कांग्रेस है और कांग्रेस का पहला निशाना बीजेपी है. दोनों पार्टियों के निशान पर क्षेत्रीय पार्टियाँ नहीं हैं, बल्कि दोनों की दिलचस्पी क्षेत्रीय दलों से गठजोड़ की है. इसके विपरीत क्षेत्रीय दलों की दिलचस्पी राष्ट्रीय दलों को पीछे धकेलकर केन्द्र की राजनीति में प्रवेश करने की है. देश में क्षेत्रीय राजनीति का उदय 1967 में कांग्रेस की पराजय के साथ हुआ था. इस परिघटना के तीन दशक बाद जबतक बीजेपी का उदय नहीं हुआ, राष्ट्रीय पार्टी सिर्फ कांग्रेस थी. सन 2004 तक एनडीए और उसके बाद यूपीए और फिर एनडीए सरकार के बनने से ऐसा लगा कि राष्ट्रीय जनाधार वाले दो दल हमारे बीच हैं. पर, अब कांग्रेस के निरंतर पराभव से अंदेशा पैदा होने लगा है कि उसकी राष्ट्रीय पहचान कायम रह भी पाएगी या नहीं. उत्तर प्रदेश और बिहार में हिन्दी इलाके की राजनीति विराजती है, जो राष्ट्रीय राजनीति की धुरी है. दोनों राज्यों से कांग्रेस का सफाया हो चुका है.

हाल की घटनाओं पर नजर डालें तो दो बातें नजर आ रहीं है. एक, बीजेपी ने पूर्वोत्तर और दक्षिण भारत में पैर पसारने की कोशिश की है. दूसरे दक्षिणी राज्यों समेत देश के दूसरे इलाकों की राजनीति केन्द्र की तरफ बढ़ रही है. तेलुगु देशम ने मोदी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव का बिगुल बजाकर केवल आंध्र के आर्थिक सवाल को ही नहीं उठाया है, बल्कि चंद्रबाबू नायडू की राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं को भी उजागर किया है. इस अविश्वास प्रस्ताव से सरकार गिरेगी नहीं, पर क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाओं को सामने आने का मौका जरूर मिला है.


उत्तर प्रदेश और बिहार से लोकसभा की तीन सीटों पर हुए उपचुनाव में बीजेपी की पराजय से कांग्रेस के खेमे में खुशी की लहर है. पर क्या यह कांग्रेस की जीत है?  उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बसपा के बीच शायद गठबंधन बन जाए. हो सकता है कि कांग्रेस भी इस गठबंधन में शामिल हो जाए, पर उसकी हैसियत क्या होगी? कांग्रेस  अपने इतिहास के सबसे मुश्किल दौर से गुजर रही है. क्षेत्रीय क्षत्रपों का उदय उसके लिए शुभ संकेत नहीं है. मनमोहन सिंह की सरकार को किस तरह तृणमूल, डीएमके और एनसीपी ने नाच नचाया, वह सबने देखा.

इस हफ्ते पार्टी महासमिति की बैठक है. उसकी नई कार्यसमिति सामने आने वाली है. नए अध्यक्ष राहुल गांधी की टीम किस तरह काम करेगी, इसे देखना होगा. कांग्रेस की राजनीति इस साल कर्नाटक, राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के चुनावों से भी जुड़ी है. इन राज्यों में कांग्रेस का स्वतंत्र अस्तित्व बचा है. बाकी राज्यों में वह क्षेत्रीय क्षत्रपों की चेरी बन चुकी है. ये चुनाव बीजेपी के लिए भी बहुत महत्वपूर्ण हैं. पर, उसकी अलग कहानी है. फिलहाल देखिए अगले दो-तीन दिनों में होता क्या है.

गोरखपुर और फूलपुर परिणाम आने के बाद से घटनाक्रम तेजी से बदला है. हालांकि लोकसभा चुनाव अभी दूर हैं, पर चुनाव के बादल उमड़ते-घुमड़ते नजर आने लगे हैं. ज्यादातर गतिविधियाँ क्षेत्रीय क्षत्रपों की ओर से हैं. यूपी में सपा-बसपा गठबंधन के चर्चे हैं. गोरखपुर-फूलपुर के अंतिम परिणाम आने के पहले ही ममता बनर्जी के बधाई संदेश आ चुके थे.

तमिलनाडु में टीटीवी दिनाकरन ने अम्मा मक्काल मुन्नेत्र कषगमबनाने की घोषणा की है. कमलहासन और रजनीकांत के इरादे साफ हैं. चंद्रबाबू नायडू की राष्ट्रीय-महत्वाकांक्षाएं जाहिर हो रही हैं. ओडिशा में नवीन पटनायक की भी महत्वाकांक्षाएं हैं. शिवसेना, एनसीपी, बीजू जनता दल, डीएमके से लेकर झामुमो और रालोद सबने गणित लगाना शुरू कर दिया है.   

सोनिया गांधी के 13 मार्च को हुए रात्रिभोज में 20 पार्टियों के नेता शामिल हुए. यह एक सम्भावित मोर्चे की शुरुआत है, पर यह मोर्चा क्या शक्ल लेगा, यह स्पष्ट नहीं है. खबर है कि शरद पवार भी एक बैठक बुलाने वाले हैं. एक और पहल टीआरएस के चंद्रशेखर राव की है. ममता बनर्जी ने उनके संघीय मोर्चे का स्वागत किया है. हो सकता है कुछ और मोर्चे खुलने वाले हों. क्षेत्रीय राजनीति की आकांक्षाएं खुलने का वक्त अब आ रहा है. मनोकामनाएं कई तरह की हैं. कुछ की इच्छा नेतृत्व करने की है और कुछ की लेन-देन में कुछ हासिल करने की.

ज्यादातर क्षेत्रीय पार्टियों को हम उनके नेताओं के नाम से जानते हैं. बसपा के बजाय मायावती. ममता बनर्जी, मुलायम सिंह (अब अखिलेश), करुणानिधि, चन्द्रबाबू नायडू, शरद पवार, उद्धव ठाकरे, ओम प्रकाश चौटाला, अजित सिंह, प्रकाश सिंह बादल, एचडी देवेगौडा, जगनमोहन रेड्डी, के चंद्रशेखर राव, फारूख़ अब्दुल्ला, महबूबा मुफ्ती, लालू यादव (अब तेजस्वी), राम विलास पासवान, मौलाना बद्रुद्दीन अजमल, नवीन पटनायक, कुलदीप बिश्नोई और नीतीश कुमार नेताओं के नाम हैं जो पार्टी के समानार्थी हैं. इसबार क्या कोई तीसरा मोर्चा बनेगा? कोई गठबंधन उभरेगा या नहीं? इनका नेतृत्व कौन करेगा? कांग्रेस का क्या होगा? वह विपक्षी एकता के शिखर पर होगी या भीड़ का हिस्सा होगी वगैरह?  

विरोधी-एकता की अचानक पैदा हुई सरगर्मी के पीछे कयास है कि त्रिशंकु संसद आने वाली है. खिचड़ी-सम्भावनाओं का पिटारा खुलते ही क्षेत्रीय क्षत्रपों की हरकतें बढ़ गईं है. उन्हें लगता है कि बीजेपी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला तो तीन तरह के परिदृश्य बनेंगे. एक, बीजेपी गठबंधन, कांग्रेस गठबंधन या किसी गैर-कांग्रेस नेता को ताज पहनने का मौका मिले, जैसे एचडी देवेगौडा को मिला था. कांग्रेस अगर पचास-साठ पर सिमट गई तो बागडोर क्षेत्रीय क्षत्रपों के हाथ में होगी. इस उम्मीद ने हलचल पैदा कर दी है. क्षेत्रीय राजनीति को परिदृश्य अपने पक्ष में जाता नजर आने लगा है.

क्षेत्रीय पार्टियों का ज्यादातर वोट बैंक सामाजिक, जातीय और सांस्कृतिक है. तेलुगु देशम ने बीजेपी का साथ इस मौके पर छोड़ा है तो कारण यह भी है कि उसे मुस्लिम वोट बैंक की फिक्र है. वाईएसआर कांग्रेस लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव के साथ है, पर वह तेदेपा की प्रतिद्वंद्वी पार्टी है. आंध्र को विशेष राज्य का दर्जा देने की राजनीति से वह अलग नहीं रहेगी, पर भितरखाने भाजपा के साथ उसका भी सम्पर्क है. गठबंधन और मोर्चे कोई भी बनें, यदि स्पष्ट बहुमत किसी के पक्ष में नहीं आया तो देखने लायक परिदृश्य होगा. उत्तर प्रदेश में बुआ-बबुआ एकता स्थापित होने के बाद भी कोई गारंटी नहीं है कि चुनाव बाद भी उनकी एकता रहेगी. 
inext में प्रकाशित

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