Tuesday, March 15, 2016

सवाल विज्ञान-मुखी बनने का है

विजय माल्या के पलायन, देश-द्रोह और भक्ति से घिरे मीडिया की कवरेज में विज्ञान और तकनीक आज भी काफी पीछे हैं. जबकि इसे विज्ञान और तकनीक का दौर माना जाता है. इसकी वजह हमारी अतिशय भावुकता और अधूरी जानकारी है. विज्ञान और तकनीक रहस्य का पिटारा है, जिसे दूर से देखते हैं तो लगता है कि हमारे जैसे गरीब देश के लिए ये बातें विलासिता से भरी हैं. नवम्बर 2013 में जब हमारा मंगलयान अपनी यात्रा पर रवाना हुआ था तब कई तरह के सवाल किए गए थे. उस साल के आम बजट से आँकड़े निकालकर सवाल किया गया था कि माध्यमिक शिक्षा के लिए पूरा खर्च 3,983 करोड़ रुपए और अकेले मंगलयान पर 450 करोड़ रुपए क्यों? इस रकम से ढाई सौ नए स्कूल खोले जा सकते थे. 


पहली नज़र में बात वाजिब लगती है. हालांकि शिक्षा को लेकर भ्रामक भी है. इसपर राज्य सरकारों और निजी क्षेत्र का खर्च अलग से होता है. अंतरिक्ष अनुसंधान पर कौन खर्च करता है? शिक्षा पर खर्च इससे कहीं ज्यादा होना चाहिए. पर कुछ और बातों पर गौर करें. उस साल करन जौहर की फिल्म ‘शुद्धि’ की खबरें थीं, जिसका बजट 150 करोड़ रुपए बताया जा रहा था. एंथनी डिसूजा की फिल्म 'ब्लू' और शाहरुख की 'रा वन' का भी 100 करोड़ का बजट था. तीन या चार फिल्मों के बजट में एक मंगलयान! औसतन 25,000 बच्चों को शिक्षा. फिल्में बनाना बंद कर दें तो क्या साल भर में सारे लक्ष्य हासिल हो जाएंगे? हमें फिल्में भी चाहिए.

भारत जिस मीडियम मल्टी रोल कॉम्बैट एयरक्राफ्ट रफेल को खरीदने जा रहा है उस एक विमान की कीमत है 1400 करोड़ रुपया. अभी हम 36 विमान खरीदने वाले हैं. हम इन विमानों न खरीदें तो क्या सामाजिक विकास हो जाएगा? राष्ट्रीय प्राथमिकताओं को समझना इतना सरल नहीं है. तकनीकी विकास और सामाजिक विकास के बीच संतुलन की जरूरत है. हमें सभी बातों पर नजर रखनी चाहिए. उसके लिए हमारी यानी नागरिक की समझ का दायरा बढ़ाने की जरूरत है.

पिछले हफ्ते की खबर थी कि भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन इसरो के छठे दिशा सूचक उपग्रह आईआरएनएसएस-1 एफ का गुरुवार को सफल प्रक्षेपण किया गया. इसमें एफ अंग्रेजी वर्णमाला का छठा अक्षर है. सात उपग्रहों की सीरीज में यह छठा उपग्रह है. मोटे तौर पर यह अमेरिका के ग्लोबल पोज़ीशनिंग सिस्टम (जीपीएस) की तर्ज पर दिशा सूचक सेवाएं मुहैया कराएगा. श्रृंखला का पहला उपग्रह का जुलाई 2013 में छोड़ा गया था. अगले महीने सातवाँ उपग्रह और भेजकर इस काम को पूरा कर लिया जाएगा.

भारत की यह नेवीगेशन प्रणाली कई मानों में अनूठी है. भारत के अलावा अमेरिका, रूस, चीन, यूरोपीय स्पेस एजेंसी और जापान के उपग्रह भी इस दिशा में काम कर रहे हैं. भारतीय प्रणाली एकदम से जीपीएस का विकल्प नहीं बनेगी. इसमें कुछ समय लगेगा, पर जो कुछ भी हुआ है वह काफी कम समय में बहुत ज्यादा हुआ है. अंतरिक्ष कार्यक्रम केवल राष्ट्रीय प्रतिष्ठा बढ़ाने का काम ही नहीं करते, बल्कि उनका सामाजिक जीवन में बड़ा इस्तेमाल है.

हम अपने मोबाइल फोन की मदद से जीपीएस का इस्तेमाल करने लगे हैं. तकनीक हमारे सामाजिक जीवन को सरल बना सकती है, इस बात को हमें समझना है. जब मोबाइल फोन पहली बार आया था तब हमने उसे विलासिता ही समझा था. आज ऐसा नहीं है. पिछले हफ्ते लोकसभा ने ‘आधार’ विधेयक पास किया. हालांकि इस विधेयक को लेकर राजनीतिक विवाद हैं, पर कुछ तथ्य इसे देश के सामाजिक कल्याण की दिशा में क्रांतिकारी कदम बता रहे हैं.

भारत सरकार करोड़ों रुपए सामाजिक कल्याण के लिए खर्च करती है, पर वह रकम पात्र व्यक्तियों तक नहीं पहुँचती. आधार की मदद से अब यह काम आसानी से सम्भव है. लोकसभा में वित्तमंत्री ने बताया कि आधार कार्ड के जरिए एलपीजी ग्राहकों को दी गई सब्सिडी से केंद्र को 15,000 करोड़ रुपये की बचत हुई. जिन चार राज्यों ने इसी तर्ज पर पीडीएस सब्सिडी देनी शुरू की है उन्होंने 2,300 करोड़ रुपये से ज़्यादा बचाए हैं.

सवाल विज्ञान-मुखी होने का है. अंधविश्वासों, पोंगापंथ और संकीर्णता से बाहर आने का. ‘आधार’ और अंतरिक्ष अनुसंधान में सीधा न सही, पर रिश्ता है. सन 2013 में जिस महीने हमने अपना पहला नेवीगेशन सैटेलाइट छोड़ा उसी महीने उत्तराखंड में भयानक बाढ़ आई थी. हम विज्ञान-मुखी होते तो वैसी तबाही सम्भव नहीं थी. फटेहाली का इलाज भी विज्ञान के पास है, और हमारे सांस्कृतिक, सामाजिक टकराव भी अवैज्ञानिकता की देन हैं. इनका इलाज सम्भव है बशर्ते हमारी राजनीति उसके महत्व को समझे. हाल में एमएस स्वामीनाथन ने कहा कि हमें नौजवानों को कृषि विज्ञान से जुड़े अनुसंधान की और प्रेरित करना चाहिए. हमें एक और हरित क्रांति की ज़रूरत है.

अंतरिक्ष अनुसंधान का हमारी दूरगामी सामाजिक प्राथमिकताओं से कोई रिश्ता है या नहीं, इसे देखना चाहिए. मंगलयान के प्रक्षेपण के बाद इकोनॉमिस्ट ने लिखा था, ‘जो देश 80 करोड़ डॉलर (लगभग 5000 करोड़ रुपए) दीवाली के पटाखों पर खर्च कर देता है उसके लिए 7.4 करोड़ डॉलर (450 करोड़ रुपए) का यह एक रॉकेट दीवाली जैसा रोमांच पैदा करेगा.’ 2013 में उड़ीसा में आया फेलिनी तूफान हज़ारों की जान ले सकता था. पर सही समय पर वैज्ञानिक सूचना मिली और आबादी को सागर तट से हटा लिया गया. 1999 के ऐसे ही एक तूफान ने 10 हजार से ज्यादा लोगों की जान ले ली थी.

इस साल के अंत में भारत दक्षिण एशिया के देशों के लिए एक विशेष उपग्रह भी छोड़ने वाला है. यह उपग्रह इस इलाके के सामाजिक कल्याण का प्रतीक बन सकता है. इस साल नेवीगेशन सैटेलाइट का कार्यक्रम पूरा होने के बाद मई में देश के कार्टोसैट-कार्टोग्राफी उपग्रह का प्रक्षेपण है. अगस्त में संचार उपग्रह इनसैट-3डीआर का जीएसएलवी रॉकेट की मदद से प्रक्षेपण है. पर सबसे रोमांचक उड़ान होगी अगली पीढ़ी के भारी लांच वेहिकल जीएसएलवी-मार्क-3 की, जो चार टन वजन वाले भारतीय संचार उपग्रह जीसैट-19 को पृथ्वी की कक्षा में लेकर जाएगा. यह प्रक्षेपण इस साल के अंत में या अगले साल के शुरू में होगा.

जीएसएलवी-मार्क-3 भारत सरकार से स्वीकृत समानव उड़ान में भी प्रयुक्त होगा. इस परियोजना के पहले की गतिविधियों के रूप में इसरो कई प्रकार की तकनीकों का विकास कर रहा है और साथ ही क्रू वेहिकल और अंतरिक्ष यात्री के लिए स्पेस सूट भी तैयार हो रहा है. बहुत जल्द आप भारत की समानव उड़ान, चंद्रयान-2 और सूर्य का अध्ययन करने वाले प्रोब आदित्य का बारे में सुनेंगे. ये सूचनाएं केवल राष्ट्रीय सम्मान बढ़ाने वाली नहीं, हमारे जीवन के गुणात्मक बदलाव की संदेशवाहक भी हैं.

प्रभात खबर में प्रकाशित

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