Wednesday, February 2, 2022

छुटकारा कैसे मिले, इस ‘जानलेवा विषमता’ से?

विकास, संवृद्धि और उत्पादन के खुशगवार आँकड़ों की बहार है, पर जब आइना देखते हैं, तब चेहरे की झुर्रियाँ हैरान और परेशान करती है। ऐसा ऑक्सफ़ैम असमानता-रिपोर्ट से हुआ है। ‘इनइक्वैलिटी किल्स’ शीर्षक से जारी रिपोर्ट के अनुसार भारत में आर्थिक-विषमता भयानक तरीके से बढ़ रही है। 2021 में देश के 84 फीसदी परिवारों की आय घटी है, पर इसी अवधि में अरबपतियों की संख्या 102 से बढ़कर 142 हो गई है। मार्च 2020 से 30 नवंबर, 2021 के बीच अरबपतियों की संपत्ति 23.14 लाख करोड़ रुपये (313 अरब डॉलर) से बढ़कर 53.16 लाख करोड़ रुपये (719 अरब डॉलर) हो गई है, जबकि 2020 में 4.6 करोड़ से अधिक देशवासी आत्यंतिक गरीबी-रेखा के दायरे में आ गए हैं।

वैश्विक-चिंतन की दिशा

ऑक्सफ़ैम की वैश्विक-विषमता रिपोर्ट स्विट्जरलैंड के दावोस में विश्व आर्थिक फोरम के सम्मेलन के पहले आती है। दावोस का फोरम कारोबारी संस्था है, जिसे कॉरपोरेट दुनिया संचालित करती है। नब्बे के दशक में जबसे आर्थिक उदारीकरण और वैश्वीकरण की बातें शुरू हुई हैं वैश्विक गरीबी और असमानता सुर्खियों में है। समाधान खोजे गए, पर वे कारगर नहीं हुए। सहस्राब्दी लक्ष्यों को 2015 तक हासिल करने में संयुक्त राष्ट्र विफल रहा। अब उसने 2030 के लक्ष्य निर्धारित किए हैं। विकास और विषमता की विसंगति को दावोस का फोरम भी स्वीकार करता है। वहाँ भी ऑक्सफ़ैम-रिपोर्ट का जिक्र हुआ है।

रिपोर्ट कहती है कि महामारी के दौर में दुनिया में अरबपतियों की संपदा में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। हर रोज एक नया अरबपति पैदा हुआ है। दुनिया के 10 सबसे अमीर व्यक्तियों की इस दौरान संपत्ति दोगुनी हो गई, जबकि मार्च, 2020 से नवंबर, 2021 के बीच, कम से कम 16 करोड़ लोग गरीबी के गड्ढे में जा गिरे। चीन और अमेरिका के बाद भारत तीसरा ऐसा देश है, जहां अरबपतियों की संख्या सबसे अधिक है। इस असमानता को आर्थिक हिंसा करार दिया गया है, जो तब होती है, जब सबसे अमीर और ताकतवर लोगों के लिए सहूलियत वाली ढांचागत नीतियां बनती हैं। रिपोर्ट क्रोनी कैपिटलिज्म की ओर भी इशारा करती है।

राष्ट्रीय नीतियाँ

यह वृद्धि ऐसे समय में हुई है, जब भारत में बेरोजगारी-दर शहरी इलाकों में 15 फीसदी तक है और स्वास्थ्य-सेवा चरमरा चुकी है। कोरोना के दौर में देश के स्वास्थ्य बजट में 2020-21 के संशोधित अनुमान से 10 फीसदी की गिरावट देखने को मिली। शिक्षा के आवंटन में 6 फीसदी की कटौती हुई, जबकि सामाजिक सुरक्षा के लिए आवंटन कुल बजट के 1.5 फीसदी से घटकर 0.6 हो गया।

भारत का सालाना आम बजट पेश होने वाला है। यह समय इस विमर्श के लिए सही है। इस बीच पीपुल्स रिसर्च ऑन इंडियाज़ कंज्यूमर इकोनॉमी के आइस360 सर्वे के परिणाम भी इशारा कर रहे हैं कि भारत में असमानता बढ़ रही है। न्यूनतम वेतन (या मजदूरी), नियमन और टैक्सेशन इसे रोकने के रास्ते हैं। 

भयावह असमानता

ऑक्सफोर्ड कमेटी फॉर फ़ैमीन यानी ऑक्सफ़ैम, दुनियाभर में मुफलिसों और ज़रूरतमंदों की सहायता करती है और भूकंप, बाढ़ या अकाल जैसी आपदाओं के मौके पर राहत पहुँचाती है। उसकी रिपोर्ट से एक महीने पहले पेरिस स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स की वर्ल्ड इनइक्वैलिटी लैब ने वर्ल्ड इनइक्वैलिटी रिपोर्ट-2022 जारी की थी, जिसकी विश्वसनीयता बहुत ज्यादा है। उस तैयार करने में लुकाच चैंसेल, टॉमस पिकेटी, इमैनुएल सेज़ और गैब्रियल जुचमैन ने करीब चार साल तक मेहनत की है। इन दोनों रिपोर्टों को साथ-साथ पढ़ना चाहिए।   

वर्ल्ड इनइक्वैलिटी रिपोर्ट-2022 की प्रस्तावना अभिजित बनर्जी और एस्थर ड्यूफ्लो ने लिखी है, जिन्हें 2019 में अर्थशास्त्र के नोबेल पुरस्कार से अलंकृत किया गया था। उन्होंने लिखा है कि यूरोप को छोड़कर दुनिया के ज्यादातर हिस्सों में 50 फीसदी आबादी की आय कुल आय की 15 फीसदी से कम है। लैटिन अमेरिका, उप-सहारा और मध्य-पूर्व तथा उत्तरी अफ्रीका (मेना-क्षेत्र) में 10 फीसदी से भी कम है। दूसरी तरफ टॉप के 10 फीसदी लोगों की आय 40 फीसदी से ज्यादा और कई जगह 60 से भी ज्यादा है।

आधी आबादी के पास दुनिया की केवल दो फीसदी सम्पदा है, और दो फीसदी के पास आधी से ज्यादा। इस रिपोर्ट को लिखने वालों के अनुमान से 1995 से 2021 के बीच दुनिया में जिस नई सम्पदा का सृजन हुआ है उसका 38 फीसदी हिस्सा टॉप के एक फीसद अमीरों को मिला है। दुनिया के सबसे असमान देशों में भारत भी है और जल्द ही चीन भी इसमें शामिल हो जाएगा।

विकास किस काम का?

पिछले डेढ़-दो सौ साल में समृद्धि बढ़ी, पर असमानता कम नहीं हुई, बल्कि बढ़ी। ऐसा क्यों हुआ और रास्ता क्या है? सन 2015 में अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार पाने वाले प्रोफेसर एंगस डीटन लम्बे अरसे से इस सवाल से जूझ रहे हैं उनके ज्यादातर अध्ययन पत्र भारत की गरीबी और कुपोषण से जुड़े हैं। वे मानते हैं कि आर्थिक विकास की परिणति विषमता भी है। पर यदि संवृद्धि बड़े तबके को गरीबी के फंदे से बाहर निकाल रही है, तो उसे रोका नहीं जा सकता। इसके लिए जनता और शासन के बीच सहमति होनी चाहिए।

प्रो डीटन भारत में ज्यां द्रेज, अभिजित बनर्जी, जिंशु दास वगैरह के साथ मिलकर गरीबी उन्मूलन, सार्वजनिक स्वास्थ्य, पोषण और इनसे सम्बद्ध विषयों पर काम कर चुके हैं। आमतौर पर नोबेल पुरस्कार उन लोगों को मिलता है जो फ्री मार्केट का समर्थन करते हैं। पर पिछले कुछ दशकों में बाजारवाद के आलोचकों को भी यह सम्मान मिला है। इनमें जॉर्ज एकरलॉफ, जोज़फ स्टिग्लिट्ज़, रॉबर्ट शिलर और अमर्त्य सेन हैं और अभिजित बनर्जी-एस्थर ड्यूफ्लो जैसे मध्यमार्गी भी।

डीटन ने बताया कि अठारहवीं सदी के बाद से दुनिया में समृद्धि बढ़ी है, जिसके कारण लोगों की औसत उम्र बढ़ी, स्वास्थ्य बेहतर हुआ, गरीबी कम हुई, पर ऐसा पूरी दुनिया में नहीं हुआ। दूसरी ओर असमानता भी बढ़ी। मोटी बात है कि संवृद्धि तभी उपयोगी है, जब उसका न्यायपूर्ण वितरण हो। आप खुद से पूछें कि ऐसा क्यों नहीं हुआ?

नवजीवन में प्रकाशित

2 comments:

  1. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा गुरुवार (03-02-2022 ) को 'मोहक रूप बसन्ती छाया, फिर से अपने खेत में' (चर्चा अंक 4330) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।

    चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।

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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।

    #रवीन्द्र_सिंह_यादव

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  2. चिंतनीय विषय यथार्थ की भयावहता दर्शाती जानकारी युक्त पोस्ट।

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