Saturday, March 31, 2018

कांग्रेस है कहाँ, एकता-चिंतन के केन्द्र में या परिधि में?


बीजेपी-विरोधी दलों की लामबंदी के तीन आयाम एकसाथ उभरे हैं। एक, संसद में पेश विश्वास प्रस्ताव, दूसरा सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के खिलाफ महाभियोग लाने की मुहिम और तीसरा, लोकसभा चुनाव से पहले विरोधी दलों का मोर्चा बनाने की कोशिश। इन तीनों परिघटनाओं को कांग्रेसी नेतृत्व की दरकार है। अभी साफ नहीं है कि कांग्रेस इन परिघटनाओं का संचालन कर रही है या बाहरी ताकतें कांग्रेस को चलाने की कोशिश कर रही हैं? सवाल यह भी है कि क्या देश की राजनीति ने बीजेपी और शेष के फॉर्मूले को मंजूर कर लिया है?

इस मुहिम के केन्द्र में कांग्रेस के होने का एक मतलब होगा। और परिधि में रहने का मतलब दूसरा होगा। संयोग से इसी दौर में कांग्रेस के भीतर बदलाव चल रहा है। राहुल गांधी कांग्रेस को बदलने के संकल्प के साथ खड़े हुए हैं, पर उन्होंने अभी तक नई कार्यसमिति की घोषणा नहीं की है। विरोधी-एकता की मुहिम के केन्द्र में कांग्रेस को लाने के लिए जरूरी होगा कि उसका मजबूत संगठन जल्द से जल्द तैयार होकर खड़ा हो। संसद का यह सत्र खत्म होने वाला है। राजनीतिक दृष्टि से इस दौरान कोई उल्लेखनीय बात हुई। यह शून्य वैचारिक संकट की ओर इशारा कर रहा है।  

ममता-सोनिया संवाद

बुधवार को जब ममता बनर्जी ने दिल्ली में सोनिया गांधी से मुलाकात की, तो इस बात की सम्भावनाएं बढ़ गईं कि विरोधी दलों का महागठबंधन बनाया जा सकता है। अभी तक विरोधी एकता के दो ध्रुव नजर आ रहे थे। अब एक ध्रुव की उम्मीदें पैदा होने लगी हैं। पर, ममता-सोनिया संवाद ने जितनी उम्मीदें जगाईं, उतने सवाल भी खड़े किए हैं। यूपीए की ओर से पिछले कुछ समय से विरोधी-एकता की जो भी कोशिशें हुईं हैं, उनमें तृणमूल कांग्रेस के प्रतिनिधि शामिल हुए हैं, पर ममता बनर्जी उनमें नहीं आईं। अब ममता खुद सोनिया के दरवाजे पर आईं और भाजपा-विरोधी फ्रंट में साथ देने का न्योता दिया। ममता के मन में भी द्वंद्व है क्या?


इस मुलाकात के बाद ममता बनर्जी ने इस एकता से जुड़े कुछ बुनियादी सूत्रों को भी स्पष्ट किया है। उनकी बातों से लगता है कि वे राष्ट्रीय स्तर पर किसी एक दल के नेतृत्व को स्वीकार करने के पक्ष में नहीं हैं। उन्होंने राहुल गांधी के नेतृत्व से जुड़े सवाल का जवाब नहीं दिया। स्वाभाविक है कि वे कोई ऐसी बात नहीं कहेंगी, जिससे कोई बड़ा निष्कर्ष निकाला जा सके। यों भी यूपीए की नेता के रूप में सोनिया गांधी इस मुहिम का नेतृत्व कर रहीं हैं, पर इसी वक्त इस राजनीति के अंतर्विरोध भी विकसित हो रहे हैं, जो भविष्य में खुलेंगे।

बीजेपी से वन-टू-वन

सोनिया से मुलाकात के बाद ममता बनर्जी ने कहा, मैं जब भी दिल्ली आती हूँ,  सोनिया गांधी से भी मुलाकात करती हूँ। हम चाहते हैं कि भाजपा के साथ सीधा वन-टू-वन मुकाबला हो। जिस राज्य में भाजपा के खिलाफ जो पार्टी मजबूत हो, बाकी सभी पार्टी उसका सहयोग करें। जैसे उत्तर प्रदेश में माया-अखिलेश, बिहार में राजद-कांग्रेस। इस लिहाज से कर्नाटक में कांग्रेस को बीजेपी-विरोधी गठबंधन का नेतृत्व करना चाहिए। पर इस राज्य की तीसरी बड़ी ताकत जेडीएस किसी कीमत पर कांग्रेस के नेतृत्व को स्वीकार नहीं करेगी। उसके नेता एचडी देवेगौडा ने कहा है कि ममता बनर्जी और चंद्रबाबू नायडू हमसे लगातार सम्पर्क बना रहे हैं, पर हम किसी राष्ट्रीय गठबंधन में शामिल होने के बारे में विधानसभा चुनाव होने के बाद ही बात करेंगे।

क्षेत्रीय दल अपने-अपने इलाकों की परिस्थितियों के अनुसार रणनीति बनाते हैं। क्या विरोधी एकता की खातिर से वे अपनी रणनीतियों का त्याग करेंगे? विपक्षी एकता के राष्ट्रीय नेतृत्व का सवाल अभी उठ भी नहीं रहा है। नेतृत्व के सवाल पर एकता की पूरी कवायद धराशायी हो सकती है। फिर भी यह तो पूछा ही जा सकता है राज्यों में क्षेत्रीय दलों के नेतृत्व को स्वीकार करने के बाद कांग्रेस खुद कहाँ जाएगी? कर्नाटक के अलावा कांग्रेस गुजरात, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और पंजाब में बीजेपी का खिलाफ सबसे बड़ी पार्टी है। क्या इन राज्यों में उसे विरोधी-एकता नहीं चाहिए?

कांग्रेस की गठबंधन राजनीति

गुजरात के चुनाव में कांग्रेस ने अपने नेतृत्व का इस्तेमाल किया। हालांकि एनसीपी के साथ उसका गठबंधन हुआ, पर कांग्रेस ने दूसरे दलों को ज्यादा महत्व दिया नहीं। ममता बनर्जी ने बुधवार को इस बात की तरफ इशारा भी किया। उत्तर प्रदेश में बसपा-सपा की पिछलग्गू पार्टी के रूप कांग्रेस में उभरेगी तो उसकी तस्वीर हमेशा के लिए बदल जाएगी। ममता बनर्जी ने भाजपा के खिलाफ मोर्चेबंदी के लिए मायावती की सराहना की। मायावती ने इससे पहले गैर-भाजपा, गैर-कांग्रेस मोर्चे का भी स्वागत किया था।

व्यावहारिक सच यह है कि मायावती, ममता बनर्जी, चंद्रबाबू नायडू, उद्धव ठाकरे और नवीन पटनायक जैसे ज्यादातर क्षेत्रीय क्षत्रपों के सामने अस्तित्व का संकट है। बीजेपी उन सभी इलाकों में फैलती जा रही है, जहाँ वह अभी तक अनुपस्थित थी। बीजेपी के अपने अंतर्विरोध हैं। उसके भीतर भी वैचारिक और व्यक्तिगत स्तर पर दरारें हैं, पर जबतक वह सफल है दरारें ढकी रहेंगी।

ममता बनर्जी की दिल्ली यात्रा के वक्त यशवंत सिन्हा, शत्रुघ्न सिन्हा और अरुण शौरी भी उपस्थित थे, पर उनकी उपस्थिति का फोटो खिंचाने से ज्यादा मतलब कुछ नहीं। विरोधी दलों के इन एकता-प्रयासों में एनसीपी के नेता शरद पवार की महत्वपूर्ण भूमिका है। इन प्रयासों को वामदलों का भी समर्थन मिल है, पर वे गठबंधन में शामिल नहीं है। बंगाल में तृणमूल, वामदल और कांग्रेस एक छाते के नीचे आकर चुनाव लड़ें, इसकी सम्भावना नहीं है। महाराष्ट्र में एनसीपी और शिवसेना कांग्रेस के साथ गठबंधन बनाएंगे, इसकी सम्भावना भी नहीं लगती। तेदेपा इस गठबंधन में शामिल होना चाहती है, पर वह कांग्रेस और वाईएसआर कांग्रेस के साथ मिलकर बीजेपी-विरोधी मोर्चा बनाएगी, ऐसा सम्भव नहीं।

कैसे होगा सीधा मुकाबला?

सवाल दो हैं। राज्यों में बीजेपी के खिलाफ वन-टू-वन की स्थिति कैसे बनेगी? उसका गणित कैसे तैयार होगा? असहमतियों का निवारण कैसे होगा? जोड़-घटाने के लिए भी नेतृत्व की जरूरत होगी। क्या कांग्रेस यह नेतृत्व प्रदान करेगी? हालांकि कुछ समय पहले तेलंगाना के नेता के चंद्रशेखर राव ने गैर-भाजपा, गैर-कांग्रेस विपक्ष की बात कही थी। पर, ममता बनर्जी, शरद पवार, अखिलेश यादव और लालू यादव जैसे नेता मानते हैं कि कांग्रेस की अनदेखी करके विपक्षी एकता नहीं बन सकती। ममता बनर्जी ने पिछले मंगलवार को एनसीपी, शिवसेना, टीआरएस, टीडीपी, आरजेडी और सपा के नेताओं से मुलाकात की थी। इस गठजोड़ में टीडीपी का हाल में ही प्रवेश हुआ है, पर ममता और चंद्रबाबू का संवाद कुछ महीने पहले से चल रहा है।

आंध्र में बीजेपी और टीडीपी का गठजोड़ टूटने की पृष्ठभूमि करीब छह महीने पहले तैयार हो चुकी थी। उधर वाईएसआर कांग्रेस ने नरेन्द्र मोदी के साथ सम्पर्क भी स्थापित कर लिया है। पर इस वक्त दोनों पार्टियों ने आंध्र प्रदेश के लिए स्पेशल पैकेज की मांग को लेकर संसद में अविश्वास प्रस्ताव नोटिस दिया है। मोदी सरकार के खिलाफ अब तक चार पार्टियां अविश्वास प्रस्ताव दे चुकी हैं। इनमें कांग्रेस और सीपीएम भी शामिल हैं। सरकार को इस अविश्वास प्रस्ताव से खतरा नहीं है। अलबत्ता इससे विरोधी-दलों की एकता का पता जरूर लगेगा।

क्या है राजनीतिक रणनीति?

वाईएसआर कांग्रेस ने घोषणा की है कि 5 अप्रैल को सत्र खत्म होने पर उनके सभी सांसद इस्तीफा दे देंगे। लोकसभा चुनाव के पहले संसद के दो या तीन सत्र और होंगे। इस दौरान विरोधी दल क्या कोई संयुक्त रणनीति बनाएंगे? यह एकता बन सकती है और टूट भी सकती है। कयास है कि चुनाव समय से पहले हो सकते हैं। समय से पहले होंगे या नहीं, इसका फैसला 15 मई को कर्नाटक विधानसभा चुनाव के परिणाम आने के बाद होगा।

अविश्वास प्रस्ताव की बात चल ही रही थी कि मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के खिलाफ महाभियोग लाने की बातें होने लगीं। महाभियोग की बात चार जजों की प्रेस कांफ्रेंस के बाद सीताराम येचुरी ने कही थी। इस मुहिम का नेतृत्व कौन कर रहा है, यह स्पष्ट नहीं हो पा रहा है। बताया जाता है कि इस प्रस्ताव के लिए विपक्षी दलों के 20 नेता दस्तख़त कर चुके हैं। इस पहल के राजनीतिक निहितार्थ क्या हैं, यह भी साफ नहीं है। यह अयोध्या मामले की पेशबंदी है या न्यायपालिका की स्वतंत्रता से जुड़ा मसला है?

विरोधी दलों का गठबंधन बनने के पहले राष्ट्रीय-स्तर पर कहीं राजनीतिक-चिंतन चल भी रहा है या नहीं? चल रहा है तो इसमें कांग्रेस की भूमिका क्या है? उसका दृष्टिकोण क्या है, यह स्पष्ट होना चाहिए। इतना तो पता लगना ही चाहिए कि कांग्रेस इस मुहिम के केन्द्र में है भी या नहीं। क्या कांग्रेस के भीतर इन बातों के राजनीतिक निहितार्थ पर विचार कर रही है? महाभियोग प्रस्ताव पेश करने के लिए लोकसभा में 100 सांसदों और राज्यसभा में 50 सदस्यों के हस्ताक्षर की जरूरत होगी। दस्तखत कराने से पहले विचार-विमर्श तो होना ही चाहिए। क्या ऐसा कुछ हो रहा है?
राष्‍ट्रीय सहारा हस्तक्षेप में प्रकाशित


No comments:

Post a Comment