इसे सेमीफाइनल कहें या कोई और नाम दें, पाँच राज्यों के विधानसभा
चुनाव काफी महत्वपूर्ण साबित होने वाले हैं। इनमें नरेन्द्र मोदी, राहुल गांधी और दिल्ली
में ‘आप’ की परीक्षा होगी। सन
2014 के लोकसभा चुनाव में यह तीनों बातें महत्वपूर्ण साबित होंगी। इन पाँचों राज्यों
से लोकसभा की 73 सीटें हैं। हालांकि लोकसभा और विधानसभा के मसले अलग होते हैं, पर इस
बार लगता है कि विधान सभा चुनावों पर स्थानीय मसलों के मुकाबले केन्द्रीय राजनीति का
असर दिखाई पड़ेगा, जैसाकि दिल्ली के पालिका चुनावों में नजर आया था। पांच में फिलहाल
तीन राज्य दिल्ली,
मिजोरम और राजस्थान कांग्रेस के पास हैं। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़
एक दशक से भाजपा के मजबूत किले साबित हो रहे हैं। दोनों पार्टियों में अपनी बचाने और
दूसरे की हासिल करने की होड़ है। मिजोरम को छोड़ दें तो शेष चार राज्य हिन्दी भाषी हैं
और यहाँ मुकाबले आमने-सामने के हैं। दिल्ली में ‘आप’ के कारण एक तीसरा फैक्टर जुड़ा है। अन्ना हजारे के
आंदोलन की ओट में उभरी आम आदमी पार्टी परम्परागत राजनीतिक दल नहीं है। शहरी मतदाताओं
के बीच से उभरी इस पार्टी के तौर-तरीके शहरी हैं। इसने दिल्ली के उपभोक्ताओं, ऑटो चालकों
और युवा मतदाताओं की एक टीम तैयार करके घर-घर प्रचार किया है। खासतौर से मोबाइल फोन,
सोशल मीडिया तथा काफी हद तक मुख्यधारा के मीडिया की मदद से। हालांकि उसी मीडिया ने
बाद में इससे किनारा कर लिया। मिजोरम में कांग्रेस के सामने कोई बड़ा दावेदार नहीं है।
ये चुनाव ऐसे दौर में हो रहे हैं जब देश रूपांतरण के महत्वपूर्ण
दौर से गुजर रहा है। पिछले तीन-चार साल में जहाँ एक ओर घोटालों की कहानियाँ सामने आईं,
अदालती हस्तक्षेप और मीडिया की भूमिका के कारण व्यवस्था में बदलाव के संकेत भी मिले।
पहली बार वोट देने वाले नागरिकों की संख्या बढ़ती जा रही है। अनुमान है कि अगले लोकसभा
चुनाव में देश भर में 12 करोड़ वोटर पहली बार वोट देंगे। एक सर्वे का अनुमान है कि
मध्य प्रदेश की 120 विधान सभा सीटों पर मतदान को सोशल मीडिया प्रभावित करेगा। दिल्ली
की 70 में से 80 फीसदी सीटें सोशल मीडिया से प्रभावित होंगी। इस चुनाव का सबसे अभिनव
प्रयोग होगा नोटा बटन। यानी ईवीएम में 'इनमें से कोई नहीं'
का बटन होगा। वोटरों को मतदान और प्रक्रिया के बारे में जागरूक
करने के लिए पहली बार 'जागरूकता ऑब्जर्वर' की नियुक्ति होगी। देश में बढ़ते वोट प्रतिशत में अब और इज़ाफा होने की सम्भावना
है। आयोग के कर्मचारी फोटो वोटर स्लिप घर तक
देकर आएंगे। सुरक्षा,
निष्पक्षता, खर्च सीमा आदि पर निगरानी के लिए अलग-अलग ऑब्जर्वर नियुक्त होंगे। वहीं उम्मीदवारों
के लिए नामांकन पत्र में हर कॉलम भरना जरूरी होगा। वे कोई कालम खाली छोड़ंगे तो नामांकन
रद्द हो सकता है।
दिल्ली की विधानसभा कुल सत्तर सीटों की है और उसका राजनीतिक
महत्व नहीं है। पर दिल्ली का मानसिक महत्व है। यहाँ ‘आप’ का उदय भाजपा के लिए खतरनाक है। हर राज्य
में एंटी इनकम्बैंसी अपना काम करेगी। पर जैसा कि लगता है केवल राज्य सरकारों के कामकाज
से ही फैसले नहीं होंगे। शिवराज सिंह चौहान, रमन सिंह, शीला दीक्षित और अशोक गहलोत
अपेक्षाकृत साफ छवि वाले राजनेता हैं, पर चारों के लिए इस बार मैदान पूरी तरह साफ नहीं
है। ओपीनियन पोल अलबत्ता कांग्रेस के लिए केवल दिल्ली में उम्मीद की किरण देख रहे हैं।
वह भी आंशिक रूप से। पर ‘आप’ के आ जाने
से उनकी मुश्किलें कम हुई हैं। उनकी एंटी इनकम्बैंसी का फायदा भाजपा को नहीं मिल पाएगा।
यों भी दिल्ली भाजपा गुटबाजी की शिकार है। गुटबाजी कांग्रेस में भी है, पर वह भाजपा
से बेहतर स्थिति में नजर आती है।
सामंतों और पूंजीपतियों के खिलाफ संघर्ष का दावा करने वाली कांग्रेस
मध्यप्रदेश में विधानसभा चुनाव महाराजा ज्योतिरादित्य सिंधिया के नेतृत्व में लड़ेगी।
भाजपा के भीतर भी एक प्रकार का नव-सामन्तवाद है। शिवराज सिंह का रथ पूरे मध्यप्रदेश
में घूम रहा है|
मध्य प्रदेश के मुकाबले छत्तीसगढ़ में भाजपा के रमन सिंह की
स्थिति अच्छी लगती है। उनकी सरकार के कार्यक्रम सफलता पूर्वक चले हैं। कांग्रेस के
भीतर गुटबाजी और नेतृत्व का संकट है। दोनों पार्टियाँ जनजातीय इलाकों में अपना प्रभाव
बढ़ाने की कोशिश करेंगी। कांग्रेस के अजीत जोगी खुद को जनजातीय नेता साबित करते हैं।
नक्सलियों के हाथों महेन्द्र कर्मा की मौत के बाद समीकरण बदले हैं। कांग्रेस के एक
सम्मानित नेता अरविन्द नेताम अब उसके साथ नहीं हैं। राजस्थान में हालांकि वसुंधरा राजे
असाधारण रूप से लोकप्रिय राजनेता नेता नहीं हैं, पर पिछले कुछ समय से उन्होंने अपनी
सभाओं और रैलियों से अशोक गहलोत की सरकार के खिलाफ माहौल बनाया है। इसके साथ ही उन्होंने
पार्टी के ऐसे तत्वों पर काबू पा लिया है जो उनके नेतृत्व को चुनौती देने की स्थिति
में होते। यहाँ कांग्रेस और भाजपा के बीच सीधा चुनाव होता है, पर तीसरे मोर्चे की सम्भावना
भी खोजी जा रही है। कांग्रेस ने अपने प्रत्याशियों के नाम तय करने शुरू कर दिए हैं।
बताया जा रहा है कि कम से कम 75 नाम तय हो चुके हैं। महत्वपूर्ण यह है कि पार्टी बड़ी
संख्या में वर्तमान विधायकों का टिकट काटने जा रही है। इसकी प्रतिक्रिया भी देखने को
मिलेगी।
इन चारों राज्यों में राहुल गांधी और नरेन्द्र मोदी का सीधा
मुकाबला भी साफ दिखाई पड़ रहा है। चारों राज्यों में दोनों नेताओं की रैलियाँ हो रहीं
हैं। इस अर्थ में स्थानीय मसलों पर राष्ट्रीय नेतृत्व भारी पड़ेगा और इसीलिए ये चुनाव
लोकसभा चुनाव के सेमी फाइनल जैसे लगते हैं। पर असल परीक्षा राहुल गांधी की नहीं नरेन्द्र
मोदी की है। राहुल पर अपने आप को साबित करने का दबाव नहीं है। उनका नेतृत्व सुरक्षित
है। मोदी अपनी पार्टी के भीतर संघर्ष करते हुए शिखर पर आए हैं। हालांकि उन्हें संगठन
का पूरा समर्थन प्राप्त है, पर कुछ सीनियर नेताओं के मन में बैठी खलिश खत्म हुई है
या कायम है पता लगाना मुश्किल है। इसलिए इन चुनावों में भाजपा को उम्मीद से कम मिला
तो ठीकरा मोदी के सिर फूटेगा। कांग्रेस का वार तो होगा ही पार्टी के भीतर से भी हमले
होंगे। पर मोदी सफल हुए तो कांग्रेस के लिए यह बेहद बुरी खबर होगी।
हरिभूमि में प्रकाशित
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