पिछले साल 16 दिसंबर
को राहुल गांधी निर्विरोध पार्टी अध्यक्ष चुने गए थे। अध्यक्ष चुने जाने के बाद उन्होंने
पुरानी कार्यसमिति करके उसकी जगह एक संचालन समिति बना दी है। अब जब वे नई
कार्यसमिति की घोषणा करेंगे, तब पता लगेगा कि संगठन की दिशा क्या होगी। राहुल की
टीम क्या होगी, वह किस तरीके से काम करेगी और पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र को लेकर
राहुल गांधी की अवधारणाएं क्या रूप लेंगी, यह सब अब देखना होगा।
पिछले एक दशक से
ज्यादा समय में राहुल गांधी के राजनीतिक विचारों में काफी बदलाव आया है। शुरूआती
दौर में वे कांग्रेस के भीतर लोकतांत्रिक फैसलों के हामी थे। पिछले लोकसभा चुनाव
के पहले और उन्होंने नमूने के तौर पर पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर 15 सीटों पर
प्राइमरी योजना लागू की। पर उसके उत्साहजनक परिणाम नहीं आए और योजना ठंडे बस्ते
में चली गई। पार्टी के वरिष्ठ नेताओं का कहना है कि अत्यधिक लोकतंत्र से संगठन में
फूट पड़ती और पनपती है। यह भी विडंबना है।
राहुल गांधी की एक बात
ने ध्यान खींचा। उन्होंने कहा, मैं स्वीकार करता हूँ कि कांग्रेस के नेतृत्व और
पार्टी कार्यकर्ता के बीच एक दीवार है। मेरी पहली प्राथमिकता इस अवरोध को तोड़ने
की होगी। उनकी यह टिप्पणी निश्चित रूप से सोनिया गांधी के नेतृत्व पर नहीं थी। पर
इशारा किस तरफ था, यह भी स्पष्ट नहीं। शायद यह वैसी ही ईमानदार बात है, जैसे राजीव
गांधी ने कभी कहा था कि रुपये में से पन्द्रह पैसे ही जनता तक पहुँच पाते हैं। अलबत्ता
पार्टी पर नजर रखने वाले जानते हैं कि राहुल के इर्द-गिर्द ज्यादातर ऐसे लोग हैं,
जो बड़े लोगों के वारिस हैं। उनके परिवार पहले भी आकाश पर थे और अब भी शिखर पर
हैं।
पार्टी के सामने सबसे
बड़ी चुनौती चुनावों की और उसके लिए गठबंधन की है। अधिवेशन में राजनीतिक प्रस्ताव
पेश करते हुए मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा, जिस लोकतंत्र ने नरेन्द्र मोदी को सत्ता
दिलाई, सरकार उसी लोकतंत्र के
लिए खतरा बन गई है। वह लोकतांत्रिक संस्थाओं और बुनियादी मूल्यों को खत्म करने पर
तुली है। उन्होंने जो प्रस्ताव पेश किया, उसमें कहा गया है कि कांग्रेस कोशिश
करेगी कि अगले आम चुनाव में बीजेपी को हराने के लिए समान विचारधारा वाली पार्टियों
के साथ एक ‘साझा काम करने योग्य कार्यक्रम’ बनाए।
लोकसभा चुनाव के पहले
के इस अंतिम वर्ष में पार्टी के सामने चार महत्वपूर्ण चुनाव हैं, जो तय करेंगे कि
उसकी हैसियत क्या बनेगी। पार्टी की कोशिश है कि वह बीजेपी के खिलाफ राष्ट्रीय स्तर
पर एक मजबूत गठबंधन खड़ा करने में कामयाब हो। यह तभी सम्भव होगा, जब पार्टी का
अपना आधार मजबूत होगा। यदि राहुल गांधी चुनाव जिताऊ नेता साबित हुए तो दूसरे दल
उनके साथ आने को तैयार होंगे। राहुल के सामने पहली चुनौती है, चुनाव जिताना।
सबसे पहला चुनाव
कर्नाटक में फौरन होने वाला है। इसके बाद राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के
चुनाव हैं। इनमें से पार्टी को कम से कम दो या तीन राज्यों में सफलता चाहिए। पर पार्टी
के पास एजेंडा क्या है? महासमिति के इस अधिवेशन में बड़े वक्तव्यों और पास किए
गए प्रस्तावों पर नजर डालें तो नजर आता है कि पार्टी व्यक्तिगत रूप से नरेन्द्र
मोदी पर हमलों को अपनी रणनीति बनाने वाली है। शनिवार को महाधिवेशन की शुरुआत मोदी
पर राहुल गांधी और सोनिया गांधी के तीखे हमलों से हुई। राहुल गांधी ने उन पर
बांटने की राजनीति करने का आरोप लगाया वहीं सोनिया गांधी ने अहंकार मुक्त भारत
बनाने का आह्वान किया।
राहुल गांधी ने इसके
बाद अपने समापन भाषण में भी मोदी पर ही प्रहार किए। पार्टी मानती है कि मोदी सरकार
के रूप में देश के साथ बड़ा अनर्थ हो गया है, उसे दूर होना चाहिए। सोनिया और राहुल
के अलावा मनमोहन सिंह और पी चिदंबरम के भाषणों में भी जोर इस बात पर था कि
कांग्रेस सरकारों ने प्रगति की जो परम्परा स्थापित की थी, उसे बीजेपी की सरकार ने
ध्वस्त करके रख दिया है। वक्तव्यों से स्पष्ट है कि पार्टी पूरे वेग से मोदी सरकार
पर और व्यक्तिगत रूप से नरेन्द्र मोदी और अमित शाह पर हमले बोलेगी। इन हमलों की
झलक ज्यादातर भाषणों और प्रस्तावों में देखी जा सकती है।
सोनिया गांधी ने सपने
बाँटने की मोदी-नीति की आलोचना की। पी चिदंबरम का निशाना नोटबंदी पर था। इसमें भी नरेन्द्र
मोदी ही आलोचना के केन्द्र में थे। मनमोहन सिंह का निशाना भी अर्थ-व्यवस्था ही थी।
उन्होंने छह साल में किसानों की आय दुगनी करने के मोदी सपने को जुमला बताया और
कहा, वह सच नहीं होगा। उन्होंने कश्मीर में हालात बिगड़ने की जिम्मेदारी भी मोदी
सरकार पर डाली। विदेशी राजनेताओं से रिश्ते बनाने वाले मोदी की विदेश नीति की
आलोचना करते हुए आनन्द शर्मा ने कहा कि ऐसा उन्होंने अपने प्रचार के लिए किया। उनके
प्रस्ताव में मोदी की ‘व्यक्ति केन्द्रित विदेश नीति’ पर हमले हैं।
जाने-अनजाने मोदी-मोदी, जो 2002 से कांग्रेस कर रही है।
पिछले साल उत्तर
प्रदेश विधानसभा चुनाव के परिणाम आने के दिन बसपा नेता मायावती ने ईवीएम में
गड़बड़ी का आरोप लगाया। आम आदमी पार्टी ने भी ईवीएम के खिलाफ मुहिम छेड़ी।
कांग्रेस ने ईवीएम को लेकर अपने संदेह जरूर व्यक्त किए, पर सीधे कोई बड़ा आरोप
लगाने से खुद को अलग रखा। पर इस महाधिवेशन में पास किए गए राजनीतिक प्रस्ताव में
ईवीएम के साथ छेड़छाड़ को भी मुद्दा बनाया गया। पार्टी ने ईवीएम की जगह बैलट पेपर
के पुराने तरीक़े को फिर से लागू करने की माँग की है, क्योंकि ज्यादातर प्रमुख
लोकतंत्रों ने ऐसा ही किया है।
पार्टी शायद भूलती है
कि वोटिंग मशीन के विकास में कांग्रेस के पूर्ववर्ती नेताओं की भूमिका रही है। हालांकि
1967 तक एकसाथ चुनाव हुए, जिसमें किसी को कोई खराबी नजर नहीं आई। पार्टी ने एकसाथ
चुनाव कराने की माँग का भी विरोध किया है। राजनीतिक प्रस्ताव में कहा गया है कि यह
भाजपा की चाल है और संविधान की दृष्टि से अनुचित है। कुल मिलाकर नेतृत्व और
कार्यकर्ता के बीच की दीवार वाली राहुल गांधी की आत्म-स्वीकृति और राजनीतिक
प्रस्ताव के अंत में ‘फिर से खड़ी हुई कांग्रेस’ वाक्यांश ध्यान
खींचता है।
राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित
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