Friday, March 18, 2016

'माँ' का रूपक भाजपाई क्यों है?

बीबीसी हिंदी के पत्रकार जुबैर अहमद ने लिखा है, ‘बचपन में मेरे एक दूर के मामा ने मेरे गाल पर ज़ोरदार तमाचा लगाया, क्योंकि मैं अपने कमरे में अकेले 'जन गण मन अधिनायक जय हे' गा रहा था। तमाचा लगाते समय वो डांट कर बोले, "अबे, हिंदू हो गया है क्या?" मेरे मामा कोई मुल्ला नहीं थे लेकिन उनकी सोच मुल्लों वाली थी। असदुद्दीन ओवेसी की बातों से मुझे अपने दूर के मामा की याद आ जाती है। भारत माता की जय कहने से इनकार करना उनका अधिकार ज़रूर है लेकिन केवल इसीलिए इसका विरोध करना कि मोहन भागवत ने इसकी सलाह दी है, सही नहीं है।’ 

दूसरी ओर यह भी सही है कि देश के गैर-हिन्दुओं पर यह बात जबरन लादी नहीं जा सकती। देखना यह भी होगा कि हमारी भारतमाता देश को धर्मनिरपेक्ष बनाना चाहती है या धार्मिक राज्य बनाने का संदेश देती है। साथ ही यह भी कि क्या हमारे राष्ट्र-राज्य को हिन्दू प्रतीकों और मुहावरों से मुक्त किया जा सकता है? 


दक्षिण एशिया के मुसलमान दुनिया के सबसे उदार मुसलमानों में गिने जाते हैं। इसकी एक वजह है हमारी मिली-जुली संस्कृति। सैकड़ों साल में कई धर्मों से जुड़े लोगों ने एक-दूसरे के साथ रहने के तरीके विकसित किए हैं। पर पिछले दो-ढाई दशक से एक दरार सी खिंची है। सन 1992 के बाबरी विध्वंस को इसका प्रस्थान बिन्दु माना जा सकता है। जुबैर अहमद ने लिखा है कि जावेद अख्तर ने ओवेसी की इस बात पर जो खिंचाई की है, वो मुझे बिलकुल सही लगती है। भारत माता की जय कहने से कोई हिंदू हो जाएगा क्या?

जुबैर ने यह भी लिखा है, ‘अभी मैं कश्मीर से लौटा हूँ जहाँ हर कश्मीरी हिंदू का, वहां के मुसलमानों की ही तरह, तकिया कलाम है, "माशाल्लाह, इंशाल्लाह।" तो क्या वो मुसलमान हो गए?’ आपने देखा होगा कि हमारी हॉकी टीम के खिलाड़ी अंतरराष्ट्रीय मैच खेलने के पहले एक-दूसरे के कंधे पर हाथ रखकर गोल घेरे में खड़े होकर नारा लगाते हैं, ‘भारत माता की जय।’ इसमें से ‘माता’ शब्द निकाल दें तो क्या यह सेक्युलर नारा हो जाएगा? क्या माँ को माँ के रूप में नहीं देखा जा सकता? क्या माँ का रूपक भाजपाई है?

राज्यसभा से विदाई ले रहे जावेद अख्तर ने जो चिंता जताई वह भी सहज और स्वाभाविक है। पर यह विवाद एकतरफा नहीं है। जावेद अख्तर ने जहां असदुद्दीन ओवेसी की आलोचना की वहीं सत्तारूढ़ बीजेपी से अपने विधायकों, सांसदों एवं मंत्रियों पर सांप्रदायिक माहौल बिगाड़ने वाले बयान देने से लगाम लगाने को भी कहा। उन्होंने कहा, ‘बात यह नहीं है कि ‘भारत माता की जय’ बोलना मेरा कर्तव्य है या नहीं। बात यह है कि ‘भारत माता की जय’ बोलना मेरा अधिकार है। मैं कहता हूं…भारत माता की जय, भारत माता की जय, भारत माता की जय।’

एक भारतीय मुसलमान के मुँह से यह बात सुनना हमें अच्छा लगता है, पर जावेद अख्तर को क्या मुसलमान अपना नेता मानते हैं? दूसरे शब्दों में कहें तो क्या वे मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करते हैं? जरूरत इस बात की है कि मुसलमानों के बीच इस बात पर खुली चर्चा हो। और वे क्या कहते हैं, यह भी पूरा देश सुने। ऐसा नहीं कि यह मामला पहली बार उठा है। चूंकि इसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने उठाया है, इसलिए यह विवाद का विषय बना है। अंतर्विरोध हमारे राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़े हैं। उसे प्रखर बनाने में धार्मिक प्रतीकों का इस्तेमाल किया गया। बंगाल में दुर्गापूजा और महाराष्ट्र में गणेश पूजा। गांधी जी ने मुसलमानों को साथ लेने के लिए खिलाफत आंदोलन का समर्थन किया।

आजादी के बाद बनी महबूब की मशहूर फिल्म ‘मदर इंडिया’ ने इस अभिव्यक्ति को जमीनी रूप दिया था। पर वह फिल्म थी जो देश के दर्शकों की सामान्य समझ को व्यक्त करती थी। ‘भारत माता’ की अवधारणा गांधी के भारत आने के पहले जन्म ले चुकी थी। बंगाल में सन 1873 में किरण चन्द्र बंदोपाध्याय का लिखा नाटक ‘भारत माता’ खेला गया। रवीन्द्रनाथ ठाकुर के भतीजे अवनीन्द्र नाथ ठाकुर ने भारत माता का चित्र बनाया। पर यह प्रतीकात्मकता थी धार्मिक कर्मकांड नहीं। वाराणसी में भारत माता मंदिर भी बनाया गया। मंदिर का उद्घाटन 1936 में महात्मा गांधी ने किया था। इस मंदिर में किसी देवता या देवी की मूर्ति नहीं है, यहां संगमरमर पर उभरा हुआ भारत का नक्शा भर है।

विवाद तब भी थे। ‘वंदे मातरम’ को लेकर भी विवाद है। सन 1882 में प्रकाशित बंकिम चंद्र के उपन्यास ‘आनन्द मठ’ में इस गीत का इस्तेमाल हुआ था। लाजपत राय ने लाहौर से जिस पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया था उसका नाम वन्दे मातरम रखा। सन 1907 में मैडम भीखाजी कामा ने जब जर्मनी के स्टटगार्ट में तिरंगा फहराया तो उसके बीच में "वन्दे मातरम" ही लिखा था। स्वतंत्रता आंदोलन में इस गीत की जबर्दस्त भागीदारी के बावजूद राष्ट्रगान के रूप में ‘जन गण मन’ को वरीयता दी गई।

"वन्दे मातरम" में देवी दुर्गा को राष्ट्र के रूप में देखा गया। दूसरे ‘आनन्द मठ’’ के जिस प्रसंग में यह गीत है वह मुसलमानों के खिलाफ लिखा गया है। सन् 1896 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने यह गीत गाया। पर सन 1937 में उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष सुभाष चंद्र बोस को पत्र लिखकर कहा कि कोई मुसलमान दुर्गा के रूप में भारत की स्तुति नहीं कर पाएगा। कांग्रेस ने इस पर काफी विचार किया। जवाहर लाल नेहरू की अध्यक्षता में गठित एक समिति की राय थी कि इस गीत के शुरूआती दो पद मातृभूमि की प्रशंसा में कहे गए हैं। इन्हें ही स्वीकार किया जाए। 

संविधान सभा ने 24 जनवरी 1950 को 'वन्दे मातरम' को राष्ट्रगीत के रूप में अपनाया, पर सन 1986 में सर्वोच्च न्यायालय ने एक मामले में व्यवस्था दी कि इस गीत को गाने से इंकार करने पर किसी व्यक्ति को प्रताड़ित नहीं किया जा सकता।

देश-प्रेम की अभिव्यक्ति के लिए कई जगह देश को माता के रूप में देखने की परम्परा है। रूस की साम्यवादी व्यवस्था ने ‘मदर रशा’ के पोस्टरों का इस्तेमाल किया। देशप्रेम या राष्ट्रवाद कितना जरूरी है, यह भी बहस का विषय है। ठीक है, इन्हें जबरन मानने को मजबूर नहीं किया जा सकता, पर अविवेकशील अड़ंगे भी तो ठीक नहीं। भारतीय संविधान के चौथे अध्याय में नीति- निर्देशक तत्वों की व्यवस्था है। देश को कल्याणकारी बनाने के लिए उन्हें लागू होना चाहिए, पर सबकी सहमति के साथ। अनुच्छेद 44 के तहत समान नागरिक संहिता का सवाल भी है। इन सवालों को लेकर भी बात होनी चाहिए।  
आईनेक्स्ट में प्रकाशित

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