हिरोशिमा में ग्रुप ऑफ सेवन के शिखर सम्मेलन से एक बात यह निकल कर आ रही है कि चीन-विरोधी मोर्चे को खड़ा करने में अमेरिका और जापान की दिलचस्पी यूरोपियन देशों की तुलना में ज्यादा है. जापान और अमेरिका चाहते हैं कि चीन के खिलाफ कड़ा रुख अपनाया जाए, जबकि जर्मनी और फ्रांस जैसे यूरोपियन देशों को अब भी लगता है कि चीन के साथ दोस्ताना रिश्ते बनाए रखने में समझदारी है। शुक्रवार को शुरू हुआ तीन दिन का यह सम्मेलन रविवार को समाप्त होगा। इस दौरान दो बातें साफ हो गई हैं। एक, रूस के खिलाफ आर्थिक पाबंदियों को और कड़ा किया जाएगा और दूसरे चीन की घेराबंदी जारी रहेगी। ताइवान की सुरक्षा और हिंद-प्रशांत क्षेत्र सम्मेलन में छाए हुए हैं। हिरोशिमा जापान के प्रधानमंत्री फुमियो किशिदा का गृहनगर भी है। उन्होंने सम्मेलन में भाग लेने कि लिए जिन सात गैर जी-7 देशों को आमंत्रित किया है, उन्हें देखते हुए इस बात को समझा जा सकता है। भारत, ब्राज़ील और इंडोनेशिया जैसी विकासशील अर्थव्यवस्थाओं की उपस्थिति और दक्षिण कोरिया, वियतनाम और ऑस्ट्रेलिया की उपस्थिति इस बात को स्पष्ट करती है। इसके समांतर क्वाड का शिखर सम्मेलन भी हो रहा है, जिसे पिछले हफ्ते ऑस्ट्रेलिया में होना था। जो बाइडेन के कार्यक्रम में बदलाव के कारण वह सम्मेलन स्थगित कर दिया गया था। जो बाइडेन के दिमाग में अमेरिका-नीत विश्व-व्यवस्था है। उसके केंद्र में वे जी-7 को रखना चाहते हैं। बावजूद इसके यूरोपियन यूनियन और अमेरिकी दृष्टिकोणों में एकरूपता नहीं है।
सात देशों का समूह
दुनिया के सात सबसे ताकतवर देशों के नेता हिरोशिमा में एकत्र हुए हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान एटम बम का पहला शिकार बना था हिरोशिमा शहर। संयोग से आज दुनिया फिर से उन्हीं सवालों को लेकर परेशान है, जो दूसरे विश्वयुद्ध के समय उभरे थे। केवल कुछ नाम इधर-उधर हुए हैं। सात देशों के समूह में जापान और जर्मनी शामिल हैं, जो दूसरे विश्वयुद्ध में शत्रु-पक्ष थे। वहीं चीन और रूस जैसे मित्र-पक्ष के देश आज शत्रु-पक्ष माने जा रहे हैं। कुछ साल पहले तक रूस भी इस समूह का सदस्य था, जो अब दूसरे पाले में है। इस अनौपचारिक समूह के सदस्य हैं कनाडा, फ्रांस, जर्मनी, इटली, जापान, युनाइटेड किंगडम और अमेरिका। जी-7 की बैठकों में कुछ मित्र देशों और अंतरराष्ट्रीय संगठनों को बुलाने की भी परंपरा है। इस साल ऑस्ट्रेलिया, ब्राज़ील, कोमोरोस, कुक आइलैंड्स, भारत, इंडोनेशिया, दक्षिण कोरिया और वियतनाम को आमंत्रित किया गया है। इन सम्मेलनों में आर्थिक नीतियाँ, सुरक्षा से जुड़े सवालों, ऊर्जा, लैंगिक प्रश्नों से लेकर पर्यावरण तक सभी सवालों पर चर्चा होती है। इस सम्मेलन को लेकर हमारी विदेश-नीति के साथ भी कुछ बड़े सवाल जुड़े हुए हैं।
भारत की दुविधा
भारतीय विदेश-नीति के लिहाज से यह बड़ा नाज़ुक
समय है। चीन की घेराबंदी में भारत एक हद तक पश्चिम के साथ है, पर रूस के साथ अपने
रिश्ते बिगाड़ना नहीं चाहता। दूसरी तरफ भारत का अमेरिका की तरफ लगातार बढ़ता रुझान
भी नज़र आ रहा है। इसकी वजह भारत से ज्यादा अमेरिका खुद है, जो अब वे सुविधाएं
देने को तैयार है, जिन्हें देने में वह पहले आनाकानी करता रहा है। अगले महीने
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका की पहली राजकीय-यात्रा होने जा रही है, जो
बहुत सी बातें साफ करेगी। अमेरिका की राजकीय-यात्रा को बड़े सम्मान की दृष्टि से
देखा जाता है। मोदी से पहले केवल दो भारतीय नेताओं को यह सम्मान प्राप्त हुआ है।
राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन को 1963 में और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को 2009
में। अमेरिका यात्रा से नरेंद्र मोदी की वापसी के फौरन बाद 3-4 जुलाई को दिल्ली
में एससीओ का शिखर सम्मेलन होगा, जिसमें चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग, रूस के
राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ आने वाले
हैं। सम्मेलन में ईरान के राष्ट्रपति इब्राहीम रईसी तथा मध्य एशिया के देशों के
राष्ट्राध्यक्ष-शासनाध्यक्ष भी आएंगे। इस लिहाज से यह बड़ा आयोजन होगा, जिसके
राजनीतिक निहितार्थ भी बड़े होंगे। एससीओ शिखर सम्मेलन के फौरन बाद नरेंद्र मोदी
फ्रांस के ‘बास्तील राष्ट्रीय-दिवस’ की परेड में
मुख्य अतिथि होंगे। वे कुछ यूरोपियन देशों में भी जाएंगे। अगस्त के महीने में वे
ब्रिक्स के शिखर सम्मेलन में दक्षिण अफ्रीका जाएंगे। इन यात्राओं के साथ भारत की
विदेश-नीति के नए संदेश भी जुड़े हैं। नवंबर में जी-20 का शिखर सम्मेलन और भी बड़ा
आयोजन होगा। भारत संतुलनकारी भूमिका निभा रहा है, पर दुनिया के हालात बदलते देर
नहीं लगती है।
स्वतंत्र विदेश-नीति
भारत जी-20, ब्रिक्स और एससीओ का सदस्य है। इन
तीनों समूहों में भारत की दुविधा और दशा-दिशा दोनों दिखाई पड़ने लगी हैं। ऊपर बताए
गए सभी आयोजनों में भारत को तीन तरह के दृष्टिकोणों का सामना करना है। एक,
पश्चिम-विरोधी, दूसरे पश्चिम-परस्त और तीसरे स्वतंत्र। भारत इतनी बड़ी शक्ति नहीं
है कि वह आसानी से अपनी स्वतंत्र विदेश-नीति का संचालन कर सके, पर इतनी छोटी ताकत
भी नहीं है कि किसी का पिछलग्गू बनकर रहे। जैसा पाकिस्तान इस समय है। इस काम को
अंजाम देना आसान काम नहीं है। पिछले महीने गोवा में हुए एससीओ विदेशमंत्रियों के
सम्मेलन में यह दुविधा सामने आई थी। भारत दो ध्रुवों के बीच अपनी जगह बना रहा है। एससीओ
पर चीन और रूस का वर्चस्व है। वे मिलकर नई
विश्व-व्यवस्था बनाना चाहते हैं। यूक्रेन-युद्ध के बाद से यह प्रक्रिया तेज हुई है।
इसमें एससीओ और ब्रिक्स की महत्वपूर्ण भूमिका होगी। एससीओ के अलावा भारत, रूस और चीन ब्रिक्स के सदस्य भी हैं। ब्राजील हालांकि बीआरआई में
शामिल नहीं है, पर वहाँ हाल में हुए सत्ता परिवर्तन के
बाद उसका झुकाव चीन की ओर बढ़ा है। रूस और चीन के बीच भी प्रतिस्पर्धा है। रूस के
आग्रह पर ही भारत इसका सदस्य बना है। भारत क्वाड का सदस्य भी है, जो रूस और चीन दोनों को नापसंद है।
यूरोप का संशय
एशिया-प्रशांत को लेकर यूरोप और अमेरिका के
अंतर्विरोध हैं। इस अंतर्विरोध का फायदा उठाने के लिए चीन ने अपने विदेशमंत्री छिन
गांग को यूरोप भेजा और अपने विशेष शांतिदूत ली हुई को यूक्रेन और मॉस्को की यात्रा
पर भेजा, ताकि उसे मध्यस्थ के रूप में देखा जाए। पिछले हफ्ते चीनी राष्ट्रपति शी
चिनफिंग ने मध्य एशिया के पाँच देशों के राष्ट्राध्यक्षों को अपने देश में बुलाया
और उनके साथ पहला संयुक्त शिखर सम्मेलन किया। पिछले हफ्ते विदेशमंत्री छिन गांग ने
फ्रांस, जर्मनी और नॉर्वे की अपनी यात्रा पूरी करने के बाद कहा कि यूरोपियन देशों
को एक नए शीत-युद्ध के खिलाफ चीन के अभियान का साथ देना चाहिए। यूरोपियन देश एक
तरफ रूस के खिलाफ अमेरिकी रणनीति से कमोबेश पूरी तरह सहमत हैं, पर चीन को लेकर
उनके मन में संदेह हैं। जो बाइडेन के दिमाग में 2024 का चुनाव भी है, जिसमें चीन
से टकराव मोल लेने का राजनीतिक लाभ है। दूसरी तरफ ब्रिटेन सहित यूरोप के दूसरे देश
टकराव से बचना चाहते हैं। वे चीनी प्रभाव में चलने वाली विश्व-व्यवस्था नहीं
चाहते, पर उसके आर्थिक फायदों के लोभ से भी बाहर आना नहीं चाहते। हाल में चीन के
दौरे पर गए फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने यूरोप के देशों का आह्वान
किया था कि हमें ऐसी लड़ाई का हिस्सा नहीं बनना चाहिए जो हमारी नहीं है। ऐसे में चीनी
रणनीतिकार बड़ी सावधानी से यूरोप को लुभा रहे हैं। वे अमेरिका और यूरोप के
ट्रांस-अटलांटिक सहयोग को तोड़ना चाहते हैं, पर रूस के प्रति उसका झुकाव आड़े आ
रहा है।
बदलता आर्थिक-विश्व
जी-7 पहले जी-6 होता था। बाद में इसमें कनाडा
को शामिल किया गया। 1998 में इसमें रूस भी शामिल हो गया, पर 2014 में क्राइमिया पर
जब उसने कब्जा कर लिया, तो उसे इस ग्रुप से बाहर कर दिया गया। यह भी स्पष्ट कि ‘विश्व-व्यवस्था’ तेज़ी से बदल रही है। इसमें दो ऐसे देश शामिल हैं जिनके
पश्चिमी देशों के साथ रिश्ते खासे तल्ख़ हैं। साफ है कि जी-7 देशों की आर्थिक
स्थिति पहले की तरह मज़बूत नहीं रहेगी। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के अनुसार 1990
में इस संगठन में शामिल देशों का दुनिया की जीडीपी में 50 फ़ीसदी से अधिक योगदान
था। अब यह 30 फ़ीसदी के आसपास रह गया है। यदि इसकी आर्थिक शक्ति इसी तरह क्षीण
होती रही, तो इसका राजनीतिक महत्व भी कम हो जाएगा। इस कारण जापान और अमेरिका इसका
वैश्विक विस्तार करने की कोशिश में हैं। रूस और चीन, जी-7
की गेस्ट लिस्ट में शामिल नहीं हैं। जापान के प्रधानमंत्री किशिदा ने बीते 18
महीनों में 16 विदेशी दौरे किए हैं, इनमें भारत,
अफ़्रीका और दक्षिण पूर्वी देश शामिल हैं। वे बताना चाहते हैं कि चीन
और रूस के संसाधनों और ताक़त के अलावा और भी विकल्प हैं।
ग्लोबल साउथ
वे उन देशों को अपनी तरफ आकर्षित करना चाहते
हैं, जिन्हें 'ग्लोबल
साउथ' कहा जाता है। संयोग से भारत भी इसी रास्ते पर
चल रहा है। 'ग्लोबल साउथ' शब्द
का इस्तेमाल एशिया, अफ़्रीका और लैटिन अमेरिका के उन विकासशील
देशों के लिए किया जाता है, जिनके रूस और चीन के साथ पहले से राजनीतिक
और आर्थिक संबंध हैं। लैटिन अमेरिकी देशों के साथ चीन के व्यापारिक रिश्ते बहुत
अच्छे हैं। इस इलाक़े की जीडीपी में चीन का योगदान 8.5 फ़ीसदी है। ब्राज़ील चीन से
जितना आयात करता है, उससे कहीं अधिक उसे निर्यात करता है। घाना
और ज़ाम्बिया समेत अनेक अफ्रीकी देश चीनी कर्ज़ के बोझ तले दबे हैं।
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