तेलुगु देशम पार्टी ने अपने चार साल पुराने गठबंधन को
खत्म करके एनडीए से अलग होने का फैसला अचानक ही नहीं किया होगा। पार्टी ने बहुत
तेजी से मोदी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश करने का फैसला भी कर लिया।
आंध्र की ही वाईएसआर कांग्रेस ने इसके पहले अविश्वास प्रस्ताव पेश किया था, जिसके
नोटिस को स्पीकर स्वीकार नहीं किया। सब जानते हैं कि सरकार गिरने वाली नहीं है, पर
अचानक इस प्रस्ताव को समर्थन मिलने लगा है। इसके साथ कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, एआईएमआईएम और वामपंथी
पार्टियाँ नजर आ रहीं हैं। याद करें, पिछले लोकसभा चुनाव के पहले आंध्र प्रदेश और
तेलंगाना राजनीतिक कारणों से खबरों में रहते थे।
गोरखपुर और फूलपुर परिणाम आने के बाद से घटनाक्रम तेजी
से बदला है। हालांकि लोकसभा चुनाव अभी दूर हैं, पर चुनाव के बादल उमड़ते-घुमड़ते
नजर आने लगे हैं। ज्यादातर गतिविधियाँ क्षेत्रीय क्षत्रपों की ओर से हैं। यूपी में
सपा-बसपा गठबंधन के चर्चे हैं। गोरखपुर-फूलपुर के अंतिम परिणाम आने के पहले ही
ममता बनर्जी के बधाई संदेश आ चुके थे। इधर तमिलनाडु में टीटीवी दिनाकरन ने ‘अम्मा मक्काल मुन्नेत्र कषगम’ बनाने की
घोषणा की है। कमलहासन और रजनीकांत के इरादे साफ हैं। चंद्रबाबू ने अपनी
राष्ट्रीय-महत्वाकांक्षाओं का इरादा जाहिर किया है। ओडिशा में नवीन पटनायक की भी
महत्वाकांक्षाएं हैं। शिवसेना, एनसीपी, बीजू जनता दल, डीएमके से लेकर झामुमो और
रालोद सबने गणित लगाना शुरू कर दिया है।
सोनिया गांधी ने 13 मार्च को डिनर-राजनीति के साथ
कांग्रेस पार्टी के पेशकश भी शुरू कर दी। लंच और डिनर-राजनीति का दौर है। सवाल है
कि 2019 के चुनाव में किसकी जीत होगी? पर उससे पहले
का सवाल है कि यह चुनाव क्या ‘मोदी बनाम
खिचड़ी’ के नारे पर
लड़ा जाएगा? कांग्रेस की
पहल सामने है। दूसरी पहल टीआरएस के चंद्रशेखर राव की है। ममता बनर्जी ने उनके संघीय
मोर्चे का स्वागत किया है। हो सकता है कुछ और मोर्चे खुलने वाले हों।
पिछले लोकसभा चुनाव के पहले भी मोर्चाबंदियाँ शुरू हुईं
थीं। हर बार कुछ न कुछ नया होता है, इसलिए हमें गतिविधियों का इंतजार करना चाहिए। एनडीए
और यूपीए के बाद तीसरी ताकत किसी एक गठबंधन के रूप में नजर नहीं आती है। फिर भी हमारी
राजनीति में तीसरा मोर्चा लगातार चलने वाला रोचक प्रहसन है। कारण है क्षेत्रीय
राजनीति की विविधता। ज्यादातर पार्टियाँ सैद्धांतिक आधार पर नहीं बनी हैं। उनके
बनने में भौगोलिक और सामाजिक संरचना की भूमिका है। हम इन्हें नेताओं के नाम से
जानते हैं।
बसपा के बजाय मायावती। ममता बनर्जी, मुलायम सिंह (अब
अखिलेश), करुणानिधि, चन्द्रबाबू
नायडू, शरद पवार, उद्धव ठाकरे, ओम प्रकाश
चौटाला, अजित सिंह, प्रकाश सिंह
बादल, एचडी देवेगौडा, जगनमोहन
रेड्डी, के चंद्रशेखर राव, फारूख़ अब्दुल्ला, महबूबा मुफ्ती, लालू यादव (अब
तेजस्वी), राम विलास पासवान, मौलाना बद्रुद्दीन
अजमल, नवीन पटनायक, कुलदीप
बिश्नोई और नीतीश कुमार नेताओं के नाम हैं जो पार्टी के समानार्थी हैं। इसबार क्या
कोई तीसरा मोर्चा बनेगा? कोई गठबंधन
उभरेगा या नहीं? इनका नेतृत्व
कौन करेगा? कांग्रेस का क्या
होगा? वह विपक्षी एकता के शिखर
पर होगी या भीड़ का हिस्सा होगी वगैरह? प्रति-प्रश्न है
कि बीजेपी के गठबंधन में कौन से दल होंगे?
विरोधी-एकता
को लेकर अचानक जो सरगर्मी पैदा हुई है, उसके पीछे कयास है कि त्रिशंकु संसद आने
वाली है। पूर्वोत्तर में मिली विजय के बावजूद विरोधी मानते हैं कि मोदी सरकार की
लोकप्रियता में कमी आ रही है। खिचड़ी-सम्भावनाओं का पिटारा खुलते ही क्षेत्रीय
क्षत्रपों की हरकतें बढ़ गईं है। उन्हें लगता है कि बीजेपी को स्पष्ट बहुमत नहीं
मिला तो तीन तरह के परिदृश्य सम्भव हैं। एक, बीजेपी के नेतृत्व में गठबंधन की
सरकार बने। दो, कांग्रेस के नेतृत्व में गठबंधन की सरकार बने। तीन, किसी
गैर-कांग्रेस नेता के सिर पर छत्र रखा जाए। इस अवधारणा ने क्षत्रपों के खून में
गरमी पैदा कर दी है। उन्हें परिदृश्य अपने पक्ष में जाता नजर आने लगा है।
ज्यादातर
दलों का आधार सोशल इंजीनियरी से तय होने वाला है, इसलिए चुनाव के पहले की पेशबंदी
भी शुरू है। तेलुगु देशम पार्टी को अपने मुस्लिम वोट बैंक की फिक्र है। उसे बीजेपी
से दूर जाना ही था। वाईएसआर कांग्रेस लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव के साथ है, पर
वह तेदेपा की प्रतिद्वंद्वी है। आंध्र को विशेष राज्य का दर्जा देने की राजनीति से
वह अलग नहीं रह सकती, पर भाजपा के साथ भावी गठबंधन की सम्भावना का जायजा वह भी ले
रही है।
चुनाव
से पहले का परिदृश्य जो भी हो, देखने लायक परिदृश्य चुनाव बाद का होगा। बेशक राष्ट्रीय
स्तर पर बीजेपी और कांग्रेस की राजनीति अलग-अलग ध्रुवों पर है। पर शेष राजनीति के
बारे में गलतफहमियाँ नहीं होनी चाहिए। आदर्श राजनीति वह है जिसमें गठबंधन
चुनाव-पूर्व बनें। उनका राजनीतिक कार्यक्रम बने। पर, हमारी पार्टियाँ इसे जोखिम
भरा और निरर्थक काम मानती हैं। वे चुनाव बाद के हालात के लिए खुद को फ्री रखना चाहती
हैं। सत्ता के लिए कोई
भी गठजोड़ सम्भव हैं। सिद्धांत बाद में गढ़े जाते हैं।
उत्तर
प्रदेश में सपा-बसपा गठबंधन इसलिए सम्भव होगा क्योंकि दोनों पार्टियों के सामने
अस्तित्व-रक्षा का संकट है। बहरहाल ‘बुआ-बबुआ एकता’ स्थापित हो भी गई, तब भी चुनाव बाद का
परिदृश्य क्या होगा, इसके बारे में पूरे विश्वास के साथ कुछ नहीं कहा जा सकता। चुनाव पूर्व के समझौते जो भी हों,
चुनाव बाद के समझौते ज्यादा महत्वपूर्ण होंगे। फिलहाल चुनाव की सोचो, उसके बाद की
तब सोचेंगे।
बहरहाल
यह सब तब होगा, जब बीजेपी हारेगी। वह फिर से जीतकर आई, तो भविष्य की राजनीति में
कांग्रेस और पीछे चली जाएगी। इसलिए कांग्रेस के लिए यह जीवन-मरण का सवाल है। उत्तर
प्रदेश में बीजेपी की हार से उसे खुशी है, लेकिन क्षेत्रीय क्षत्रपों
की एकता उसके लिए शुभ संकेत नहीं है। सवाल कांग्रेस के समूचे भविष्य का है। इस हफ्ते पार्टी महासमिति की
बैठक है। उसकी नई कार्यसमिति सामने आने वाली है। नए अध्यक्ष राहुल गांधी की टीम
किस तरह काम करेगी, इसे देखना होगा। कांग्रेस की राजनीति इस साल कर्नाटक,
राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के चुनावों से भी जुड़ी है। इन राज्यों में
कांग्रेस का स्वतंत्र अस्तित्व बचा है। बाकी राज्यों में वह क्षेत्रीय क्षत्रपों
की चेरी बन चुकी है। ये चुनाव बीजेपी के लिए भी बहुत महत्वपूर्ण हैं। पर, उसकी अलग
कहानी है। फिलहाल देखिए अगले दो-तीन दिनों में होता क्या है।
हरिभूमि में प्रकाशित
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