Sunday, March 20, 2016

पंजाब में पानी की खतरनाक राजनीति

सतलुज-यमुना लिंक नहर के विवाद में पानी सिर के ऊपर जाए इससे पहले ही केंद्र सरकार को अब अपनी भूमिका निभानी चाहिए। पंजाब विधानसभा ने सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों की अवहेलना करते हुए यह कहते हुए नहर के निर्माण के खिलाफ एक प्रस्ताव पारित किया है कि उसके पास हरियाणा को देने के लिए पानी नहीं है। पंजाब विधानसभा के चुनाव करीब होने के कारण इसे पंजाब का मास्टर स्ट्रोक माना जा रहा है, पर यह बात राष्ट्रीय एकता के खिलाफ है और इसके दूरगामी दुष्परिणाम होंगे।

पंजाब के तकरीबन सभी राजनीतिक दल इस मामले को चुनाव के नजरिए से देख रहे हैं। शिरोमणि अकाली दल ने कांग्रेस से यह मुद्दा छीन लिया है। अकाली दल विधानसभा में सर्वसम्मति से प्रस्ताव पास कराने में कामयाब हुआ है। उसका सहयोगी दल होने के नाते भारतीय जनता पार्टी ने भी उसका साथ दिया है। पर हरियाणा में भी उसकी सरकार है। उधर आम आदमी पार्टी भी इसे चुनावी मुद्दा बनाने की कोशिश में है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने जल्दबाजी में इस विवाद का रुख हरियाणा-दिल्ली के विवाद के रूप में मोड़ दिया था। अलबत्ता उन्होंने फौरन ही अपने रुख को बदला।

माँग यह भी की जा रही है कि हरियाणा विधानसभा को भी इस मामले में प्रस्ताव पास करना चाहिए। बहरहाल उसके पहले ही केंद्र को इस मामले में हस्तक्षेप करना चाहिए। उसे संकीर्ण राजनीति का विषय नहीं बनाया जा सकता। इससे असाधारण राजनीतिक-अतिवाद जन्म लेगा, जिसे काबू में करना मुश्किल हो जाएगा। अराजकता बढ़ेगी। सन 2004 में पंजाब विधानसभा ने पानी देने के समझौते को इसी तरह खत्म कर दिया था। तब सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि निर्देश का पालन न करना अदालत की अवमानना है। संयोग से उस वक्त पंजाब और केन्द्र दोनों जगह कांग्रेस की सरकार थी। तब केन्द्र सरकार ने पंजाब सरकार के कदम से आँखें मूँद ली थीं। आज स्थिति में केवल इतना फर्क आया है कि दोनों जगह एनडीए की सरकार है। आँखें उसने भी मूँद ली हैं।

पंजाब में बन चुकी नहर को पाटने और किसानों की जमीन वापस करने के फैसले के बाद जमीनी स्तर पर जो गतिविधियाँ शुरू हो चुकी हैं उनके व्यवहारिक प्रभाव की कल्पना करें। उन्हें रोकना आसान नहीं। अंतर-राज्य सम्बन्धों का यह बेहद नाजुक पहलू है। इसकी अनुगूँज दूसरे राज्यों में भी सुनाई पड़ेगी। बहरहाल देखना होगा कि विधानसभा के प्रस्ताव पर सुप्रीम कोर्ट का रुख क्या रहता है। सन 2004 के फैसले के बाद यह मामला सुप्रीम कोर्ट में चला गया था जहाँ सुनवाई अपने अंतिम दौर में है। इस फैसले के एक दिन पहले ही अदालत के पाँच सदस्यीय संविधान पीठ ने यथास्थिति बनाए रखने का निर्देश दिया था। यह मामला सुलझता हुआ नजर आने लगा था। पंजाब में नहर खोदने का काफी काम पूरा भी हो गया था। पर चुनाव की राजनीति ने इसे नया रूप दे दिया है।

हालात को देखते हुए लगता है कि राज्य में चुनाव समय से पहले भी हो सकते हैं। ये सारे काम एक दिशा में होते नजर आ रहे हैं। चुनाव की राजनीति का यह विद्रूप लोकतांत्रिक स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं है। आने वाले समय में पानी को लेकर पाकिस्तान के साथ विवाद भी विवाद खड़े हो सकते हैं। देश के राज्यों के बीच लम्बे अरसे से मतभेद हैं। कई मतभेद सौ साल से भी ज्यादा पुराने हैं। सन 1955 में केंद्र सरकार ने राज्यों की सहमति से रावी और ब्यास नदी के पानी को राजस्थान, पंजाब और जम्मू-कश्मीर में बांटने की बात तय की थी। सन 1966 में पंजाब और हरियाणा को अलग किया गया। इसके बाद से ही पंजाब और हरियाणा के बीच पानी के बंटवारे को लेकर विवाद शुरू हो गया था।

सन 1976 में केंद्र ने पंजाब के 7.2 मिलियन एकड़ फीट पानी में से 3.5 एमएएफ हरियाणा को देने की अधिसूचना जारी की थी। इसके लिए सतलुज से यमुना को जोड़ने वाली नहर की योजना बनाई गई। सन 1982 में इंदिरा गांधी की उपस्थिति में सतलुज यमुना लिंक नहर की खुदाई शुरू हुई। आज पंजाब किसी भी प्रकार के समझौते को मानने को तैयार नहीं। अंतर-राज्य नदी जल विवाद अधिनियम 1956 के अंतर्गत इस विवाद को हल करने में केंद्र की भूमिका है। बातचीत के जरिए विवाद नहीं सुलझता है तो केंद्र सरकार विवादों को पंचाट या न्यायाधिकरण को सौंप सकती है। बावजूद इसके विवादों की कमी नहीं है। केरल और तमिलनाडु की सरकारें मुल्लापेरियार बाँध की ऊँचाई बढ़ाने के सवाल पर आमने-सामने आ गईं थीं।

तमिलनाडु और कर्नाटक के बीच कावेरी और कृष्णा नदियों से जुड़े विवाद 1990 और 2004 में पंचाटों को सौंपे गए थे। कावेरी नदी के बँटवारे को लेकर विवाद 19वीं शताब्दी में शुरू हुआ था। ब्रिटिश राज में ये विवाद मद्रास प्रेसीडेंसी और मैसूर राज के बीच था। 1924 में इन दोनों के बीच एक समझौता हुआ। लेकिन बाद में इस विवाद में केरल और पांडिचेरी भी शामिल हो गए। और यह विवाद और जटिल हो गया। कावेरी न्यायाधिकरण का फैसला 2007 में आया, पर केन्द्र सरकार ने उसे लागू करने में छह साल लगाए। केंद्र सरकार न्यायाधिकरण के फैसले की अधिसूचना जारी करने में विलम्ब कर रही थी, जिसके कारण सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को फटकार लगाते हुए अधिसूचना की समय सीमा तय की तब जाकर अधिसूचना जारी हुई।

कृष्णा नदी के पानी को लेकर आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र के बीच विवाद है। इसके निपटारे के लिए दो न्यायाधिकरण बन चुके हैं। इस दौरान आंध्र का विभाजन होकर तेलंगाना अलग भी हो चुका है। इसे देखते हुए सन 2014 में कृष्‍णा जल विवाद न्यायाधिकरण–2 का कार्यकाल दो साल के लिए बढ़ा दिया है। नर्मदा नदी के पानी को लेकर गुजरात, मध्य प्रदेश और राजस्थान के बीच विवाद हैं। सोन नदी जल विवाद बिहार, उत्तर प्रदेश व मध्य प्रदेश के बीच है। यमुना नदी जल के बंटवारे से संबंधित विवाद काफी पुराना है। इससे देश के पांच राज्य हरियाणा, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, दिल्ली और हिमाचल प्रदेश जुड़े हुए हैं। प्रकारांतर से विवाद जारी है। गोदावरी, वंसधारा और गोवा, कर्नाटक और महाराष्ट्र के बीच महादेवी नदी के विवाद हैं। विवाद केवल पानी के ही नहीं, जमीन के भी हैं। इनका हल संघीय व्यवस्था में रहकर ही होना है, इसलिए परम्पराएं स्वस्थ ही रहें तो बेहतर।

हरिभूमि में प्रकाशित

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