Monday, May 8, 2023

प्रशासनिक समझदारी से टाली जा सकती थी मणिपुर की हिंसा


मणिपुर में हुई हिंसा चिंतनीय स्तर तक बढ़ने के बाद हालांकि रुक गई है, पर उससे हमारे बहुल समाज की पेचीदगियाँ उजागर हुई हैं। यह हिंसा देश की बहुजातीय पहचान और सांस्कृतिक-बहुलता के लिए खतरनाक है।  राज्य के पांच जिलों में जितनी तेजी से बड़े पैमाने पर विस्थापन हुआ, लोगों की जान गई, घरों, चर्चों, मंदिरों में तोड़फोड़ और आगजनी हुई, वह राज्य में लंबे अर्से से चली आ रही पहाड़ी और घाटी की पहचान के विभाजन का नतीजा है। प्रशासनिक समझदारी से उसे टाला जा सकता था। ऐसा नहीं लगता कि इस हिंसा के पीछे राजनीति है, बल्कि यह हिंसा राजनीतिक नेतृत्व की कमी को बता रही है। इसमें जनता के दो समूह आपस में लड़ रहे हैं। 

मणिपुर सरकार ने फ़रवरी में संरक्षित इलाक़ों से अतिक्रमण हटाना शुरू किया था, तभी से तनाव था। लोग सरकार के इस रुख़ का विरोध कर रहे थे, लेकिन मणिपुर हाईकोर्ट के एक आदेश के बाद 3 मई से स्थिति बेकाबू हो गई, जब ऑल ट्राइबल स्टूडेंट्स यूनियन ऑफ मणिपुर (एटीएसयूएम) ने 3 मई को जनजातीय एकता मार्च निकाला। इस मार्च के दौरान कई जगह हिंसा हुई। यह मार्च मैती समुदाय को जनजाति का दर्जा दिए जाने के प्रयास के विरुद्ध हुआ था। हाईकोर्ट ने सरकार को निर्देश दिया था कि वह 10 साल पुरानी सिफ़ारिश को लागू करे, जिसमें ग़ैर-जनजाति मैती समुदाय को जनजाति में शामिल करने की बात कही गई थी।

आदिवासी समूह इस मांग का विरोध कर रहे हैं। मैती समुदाय के सभी वर्गों ने भी समान रूप से आदिवासी का दर्जा देने वाली माँग का समर्थन नहीं किया है। यह शिकायत, कि मैती समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने पर पहाड़ी आदिवासी समुदायों के आरक्षण लाभों को काम कर देगा, एक सीमा तक ठीक लगता है। पर उनकी यह चिंता सही नहीं है कि इससे पारंपरिक भूमि स्वामित्व बदल जाएगा। आदिवासी नेताओं ने घाटी विरोधी भावनाओं को भड़काने में जमीन खोने के दाँव का इस्तेमाल किया है।

कुछ पर्यवेक्षकों का कहना है कि पिछले कुछ वर्षों से राज्य प्रशासन मैती और कुकी-पैती समुदायों के बीच ध्रुवीकरण करा रहा है। सत्ताधारी पार्टी के भीतर भी अपने मुख्यमंत्री से नाराज है। कुकी समुदाय के कुछ विधायकों ने दिल्ली आकर केंद्रीय नेतृत्व से शिकायत भी की है। मणिपुर की कुल आबादी में मैती समुदाय की हिस्सेदारी 64 फ़ीसदी से भी ज़्यादा है।

राज्य की केंद्रीय इंफाल घाटी लगभग 10 प्रतिशत भूभाग पर फैली है। इसमें मैती समुदाय का दबदबा है। शेष 90 प्रतिशत क्षेत्र चारों तरफ की पहाड़ियों में बसा है, जिसमें की 35 फ़ीसदी मान्यता प्राप्त जनजातियां रहती हैं। मैती मूलतः हिंदू हैं, कुछ मुसलमान भी हैं। कुल 60 विधायकों में 40 विधायक मैती समुदाय से हैं, क्योंकि ये 40 सीटें घाटी में हैं। जनजातियों में से केवल 20 विधायक ही विधानसभा पहुँचते हैं। राज्य में जिन 34 समुदायों को जनजाति का दर्जा मिला है, वे नगा और कुकी के रूप में जाने जाते हैं। ये दोनों जनजातियां मुख्य रूप से ईसाई हैं।

शिड्यूल ट्राइब डिमांड कमिटी ऑफ़ मणिपुर यानी एसटीडीसीएम 2012 से ही मैती समुदाय को जनजाति का दर्जा देने की मांग कर रहा है। याचिकाकर्ताओं ने हाईकोर्ट में बताया कि 1949 में देसी रियासत मणिपुर के भारत में विलय से पहले यहाँ मैती समुदाय को जनजाति का दर्जा मिला हुआ था। उनकी दलील थी कि मैती को जनजाति का दर्जा इस समुदाय, उसके पूर्वजों की ज़मीन, परंपरा, संस्कृति और भाषा की रक्षा के लिए ज़रूरी है।

मैती ट्राइब यूनियन की एक याचिका पर सुनवाई करते हुए मणिपुर हाईकोर्ट ने राज्य सरकार को 14 अप्रैल को 10 साल पुरानी केंद्रीय जनजातीय मामलों के मंत्रालय की सिफ़ारिश प्रस्तुत करने के लिए कहा था। इस सिफ़ारिश में मैती समुदाय को जनजाति का दर्जा देने के लिए कहा गया है। कोर्ट ने मई 2013 में जनजाति मंत्रालय के एक पत्र का हवाला दिया था। इस पत्र में मणिपुर की सरकार से सामाजिक और आर्थिक सर्वे के साथ जातीय रिपोर्ट के लिए कहा गया था। मैती समुदाय का कहना है कि अपनी पहचान बनाए रखने और अपने पूर्वजों की जमीन पर कब्जा बनाए रखने के लिए हमारी पहचान जनजाति के रूप में करना जरूरी है।

वे मानते हैं कि हमारा समुदाय अकारण ही संवैधानिक-संरक्षण से वंचित है और अपनी ही जमीन पर हाशिए पर चला गया है। सन 1951 में मैती समुदाय की जनसंख्या राज्य की 59 फीसदी थी, जो 2011 की जनगणना के अनुसार अब 44 फीसदी रह गई है। दूसरी तरफ मौजूदा जनजाति समूहों का कहना है कि मैती का जनसांख्यिकीय और राजनीतिक दबदबा है। पढ़ने-लिखने के साथ वे अन्य मामलों में भी आगे हैं। इनमें से काफी को अनुसूचित जाति और ओबीसी का दर्जा मिला हुआ है, जिसके लाभ उन्हें मिल रहे हैं। मैती समुदाय को पूरी तरह जनजाति का दर्जा मिल गया तो हमारे लिए नौकरियों के अवसर कम हो जाएंगे और मैती समुदाय के लोग पहाड़ों पर भी ज़मीन ख़रीदना शुरू कर देंगे। ऐसे में हम और हाशिए पर चले जाएंगे।

ऑल ट्राइबल स्टूडेंट्स यूनियन ऑफ़ मणिपुर का कहना है कि मैती समुदाय की भाषा संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल है और इनमें से कइयों को अनुसूचित जाति, पिछड़ी जाति और आर्थिक रूप से पिछड़ा वर्ग होने का लाभ भी मिल रहा है। कुछ पर्यवेक्षक मानते हैं कि राज्य में मैती समुदाय को जनजाति का दर्जा देने की मांग एक सियासी खेल है। सरकार समर्थकों का कहना है कि जनजाति समूह आंदोलन इसलिए चला रहे हैं, क्योंकि मुख्यमंत्री नोंगथोंबन बीरेन सिंह ने ड्रग्स के ख़िलाफ़ अभियान चला रखा है। सरकार अफ़ीम की खेती को नष्ट कर रही है।

राज्य सरकार ने तत्परता और समझदारी से काम किया होता तो यह धारणा जन्म नहीं लेती कि वह एक खास समुदाय की हिमायती है। ‘ड्रग्स के खिलाफ युद्ध’ से प्रेरित होकर सरकार ने अति उत्साह में अतिक्रमण विरोधी अभियान चलाया, जिसमें कुकी समुदाय के गांव प्रभावित हुए थे। भाजपा के कुछ आदिवासी विधायकों ने इस पक्षपात का मुद्दा उठाया था और नेतृत्व में बदलाव की मांग भी की थी।

ज्यादातर खेती कुकी-ज़ोमी जनजाति के लोग करते हैं। इन्हें अवैध प्रवासी माना जाता है। सरकार इन्हें सरकारी ज़मीन पर अफ़ीम की खेती करने से रोक रही है। पहला हिंसक विरोध प्रदर्शन 10 मार्च को हुआ था, जब कुकी गाँव से अवैध प्रवासियों को निकाला गया था। फिर अप्रेल के महीने में चुराचंदपुर में भीड़ ने एक जिम पर हमला बोला, जिसका एक दिन बाद मुख्यमंत्री बीरेन सिंह उद्घाटन करने वाले थे। पिछले साल अगस्त में राज्य सरकार ने एक नोटिस लगाया था कि चुराचंदपुर-खूपम संरक्षित वनक्षेत्र में बसे 38 गाँव अवैध बस्तियाँ हैं और वहाँ रहने वालों का अवैध अतिक्रमण हैं।

इसके बाद सरकार ने अवैध कब्जे हटाने की घोषणा कर दी, जिसके विरोध में भी हिंसा भड़की। सरकार का कहना है कि अतिक्रमण हटाने की कार्रवाई इंफाल घाटी में भी चल रही है, जहाँ मैती समुदाय बहुसंख्या में हैं। कुकी समुदाय का कहना है कि भारतीय वन कानून, 1927 मणिपुर में स्वयमेव लागू नहीं होता है, क्योंकि यह संविधान के अनुसार सी श्रेणी का राज्य है। यहाँ इसे लागू करने के पहले विधानसभा से प्रस्ताव पास कराना होगा। साथ ही इस क्षेत्र को संरक्षित क्षेत्र घोषित करने की कोई रिकॉर्ड नहीं है। 1970 में वन चकबंदी अधिकारी ने 38 गाँवों की जमीन को संरक्षित क्षेत्र से अलग रखा था, पर पिछले नवंबर में मुख्यमंत्री ने उस आदेश को रद्द कर दिया।  

कोलकाता के दैनिक वर्तमान में प्रकाशित

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