Thursday, October 10, 2013

अपने लिए कुआं और खाई दोनों खोदे हैं कांग्रेस ने तेलंगाना में

कांग्रेस के लिए खौफनाक अंदेशों का संदेश लेकर आ रहा है तेलंगाना. जैसा कि अंदेशा था इसकी घोषणा पार्टी के लिए सेल्फगोल साबित हुई है. इस तीर को वापस लेने और छोड़ने दोनों हालात में उसे ही घायल होना है. सवाल इतना है कि नुकसान कम से कम कितना हो और कैसे हो? इस गफलत की जिम्मेदारी लेने को पार्टी का कोई नेता तैयार नहीं है. प्रदेश की जनता, उसकी राजनीति और प्रशासन दो धड़ों में बँट चुका है. मुख्यमंत्री किरण कुमार रेड्डी इस फैसले से खुद को काफी पहले अलग कर चुके हैं. शायद 2014 के चुनाव के पहले यह राज्य बन भी नहीं पाएगा. यानी कि इसे लागू कराने की जिम्मेदारी आने वाली सरकार की होगी.


तेलंगाना बनना ही था तो नौ साल पहले ही बना दिया जाता तो इतना बड़ा संकट पैदा नहीं हुआ होता. नवम्बर 2009 में तत्कालीन गृहमंत्री पी चिदम्बरम ने के चंद्रशेखर राव के आमरण अनशन को खत्म कराने के लिए तेलंगाना बनाने की घोषणा कर दी. आज उसे जगनमोहन रेड्डी और चन्द्रबाबू नायडू के दो आमरण अनशनों का सामना करना पड़ रहा है. पूरे सीमांध्र में आंदोलन है. प्रदेश अंधेरे में है. सन 2004 में चुनावी सफलता हासिल करने के लिए कांग्रेस ने तेलंगाना राज्य बनाने का वादा कर दिया था. संयोग से केन्द्र में उसकी सरकार बन गई. तेलंगाना राष्ट्र समिति इस सरकार में शामिल ही नहीं हुई, यूपीए के कॉमन मिनीमम प्रोग्राम में राज्य बनाने के काम को शामिल कराने में कामयाब भी हो गई थी. सबको पता था कि यह सिर्फ बात मामले को टालने के लिए है. सन 2009 में चिदम्बरम का वक्तव्य भी बगैर सोचे-समझे दिया गया था और इस मसले पर कांग्रेस की बचकाना समझ का प्रतीक था. इस बीच श्रीकृष्ण समिति बना दी गई, जिसने बजाय समाधान देने के कुछ नए सवाल खड़े कर दिए. उसकी रपट को लेकर आंध्र प्रदेश की हाईकोर्ट तक ने अपने संदेह व्यक्त किया कि इसमें समाधान नहीं, आंदोलन को मैनेज करने के बाबत केन्द्र सरकार को हिदायतें हैं.

इस फैसले की सबसे बड़ी खराबी यह है कि यह चुनाव को निगाह में रखकर किया गया है न कि राज्य की प्रशासनिक जरूरतों को देखकर. तेलंगाना क्षेत्र में विधानसभा की 294 में से 119 और लोकसभा की कुल 42 में से 17 सीटें हैं. फायदा मिलेगा भी तो तेलंगाना राष्ट्र समिति को, जिसके आंदोलन के दबाव में राज्य बन रहा है. कांग्रेस के वरिष्ठ नेता मानते हैं कि उसका विलय देर-सबेर कांग्रेस में हो जाएगा. उन्हें यह भी लगता है कि सीमांध्र में वे जगनमोहन रेड्डी की पार्टी से समझौता करने में कामयाब हो जाएंगे. जरूरी नहीं ऐसा सम्भव हो. फिलहाल राज्य में पैदा हुए उत्पात की तोहमत कांग्रेस पर जा रही है क्योंकि केन्द्र और राज्य दोनों जगहों पर उसकी सरकार है और कोई भी पक्ष उससे खुश नहीं है. राज्य बन भी गया तो हैदराबाद की खींचतान फिर भी कायम रहेगी. नौ साल पहले यह फैसला हुआ होता तो अब तक सीमांध्र की राजधानी तैयार हो जाती.

अभी कैबिनेट का फैसला हुआ है और नए राज्य की सीमा तैयार करने के लिए ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स की घोषणा की गई है। फिलहाल भौगोलिक सीमा में वर्तमान आंध्र प्रदेश के 23 में से 10 जिले आएंगे. इसमें महबूब नगर, नलगोंडा, खम्मम, रंगारेड्डी, वारंगल, मेडक, निजामाबाद, अदिलाबाद, करीमनगर और हैदराबाद शामिल हैं. सन 2009 के लोकसभा चुनाव में तेलंगाना क्षेत्र से कांग्रेस को चुनाव में काफी सफलता मिली थी. प्रदेश के 42 में से 17 सांसद कांग्रेस के हैं, इनमें से 12 तेलंगाना क्षेत्र से हैं. कांग्रेस की रणनीति है कि ये 12 सीटें तो उसे कम से कम मिल ही जाएं. क्या किसी राज्य का भविष्य किसी पार्टी के राजनीतिक हिसाब-किताब से तय होगा?  कांग्रेस चाहती है कि जगनमोहन रेड्डी का विस्तार रायलसीमा के बाहर न होने पाए. उनका असर रायलसीमा के अनंतपुर, कुर्नूल, कडपा और चित्तूर जिलों में है. कांग्रेस की योजना रायल तेलंगाना बनाने की है, जिसमें रायल सीमा के दो जिले कुर्नूल और अनंतपुर भी शामिल होंगे. इससे जगनमोहन की ताकत दो राज्यों में बँट जाएगी.  फिर ऐसी कोशिश भी होगी कि तेलुगु देसम पार्टी दोनों राज्यों में ज्यादा आगे न बढ़ पाए और बीजेपी को इस प्रक्रिया में कोई भी फायदा मिलने न पाए. कांग्रेस मजलिस इत्तहादुल मुस्लिमीन (एमआईएम) को भी अपने साथ रखना चाहेगी.

पहले पार्टी चाहती थी कि आंध्र प्रदेश विधान सभा नया राज्य बनाने का प्रस्ताव पास करे- जैसे उत्तराखंड, झारखंड और छत्तीसगढ़ की स्थापना में हुआ था. यह संभव नहीं हुआ क्योंकि जितना ताकतवर तेलंगाना आंदोलन है उतना ही ताकतवर राज्य को वृहत् रूप में बनाए रखने का समैक्यांध्रा आंदोलन है. मुख्यमंत्री किरण कुमार रेड्डी ने हमेशा ही खुद को इस एटम बम से अलग करके रखा. अब कांग्रेस को कुएं और खाई में चुनाव करना है.

आज़ादी के बाद देश का पहला राजनीतिक संकट तेलंगाना के कम्युनिस्ट आंदोलन के साथ खड़ा हुआ था, जो आज आंध्र के बाहर नक्सली आंदोलन के रूप में चुनौती पेश कर रहा है. भाषा के आधार पर देश का पहला राज्य आंध्र ही बना था, पर उस राज्य को एक बनाए रखने में भाषा मददगार साबित नहीं हो रही है. तेलंगाना को अलग राज्य बनाने की माँग देश के पुनर्गठन का सबसे महत्वपूर्ण कारक बनी थी. राज्य पुनर्गठन आयोग की सलाह थी कि हैदराबाद को विशेष दर्जा देकर तेलंगाना को अलग राज्य बना दिया जाए और शेष क्षेत्र अलग आंध्र बने. नेहरू जी आंध्र और तेलंगाना के विलय को लेकर शंकित थे. उन्होंने शुरू से ही कहा था कि इस शादी में तलाक की संभावनाएं बनी रहने दी जाएं. राज्य पुनर्गठन आयोग के अध्यक्ष जस्टिस फजल अली भी तेलंगाना के आंध्र प्रदेश में विलय के पक्ष में नहीं थे. तेलंगाना का सपना तकरीबन साठ साल पुराना है. उसे 1956 में ही पूरा कर लिया जाता तो आज यह नौबत नहीं आती.

अभी यह प्रस्ताव आंध्र प्रदेश की विधानसभा के पास जाएगा. वहाँ से यह संसद में आएगा. दोनों जगह से इस प्रस्ताव को पास कराने में कई तरह की चुनौतियाँ हैं. चूंकि भाजपा ने तेलंगाना बनाने का समर्थन किया है इसलिए संसद से यह प्रस्ताव पास होने में अड़चन नहीं है, पर तेलंगाना के भौगोलिक स्वरूप को लेकर दिक्कतें पैदा होंगी और आंध्र विधान सभा से प्रस्ताव पास कराना और भी मुश्किल होगा. राज्य के गठन में अभी तमाम बाधाएं हैं. कृष्णा और गोदावरी नदियों के पानी का बँटवारा बेहद जटिल काम है. प्रशासनिक व्यवस्था, बिजलीघरों का वितरण, उद्योग व्यापार और शिक्षा संस्थाओं का संतुलन यह सब देखना होगा. आंदोलनकारियों के सवाल गलत नहीं है. केन्द्र सरकार उनके जवाब देने के बजाय दूर से अपने फैसले सुना रही है. राज्य की जनता जाने-अनजाने दो शत्रुओं के रूप में एक-दूसरे को देखने लगी है. यह अच्छी बात नहीं.


प्रभात खबर में प्रकाशित

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