Tuesday, June 24, 2025

पश्चिम-एशिया के चक्रव्यूह का ख़तरनाक दौर


पश्चिम एशिया में युद्ध फिलहाल थम गया है। यहाँ फिलहाल शब्द सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है, क्योंकि दूसरी लड़ाई कब और कहाँ शुरू हो जाएगी, कहना मुश्किल है। गज़ा में एक तरह से वह चल ही रही है। ईरान-इसराइल सीधा टकराव फिलहाल रुक गया है। अमेरिका के भी लड़ाई में शामिल हो जाने के बाद एकबारगी लगा था कि शायद यह तीसरे विश्वयुद्ध की शुरुआत है। शायद उसी घड़ी सभी पक्षों ने सोचना शुरू कर दिया था कि ज्यादा बड़ी लड़ाई को रोकना चाहिए। लड़ाई रुकी भी इस अंदाज़ में है कि अमेरिका, इसराइल और ईरान तीनों कह सकते हैं कि अंतिम विजय हमारी ही हुई है। अमेरिका कह सकता है कि उसने ईरान के परमाणु कार्यक्रम को पीछे धकेल दिया है। इसराइल कह सकता है कि उसने ईरान को कमज़ोर कर दिया है, और ईरान कह सकता है कि उसने बहुत ज़्यादा ताकतवर सैन्य शक्तियों को पीछे धकेल दिया है।

ईरान अब आगे क्या करेगा, यह अभी एक खुला प्रश्न है। हालाँकि क्षेत्र में अमेरिकी सेना पर उसका सीमित हमला एक गहरे संघर्ष से बचने के लिए किया गया था, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि शत्रुता समाप्त हो गई है। पश्चिमी अधिकारी मानते हैं कि ईरान के परमाणु प्रतिष्ठानों पर अमेरिकी हमलों के बावजूद, उन्हें नहीं पता कि ईरान के यूरेनियम भंडार का क्या हुआ। क्या ईरान के पास यूरेनियम को और समृद्ध करने की क्षमता है? क्या वह आक्रामकता के और अधिक गुप्त तरीके आजमाएगा? या अब वह अपने खिलाफ़ लगे कड़े प्रतिबंधों को हटाने के लिए बातचीत करने की कोशिश करेगा?

अमेरिकी बेस पर मिसाइलें दागने और राष्ट्रपति ट्रंप द्वारा इसराइल के साथ युद्ध विराम कराने के प्रयास से पहले ही, ईरान बाहर निकलने का रास्ता तलाश रहा था। सोमवार 23 जून की सुबह, ईरान की सर्वोच्च राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद ने अमेरिका के खिलाफ जवाबी हमले पर चर्चा करने के लिए एक आपातकालीन बैठक की। अमेरिकियों ने उसके पहले शनिवार को ईरान के तीन मुख्य परमाणु केंद्रों पर बमबारी की थी, जो इसराइल द्वारा एक सप्ताह तक किए गए हमलों के बाद एक और गंभीर झटका था, जिसने ईरान के सैन्य नेतृत्व और बुनियादी ढाँचे को गंभीर नुकसान पहुँचाया था।

सोच-समझ कर लड़े

न्यूयॉर्क टाइम्स की संयुक्त राष्ट्र ब्यूरो प्रमुख फ़र्नाज़ फ़स्सिही ने लिखा है कि  ईरान को अपनी प्रतिष्ठा बचाने की जरूरत थी। युद्ध की योजना से परिचित चार ईरानी अधिकारियों के अनुसार, एक बंकर के अंदर से ईरान के सर्वोच्च नेता आयतुल्ला अली खामनेई ने जवाबी हमला करने का आदेश दिया था। अधिकारियों के अनुसार, आयतुल्ला ने यह भी निर्देश भेजे कि हमलों को सीमित रखा जाए, ताकि अमेरिका के साथ पूर्ण युद्ध से बचा जा सके।

ईरान प्रतीक रूप में एक अमेरिकी लक्ष्य पर हमला करना चाहता था, लेकिन वह अमेरिका की ओर से और अधिक हमलों को रोकने का इच्छुक भी था। ईरान के रिवॉल्यूशनरी गार्ड्स कोर ने कतर में अल उदीद एयर बेस को दो कारणों से चुना, ऐसा गार्ड्स के दो सदस्यों ने कहा: चूंकि यह क्षेत्र में सबसे बड़ा अमेरिकी सैन्य बेस है, इसलिए उनका मानना ​​था कि यह बेस सप्ताहांत में ईरान के परमाणु प्रतिष्ठानों पर अमेरिकी बी-2 हमलों के समन्वय में शामिल था। चूंकि यह ईरान के करीबी सहयोगी कतर में है, इसलिए ईरानी अधिकारियों का भी मानना ​​है कि इससे होने वाले नुकसान को काफी कम रखा जा सकता है।

पर्दे के पीछे, ईरान के नेता यह आशा कर रहे थे कि उनके सीमित हमले और अग्रिम चेतावनी से राष्ट्रपति ट्रंप पीछे हटने के लिए राजी हो जाएँगे, जिससे ईरान भी ऐसा कर सकेगा। उन्होंने यह भी आशा व्यक्त की कि वाशिंगटन इसराइल पर ईरान पर हवाई हमले बंद करने के लिए दबाव डालेगा, जो ईरान के परमाणु स्थलों पर अमेरिकी हमले से काफी पहले शुरू हो गए थे और ईरान की राजधानी तेहरान के निवासियों के अनुसार, सोमवार रात तक जारी थे।

नूरा कुश्ती

कतर में अमेरिकी सेना पर गोलीबारी करने से पहले, ईरानी अधिकारियों में से एक ने कहा था कि योजना यह थी कि कोई भी अमेरिकी मारा न जाए, क्योंकि किसी भी मौत से अमेरिका जवाबी कार्रवाई करने के लिए प्रेरित हो सकता है, जिससे हमलों का एक चक्र शुरू हो सकता है। योजना कारगर साबित हुई। इसके बाद, ट्रंप ने कहा कि अल उदीद पर दागी गई 14 ईरानी मिसाइलों में से 13 को गिरा दिया गया है, वहां कोई भी अमेरिकी नागरिक मारा या घायल नहीं हुआ है, और नुकसान बहुत कम हुआ है। एक उल्लेखनीय बयान में, ट्रंप ने ईरान को इस बात के लिए धन्यवाद दिया कि उन्हें पहले से सूचना दे दी गई थी, जिससे किसी की जान नहीं गई और कोई घायल नहीं हुआ।

हमले के दो दिन बाद अचानक युद्धविराम की घोषणा और उसके बाद ईरान के इनकार से भी कई सवाल उठे हैं। क्या अमेरिका और इसराइल के लक्ष्य प्राप्त हो गए हैं? ट्रंप ने कहा है कि ईरान के परमाणु ठिकानों को तबाह कर दिया गया है, पर इस बयान को पूरी तरह मान लेने की भी कोई वजह नहीं है। यह प्रचारात्मक बयान है। अमेरिका के रक्षा-सूत्र बता रहे हैं कि यह कहना जल्दबाजी होगी कि ईरान के पास अब परमाणु हथियार बनाने की क्षमता है या नहीं। इन बातों के जवाब देने की कोशिश करते समय राजनीतिक बयानों से उन तत्वों को अलग करने की ज़रूरत भी है, जिनका उद्देश्य भ्रम फैलान या वास्तविकता पर पर्दा डालनहोता है।

न्यूयॉर्क टाइम्स के एक विश्लेषण के अनुसार, डॉनल्ड ट्रंप ने अपने प्रशासन के शुरुआती महीनों में इसराइल के प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू को ईरान पर हमले के खिलाफ चेतावनी दी थी, लेकिन 13 जून की सुबह तक, पहले इसराइली हमले के कुछ घंटों बाद, उन्होंने अपना सुर बदल दिया। इस बदलाव की गूढ़ बातों को समझने में कुछ देर लगेगी। इस हमले के कारण पहाड़ की गहराई में स्थित संवर्धन स्थल फ़ोर्दो तथा दो अन्य ईरानी परमाणु स्थलों पर अमेरिकी हमले से ईरान का परमाणु कार्यक्रम पूरी तरह तबाह तो नहीं होगा, लेकिन ईरान युद्ध को और व्यापक बना सकता है या कार्यक्रम में तेजी ला सकता है।

अमेरिकी इरादा

अमेरिका की मनोकामना ईरान की नाभिकीय क्षमता को खत्म करने की है, या उसके आला-नेतृत्व को समाप्त करने की? इसराइल के वर्चस्व को स्थापित करने की या पश्चिम एशिया के आर्थिक-समीकरणों को नई शक्ल देने की? या इन सबको जोड़कर देखना होगा? सवाल यह भी है कि ईरान के पीछे, अमेरिका और इसराइल क्यों पड़े हैं? झगड़ा किस बात का है? ईरान दबने या घबराने के बजाय, क्या इस लड़ाई को आगे ले जाएगा? उसके पास क्या लंबी लड़ाई की सामर्थ्य है?

अरब देशों और ईरान के नज़रियों में फर्क क्या है? ऐसा भी नहीं कि अरब देश पूरी तरह अमेरिका-परस्त हैं। उनके रूस, चीन और अमेरिका से भी रिश्ते हैं। ऐसा ईरान के साथ क्यों नहीं है? दूसरे शब्दों में पूछें कि अमेरिकी दादागीरी को अरब देशों ने स्वीकार कर लिया है, ईरान ने क्यों नहीं? इन बातों के जवाब औपचारिक बयानों में नहीं, बैकरूम बातचीत में मिलेंगे। पर ये बातें एकदम से सामने नहीं आएँगी। पश्चिम एशिया के मंच पर चीन और रूस को हम नहीं देख पा रहे हैं, क्योंकि वे इसमें सीधे भागीदार नहीं हैं, पर वे नेपथ्य में उनकी उपस्थिति की अनदेखी नहीं की जा सकती हैं।

पश्चिमी देशों के बनते-बिगड़ते गठबंधन की भी इस इलाके में भूमिका है। इतना स्पष्ट है कि इस टकराव को रोक पाने में अंतरराष्ट्रीय न्यायालय से लेकर संरा सुरक्षा परिषद तक सब नाकाम हुए हैं। हम इस मामले में भारत को कहाँ खड़ा पाते हैं? हमें क्या करना चाहिए और क्या हम वह कर पा रहे हैं?

धार्मिक सत्ता

इन हमलों के ईरान में अप्रत्याशित परिणाम होंगे या नहीं यह भी देखना है। देश की धार्मिक-सत्ता ने, जिसने 1979 की इस्लामी क्रांति के बाद से लगभग आधी सदी तक शासन किया है, ने कई घरेलू विद्रोहों के बावजूद अपनी स्थिरता साबित की है। आर्थिक प्रतिबंधों और तीव्र अमेरिकी दबाव के बावजूद उसने अपनी जीवनी-शक्ति को साबित किया है। 13 जून को अचानक इसराइली हमला होने के पहले ईरान और अमेरिका ईरान के परमाणु कार्यक्रम की सीमाओं पर चर्चा कर रहे थे। ईरान परमाणु हथियारों के लिए आवश्यक स्तर के करीब ईंधन का उत्पादन तेजी से कर रहा था। इस वार्ता के तहत ईरान के नाभिकीय-कार्यक्रम पर नई सीमाओं के बदले में, उसे आर्थिक प्रतिबंधों से राहत मिलती।

हालांकि दोनों पक्ष किसी अंतिम समझौते के करीब नहीं थे, लेकिन जून की शुरुआत में संभावित समझौते के संकेत भी सामने आए थे। जब इसराइल ने ईरान पर हमला किया, तो वार्ता विफल हो गई। फिर भी, ईरान ने संकेत दिया है कि वह बातचीत करने के लिए तैयार है। अब भी लगता है कि अमेरिकी हमला भी जरूरी नहीं कि दोनों पक्षों के बातचीत की मेज पर लौटने की संभावनाओं को खत्म कर दे।

विश्लेषकों का कहना है कि अमेरिकी और इसराइली हवाई हमलों से परमाणु सुविधाओं को जो नुकसान पहुँचा है और शीर्ष परमाणु वैज्ञानिकों की हत्या हुई है, उसके कारण ईरान में शायद परमाणु हथियार बनाने की क्षमता नहीं है। फिर भी, वह उस दिशा में आगे बढ़ सकता है और ऐसा करने के लिए उसे बाहर से मदद भी मिल सकती है। सभी की निगाहें फ़ोर्दो पर टिकी हैं। लेकिन यह संभव है कि ईरान के पास गुप्त परमाणु स्थल हों, जिनका अमेरिका और इसराइल को पता न हो, हालांकि ऐसे स्थानों के बारे में कोई सार्वजनिक सबूत सामने नहीं आया है। यदि वे हैं, तो ईरान अपने परमाणु कार्यक्रम को गति देने के लिए अपने पास बचे हुए संसाधनों का उपयोग कर सकता है।

शासन परिवर्तन की चर्चा

यदि ईरान के सर्वोच्च नेता की हत्या भी कर दी जाए, तो भी धार्मिक-सैन्य प्रतिष्ठान, जिसने लगभग पाँच दशकों से ईरान की सत्ता पर अपनी पकड़ मजबूत रखी है, शायद नहीं गिरेगा। संभावना यह भी है कि आयतुल्ला अली खामनेई की जगह कोई और ज़्यादा चरमपंथी व्यक्ति देश का नेतृत्व करके लंबी लड़ाई का आधार तैयार करे। ऐसी लड़ाई के लिए भी बाहरी सहायता चाहिए। चीन और रूस उसके साथ हैं, पर वे लंबी कट्टरपंथी लड़ाई में साथ नहीं दे पाएँगे। उनकी दिलचस्पी भी कारोबार और व्यापार में है।

इस क्षेत्र में ईरान के सहयोगी मिलीशिया, जिनमें यमन में हूती, लेबनान में हिज़बुल्ला और इराक के सशस्त्र समूह, लड़ाई में शामिल नहीं हुए हैं। पिछले दो साल में उनमें से कई गंभीर रूप से कमज़ोर हो गए हैं, फिर भी वे ईरानी सहयोगी लड़ाई में शामिल हो सकते हैं।

ट्रिगर पॉइंट

पश्चिम एशिया के वर्तमान टकराव के पीछे पिछले 75 से ज्यादा वर्षों का घटनाक्रम है, पर, मौज़ूदा टकराव का ट्रिगर पॉइंट 7 अक्तूबर 2023 को हुआ हमास का हमला है। उस वक्त यह सवाल भी उठा था कि अचानक यह हमला क्यों हुआ। हमास के हमले के ठीक पहले लग रहा था कि सऊदी अरब और इसराइल के बीच कोई मैत्री समझौता होने वाला है। उसकी पृष्ठभूमि तैयार हो रही थी, जिसकी शुरुआत 2020 के अब्राहम समझौते से हो गई थी।

अब्राहम समझौता, अमेरिका, संयुक्त अरब अमीरात और इसराइल के बीच हुआ था। इसमें बाद में सूडान, बहरीन और मोरक्को भी शामिल हो गए थे। इस समझौते ने इसराइल और अरब देश के बीच संबंधों के सामान्यीकरण का रास्ता खोला था। अक्तूबर 2023 में हमास के हमले के पहले लग रहा था कि सऊदी अरब और इसराइल के बीच राजनयिक संबंध स्थापित हो जाएँगे।

इन संभावनाओं के समांतर सितंबर 2023 में दिल्ली में हुए जी-20 शिखर सम्मेलन के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने घोषणा की कि शीघ्र ही भारत से पश्चिम एशिया के रास्ते से होते हुए यूरोप तक एक कनेक्टिविटी कॉरिडोर के निर्माण का कार्य शुरू होगा। इस परियोजना में शिपिंग कॉरिडोर से लेकर रेल लाइनों तक का निर्माण किया जाएगा।

इस परियोजना में दो कॉरिडोर बनने हैं। एक पूर्वी कॉरिडोर, जो भारत से जोड़ेगा और दूसरा उत्तरी (या पश्चिमी) कॉरिडोर, जो यूरोप तक जाएगा। पश्चिम एशिया में इंफ्रास्ट्रक्चर विकास इस परियोजना का हिस्सा नहीं जरूर नहीं है, पर चीन की दिलचस्पी भी इस इलाके में है। एक तरह से यह चीन के ‘बीआरआई’ और पश्चिम के ‘बी3डब्लू (बिल्ड बैक बैटर वर्ल्ड)’ के बीच प्रतियोगिता का हिस्सा भी था।  

इसराइल-विरोधी लड़ाई

दूसरी तरफ इसराइल के विरुद्ध लड़ाई का नेतृत्व अरब देशों के हाथ से हटकर ईरान के हाथ में आ गया है। अरब देशों की दिलचस्पी क्या अब फलस्तीन समस्या के समाधान में नहीं है या उन्हें निरर्थक लड़ाई को चलाए रखने से अपनी आर्थिक-प्रगति में गतिरोध आने के खतरे नज़र आने लगे हैं। ओस्लो समझौते ने समाधान की दिशा में कदम बढ़ाए थे, पर फलस्तीनी समूहों के बीच भी एकता नहीं है। इसराइल के अस्तित्व को लेकर भी सब एक राय के नहीं हैं। इसमें इसराइल-विरोधी कट्टरपंथी तबका अब ईरान के साथ है। उसके साथ हमास, हिज़्बुल्ला, हूती और हशद अल-शबी जैसे संगठन हैं, जिन्हें ईरान का प्रॉक्सी माना जाता है।

इनके अलावा कुछ छोटे संगठन भी हैं। पिछले डेढ़-पौने दो साल में इन संगठनों की ताकत में काफी ह्रास हुआ है। सीरिया का रुख अब बदल चुका है। ऐसे में इसराइल चाहता है कि ईरान पर निर्णायक चोट का यही सही मौका है। पर क्या यह सही सोच है?

ईरान की दिलचस्पी

ईरान इस वक्त इसराइल के खिलाफ है, जबकि 1979 की क्रांति से पहले वह इसराइल के साथ हुआ करता था। तब वहाँ अमेरिका-परस्त शाह रज़ा पहलवी का शासन हुआ करता था। 1979 की ईरानी क्रांति ने हजारों साल पुरानी राजशाही को खत्म किया था, जिसके बाद यहाँ एक लोकतांत्रिक गणराज्य का जन्म हुआ। ईरान के अंतिम बादशाह शाह मोहम्मद रज़ा पहलवी अमेरिका और इसराइल के करीबी सहयोगी थे।

तख्त पर उनकी वापसी भी अमेरिका और ब्रिटेन की मदद से हुई थी, जिन्होंने 1953 में ईरान के लोकतांत्रिक पद्धति से चुने गए प्रधानमंत्री मुहम्मद मुसद्देक़ का तख्ता-पलट कराया था। इस क्रिया की प्रतिक्रिया होनी थी। जनता के मन में विरोध ने जन्म ले लिया था। परिणाम यह हुआ कि ईरान में इस्लामिक-क्रांति ने जन्म लिया, जिसके कारण 1979 में आयतुल्ला खुमैनी की वापसी हुई। शाह के खिलाफ उस क्रांति में वामपंथियों का एक तबका भी उनके साथ था, पर आयतुल्ला खुमैनी के शासन ने उनका क्रूर दमन कर दिया।

जब राष्ट्रपति ट्रंप ने ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर सैन्य हमले का आदेश दिया, तो वे उस संकट का सामना कर रहे थे, जिसे अमेरिका ने अनजाने में दशकों पहले तेहरान को परमाणु प्रौद्योगिकी के बीज उपलब्ध कराकर शुरू किया था।

ईरानी एटमी कार्यक्रम

भारत में शायद इस बात को ज्यादा लोग नहीं जानते कि ईरान का नाभिकीय कार्यक्रम अमेरिका की देन है। तेहरान के उत्तरी उपनगरों में एक छोटा परमाणु रिएक्टर है, जिसका उपयोग शांतिपूर्ण वैज्ञानिक उद्देश्यों के लिए किया जाता है। इस रिएक्टर को 1960 के दशक में अमेरिका ने ईरान भेजा था, जो राष्ट्रपति ड्वाइट डी आइज़नहावर के शांति के लिए परमाणु कार्यक्रम का हिस्सा था, जिसके तहत अमेरिका के उन सहयोगियों के साथ परमाणु प्रौद्योगिकी साझा की गई थी जो अपनी अर्थव्यवस्थाओं का आधुनिकीकरण करना चाहते थे और शीत युद्ध से विभाजित विश्व में वाशिंगटन के करीब जाना चाहते थे। 1967 में जिस ईरान को अमेरिकी रिसर्च रिएक्टर मिला था, वह आज के मौलवियों और जनरलों द्वारा शासित देश से बहुत अलग था। तब इसका नेतृत्व एक शाह मोहम्मद रजा पहलवी कर रहे थे, जो स्विस-शिक्षित अभिजात वर्ग के व्यक्ति थे।

अमेरिका को उस समय तक यह समझ नहीं आया था कि द्वितीय विश्व युद्ध के अंत में उसने जो परमाणु रहस्यों को उजागर किया था, वह कितनी जल्दी संयुक्त राज्य अमेरिका के लिए खतरा बन जाएगा। अमेरिकी विशेषज्ञ मानते हैं कि उन दिनों हम परमाणु अप्रसार को लेकर चिंतित नहीं थे, इसलिए हम परमाणु प्रौद्योगिकी हस्तांतरण के बारे में बहुत लापरवाह थे। शांति के लिए परमाणु कार्यक्रम का जन्म आइज़नहावर द्वारा दिसंबर 1953 में संयुक्त राष्ट्र में दिए गए भाषण से हुआ था, जिसमें उन्होंने सोवियत संघ के साथ परमाणु हथियारों की दौड़ के खतरों के बारे में चेतावनी दी थी और दुनिया को भयावहता के इस अंधेरे कक्ष से प्रकाश की ओर ले जाने की कसम खाई थी।

आइज़नहावर ने कहा था कि दुनिया को ऐसी विनाशकारी तकनीक को बेहतर ढंग से समझना चाहिए, और इसके रहस्यों को साझा किया जाना चाहिए तथा रचनात्मक उपयोग में लाया जाना चाहिए। इस हथियार को सिर्फ़ सैनिकों के हाथों से छीन लेना ही पर्याप्त नहीं है। इसे उन लोगों के हाथों में दिया जाना चाहिए जो इसके सैन्य आवरण को हटाना जानते हों तथा इसे शांति की कलाओं के अनुकूल बनाना जानते हों।

1980 के दशक में इराक के साथ आठ साल के क्रूर युद्ध के बाद, आयतुल्ला खुमैनी ने परमाणु तकनीक के महत्व पर पुनर्विचार किया। इस बार, ईरान ने पूर्व की ओर रुख किया-पाकिस्तान की ओर, जो शांति के लिए परमाणु का एक और लाभार्थी थापाकिस्तानी वैज्ञानिक और परमाणु चोरबाजार के माहिर अब्दुल क़ादिर खान ने ईरान को यूरेनियम को बम-ग्रेड शुद्धता के स्तर तक समृद्ध करने के लिए सेंट्रीफ्यूज बेचे थे। ईरान ने वर्षों तक गुप्त रूप से अपने परमाणु कार्यक्रम को आगे बढ़ाया, अधिक सेंट्रीफ्यूज बनाए और यूरेनियम को समृद्ध किया, जिससे एक दिन बम बनाया जा सकता था। 2002 में ईरान की गुप्त परमाणु सुविधाओं का खुलासा होने के बाद, अमेरिका और उसके यूरोपीय सहयोगियों ने माँग की कि देश अपना संवर्धन बंद करे और अपनी परमाणु गतिविधियों के बारे में स्पष्ट करे। 20 साल से ज़्यादा की कूटनीति के बाद—और अब इसराइल और अमेरिका के हवाई हमलों के बाद—टकराव अभी अनसुलझा है।

 

 

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