Sunday, February 27, 2022

यूक्रेन में फौजी ताकत का खेल


यूक्रेन पर रूस का धावा अब उतनी महत्वपूर्ण बात नहीं है, बल्कि उसके बाद उभरे सवाल ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। अब क्या होगा? राजनीतिक फैसले क्या अब ताकत के जोर पर होंगे? कहाँ है संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद?  पश्चिमी देशों ने यूक्रेन को पिटने क्यों दिया?  पिछले अगस्त में अफगानिस्तान में तालिबानी विजय के बाद अमेरिकी शान पर यह दूसरा हमला है। हमले की निंदा करने की सुरक्षा परिषद की कोशिश को रूस ने वीटो कर दिया। क्या यह क्षण अमेरिका के क्षय और रूस के पुनरोदय का संकेत दे रहा है? क्या वह चीन के साथ मिलकर अमेरिका की हैसियत को कमतर कर देगा? भारत ने साफ तौर पर हमले की निंदा करने से इनकार कर दिया है। अमेरिका से बढ़ती दोस्ती के दौर में क्या यह रुख सही है? क्या अब हमें अमेरिका के आक्रामक रुख का सामना करना होगा? हमने हमले का विरोध भले ही नहीं किया है, पर शांति स्थापित करने और रूसी सेनाओं की वापसी के लिए हमें प्रयास करने होंगे। सैनिक-शक्ति से किसी राजनीतिक-समस्या का समाधान नहीं किया जा सकता है।

ताकत के जोर पर

रूस ने इस बात को स्थापित किया है कि ताकत और हिम्मत है, तो इज्जत भी मिलती है। अमेरिका ने इराक, अफगानिस्तान, सीरिया और लीबिया जैसे तमाम देशों में क्या ऐसा ही नहीं किया? बहरहाल अब देखना होगा कि रूस का इरादा क्या है?  शायद उसका लक्ष्य यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर ज़ेलेंस्की को हटाकर उनके स्थान पर अपने समर्थक को बैठाना है। दूसरी तरफ पश्चिमी देश यूक्रेनी नागरिकों को हथियार दे रहे हैं, ताकि वे छापामार लड़ाई जारी रखें। बेशक वे प्रतिरोध कर रहे हैं और जो खबरें मिल रही हैं, उनसे लगता है कि रूस के लिए इस लड़ाई को निर्णायक रूप से जीत पाना आसान नहीं होगा।

राष्ट्रपति ज़ेलेंस्की देश में मौजूद हैं और उनकी सेना आगे बढ़ती रूसी सेना के शरीर में घाव लगा रही है। बहरहाल आगे की राह सबके लिए मुश्किल है। रूस, यूक्रेन तथा पश्चिमी देशों के लिए भी। अमेरिका और यूरोप के देश सीधे सैनिक हस्तक्षेप करना नहीं चाहते और लड़ाई के बगैर रूस को परास्त करना चाहते हैं। फिलहाल वे आर्थिक-प्रतिबंधों का सहारा ले रहे हैं। यह भी सच है कि उनके सैनिक हस्तक्षेप से लड़ाई बड़ी हो जाती।

रूसी इरादा

इस हफ्ते जब रूस ने पूर्वी यूक्रेन में अलगाववादियों के नियंत्रण वाले लुहांस्क और दोनेत्स्क को स्वतंत्र क्षेत्र के रूप में मान्यता दी और फिर सेना भेजी, तभी समझ में आ गया था कि वह सैनिक कार्रवाई करेगा। पहले लगता था कि वह इस डोनबास क्षेत्र पर नियंत्रण चाहता है, जो काफी हद तक यूक्रेन के नियंत्रण से मुक्त है। अब लगता है कि वह पूरे यूक्रेन को जीतेगा। फौजी विजय संभव है, पर उसे लम्बे समय तक निभा पाना आसान नहीं। यूक्रेन के कुछ हिस्से को छोड़ दें, जहाँ रूसी भाषी लोग रहते हैं, मुख्य भूमि पर दिक्कत है। यह बात 2014 में साबित हो चुकी है, जब वहाँ रूस समर्थक सरकार थी। उस वक्त राजधानी कीव में बगावत हुई और तत्कालीन राष्ट्रपति विक्टर यानुकोविच को भागकर रूस जाना पड़ा। उसी दौरान रूस ने क्रीमिया प्रायद्वीप पर कब्जा किया, जो आज तक बना हुआ है।

जनता का विरोध

अमेरिका चाहता है कि रूसी हमले का विरोध जनता करे। यूक्रेन इतना छोटा देश नहीं है कि डेढ़-दो लाख सैनिक उसपर कब्जा बनाकर रख सकें। रूस से लड़ने के लिए नागरिकों को यूरोप से हथियार और संसाधन भी मिलेंगे। आर्थिक प्रतिबंध भी रूस के लिए मुश्किलें पैदा करेंगे। रूसी बैंकों के साथ दुनिया के बैंकों का लेनदेन बंद हो जाएगा। तमाम कंपनियाँ और उनसे जुड़ी कंपनियाँ रूस से संपर्क नहीं रखेंगी। चोट अमेरिकी अर्थव्यवस्था को भी लगेगी, पर रूस के लिए उसे सहन करना आसान नहीं होगा। यूरोपीय देशों ने अभी स्विफ्ट फाइनेंशियल मैनेजमेंट सिस्टम के दायरे से रूस को बाहर नहीं किया है। बाहर किया, तो रूस के साथ जर्मनी जैसे देशों की परेशानियाँ भी बढ़ जाएंगी, जो रूस से गैस खरीदने के लिए इस के मार्फत भुगतान करते हैं। रूसी गैस पर आश्रय नेटो देशों के असमंजस को बनाए रखेगा।

अमेरिकी रणनीति

अमेरिकी रणनीति को सफल होने में समय लगेगा। जो बाइडेन के सामने चुनौती केवल रूस और चीन की नहीं है, बल्कि अपने देश के भीतर डोनाल्ड ट्रंप की भी है, जिन्हें मौके की तलाश है। ट्रंप ने पुतिन को जीनियसबताया है। इस साल अमेरिका में मध्यावधि चुनाव होने वाले हैं। बाइडेन-नेतृत्व विफल साबित हुआ, तो सब कुछ बिखर जाएगा। उधर व्लादिमीर पुतिन के हाल के वक्तव्यों से लगता है कि उनका निशाना केवल यूक्रेन नहीं है। उनकी नजर पूर्वी यूरोप के उन देशों पर भी है, जो कभी वॉरसा पैक्ट के सदस्य थे और अब नेटो में हैं। वह इन देशों में घुसने की कशिश नहीं करेगा, क्योंकि तब नेटो की सेनाएं सामने आ जाएंगी। बहरहाल पुतिन ने नाभिकीय युद्ध की धमकी दी है, जिसकी अनदेखी नहीं की जा सकती है।  

तेल की कीमतें 

सैनिक कार्रवाई शुरू होने के बाद पहली प्रतिक्रिया तेल-बाजार से मिली है। पेट्रोलियम की क़ीमतें सौ डॉलर प्रति बैरल पार कर गईं, पर अगले ही दिन वे गिर भी गईं। ये कीमतें हफ़्ते के शुरू में रूस पर अमेरिका और पश्चिमी देशों के प्रतिबंध लगने और रूसी गैस पाइप लाइन को ब्लॉक करते ही बढ़ने लगी थीं। सऊदी अरब के बाद क्रूड ऑयल का दूसरा सबसे बड़ा निर्यातक रूस है। ज्यादा बड़ा सवाल है कि युद्ध की स्थिति कितनी लम्बी चलेगी और पश्चिमी प्रतिबंधों का रूस पर असर कितना गहरा होगा। हमले के फौरन बाद दुनियाभर के शेयर बाजारों के साथ भारतीय बाज़ार भी क्रैश हुआ, पर अगले दिन ही संभल गया। यह सब क्या बता रहा है? वैश्विक अर्थव्यवस्था रूसी ताकत का जवाब दे रही है।

भारत का रुख

भारत ने न तो रूसी हमले का विरोध किया है और न यूक्रेन की पूर्ण-सम्प्रभुता का समर्थन। सुरक्षा परिषद के अमेरिका-समर्थित जिस प्रस्ताव पर रूस ने वीटो किया, उसमें भारत अनुपस्थित रहा। उसके पहले ही भारत में रूस के कार्यकारी राजदूत रोमान बाबुश्किन भारतीय रुख को स्वतंत्र बताते हुए उसकी तारीफ कर चुके थे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने व्लादिमीर पुतिन के साथ फोन पर बात भी की। भारतीय दृष्टिकोण राष्ट्रीय हितों को व्यक्त कर रहा है। रूस हमारा सामरिक-सहयोगी है। लद्दाख में चीन के साथ हुए टकराव के समय भी उसने हमारी जरूरतों को पूरा किया। एस-400 प्रक्षेपास्त्र प्रणाली की पहली डिवीजन की आपूर्ति भी की है। अंदेशा है कि इन बातों को देखते हुए भारत पर अमेरिका काट्सा के तहत प्रतिबंध लगा सकता है।

स्वतंत्र विदेश-नीति

पर्यवेक्षकों का कहना है कि हम केवल अपनी स्वतंत्र विदेश-नीति और राष्ट्रहित को रेखांकित करना चाहते हैं। अतीत में भी भारत ने मध्य-यूरोप की सुरक्षा-व्यवस्था में सोवियत संघ का समर्थन किया था। 1956 में हंगरी में और 1968 में चेकोस्लोवाकिया में सोवियत सेनाओं के हस्तक्षेप का भारत ने विरोध नहीं किया था। 1980 में अफगानिस्तान में सोवियत सेना के प्रवेश का भी भारत ने विरोध नहीं किया था। भारत ने हाल के वर्षों में फ्रांस के साथ रिश्ते बेहतर किए हैं। हमारे रुख के साथ सैद्धांतिक सवाल भी जुड़े हैं। सैनिक हमले का समर्थन कैसे किया जा सकता है? यदि हम दक्षिण चीन सागर में चीनी-प्रभुत्व को अस्वीकार करते हैं, तो मध्य यूरोप में रूसी प्रभुत्व को कैसे स्वीकार करेंगे? इन दिनों रूस के रिश्ते चीन और पाकिस्तान के साथ बेहतर हो रहे हैं। जिस वक्त यूक्रेन में सैनिक कार्रवाई हुई, पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान मॉस्को में थे। उन्होंने पाकिस्तान से रवाना होने के एक दिन पहले ही भारतीय व्यवस्था के खिलाफ बहुत कड़वा बयान दिया था। दूसरी तरफ यह मान लेना गलत होगा कि रूस के चीन के साथ बहुत मधुर संबंध बने रहेंगे। इन जटिल बातों को समझने के लिए हमें अगले कुछ दिनों के घटनाक्रम पर नजर रखनी होगी।

भारत का स्पष्टीकरण

भारत ने एक बयान जारी कर यूक्रेन मुद्दे पर अपनी राय रखी साथ ही ये भी बताया कि मतदान नहीं करने का विकल्प क्यों चुना गया, जो इस प्रकार है-

  • यूक्रेन में हाल के दिनों में हुए घटनाक्रम से भारत बेहद विचलित है.
  • हम अपील करते हैं कि हिंसा और दुश्मनी को तुरंत ख़त्म करने के लिए सभी तरह की कोशिशें की जाएं.
  • इंसानी ज़िंदगी की कीमत पर कभी कोई हल नहीं निकाला जा सकता है.
  • हम यूक्रेन में बड़ी संख्या में भारतीय छात्रों समेत भारतीय समुदाय के लोगों की सुरक्षा को लेकर भी चिंतित हैं.
  • समसामयिक वैश्विक व्यवस्था संयुक्त राष्ट्र चार्टर, अंतरराष्ट्रीय क़ानून और अलग-अलग देशों की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता के सम्मान पर आधारित है.
  • सभी सदस्य देशों को रचनात्मक तरीक़े से आगे बढ़ने के लिए इन सिद्धांतों का सम्मान करने की आवश्यकता है.
  • मतभेद और विवादों को निपटाने के लिए बातचीत एकमात्र ज़रिया है, चाहें ये रास्ता कितना भी मुश्किल क्यों न हो.
  • ये खेद की बात है कि कूटनीति का रास्ता छोड़ दिया गया है. हमें इस पर लौटना ही होगा.
  • इन सभी वजहों से भारत ने इस प्रस्ताव पर मतदान नहीं करने का विकल्प चुना है.
बीबीसी हिंदी ने खबर दी है कि यूक्रेन पर रूस के आक्रमण के ख़िलाफ़ संयुक्त राष्ट्र में हुई वोटिंग से दूरी बनाने के बाद अमेरिका ने भारत से कहा है कि वह अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था की सुरक्षा के लिए रूस पर अपने रिश्तों के प्रभाव का इस्तेमाल करे। अंग्रेज़ी अख़बार टाइम्स ऑफ इंडिया ने इस ख़बर को प्रमुखता से जगह दी है। अख़बार के अनुसार संयुक्त राष्ट्र में यूक्रेन मसले पर लाए गए प्रस्ताव को लेकर ख़ुलकर पश्चिमी देशों के गठबंधन का समर्थन न करने और वोटिंग से दूरी बनाए रखने के बाद भारत और अमेरिका के बीच थोड़ी असहजता आ गई है।

अमेरिकी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता नेड प्राइस से जब पूछा गया कि क्या यूक्रेन संकट ने भारत और अमेरिका के संबंधों को तनावपूर्ण बना दिया है क्योंकि भारत के रूस और अमेरिका दोनों से ही अच्छे संबंध हैं। इस पर नेड प्राइस ने कहा कि अमेरिका ये समझता है कि भारत की रूस से रिश्तों की प्रकृति अमेरिका से उसके संबंधों की तुलना में अलग है।

लेकिन उन्होंने कहा कि अमेरिका ने भारत पर भरोसा जताते हुए उससे कहा है कि दुनियाभर के देश, ख़ासतौर पर वे देश, जिनका रूस पर प्रभाव है, उन्हें अपने प्रभाव को अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था की रक्षा के लिए इस्तेमाल करने की आवश्यकता है।

हरिभूमि में प्रकाशित

 

 

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