अमेरिका ने आधिकारिक रूप से नवाज़ शरीफ की इस सलाह को खारिज
कर दिया कि कश्मीर-मामले में उसे मध्यस्थता करनी चाहिए। अमेरिका का कहना है कि
दोनों देशों को आपसी संवाद से इस मसले को सुलझाना चाहिए। अमेरिकी विदेश विभाग की
प्रवक्ता जेन पसाकी ने ट्विटर पर पूछे गए एक सवाल के जवाब में कहा कि हमारे
दृष्टिकोण में बदलाव नहीं हुआ है। अमेरिका दोनों देशों के बीच संवाद को बढ़ावा
देता रहेगा। उधर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सीमा पर लगातार गोलीबारी को लेकर नवाज़
शरीफ के प्रति अपनी निराशा को व्यक्त किया है। नियंत्रण रेखा पर शांति बनाए रखने
के लिए दोनों देशों के बीच सन 2003 में जो समझौता हुआ था, वह पिछले दस साल से अमल
में आ रहा था। अब ऐसी क्या बात हुई कि पिछले 10 महीनों से लगातार कुछ न कुछ हो रहा
है।
पाकिस्तान की लोकतांत्रिक व्यवस्था में नवाज़ शरीफ की अंतर्विरोधी
भूमिका को समझने की कोशिश करनी चाहिए। इस साल चुनाव होने के पहले ही पाकिस्तान
पीपुल्स पार्टी की सरकार जेहादी तत्वों के निशाने पर थी। नवाज़ शरीफ और बेनज़ीर
भुट्टो एक-दूसरे के राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी थे। एक समय ऐसा या जब बेनज़ीर और उनके
पति आसिफ अली ज़रदारी को देश छोड़कर जाना पड़ा। उनके खिलाफ कई तरह के मुकदमे दायर
करने में नवाज़ शरीफ की भूमिका थी। यह संयोग था कि शरीफ के मुकाबले परवेज़ मुशर्रफ
आ गए, जिन्होंने नवाज़ शरीफ को जीवनदान देते हुए सऊदी अरब जाने की इजाजत दे दी
वरना उनका हश्र भी ज़ुल्फिकार अली भुट्टो जैसा होता। पाकिस्तान की राजनीति में
पंजाबी और सिंधी दो प्रबल प्रतिद्वंद्वी हैं। पर देश की जेहादी राजधानी लाहौर के
पास मुरीद्के में है। लश्करे तैयबा का मुख्यालय। नवाज़ शरीफ के लश्कर से रिश्ते जग
जाहिर हैं। सन 1990 में जब लश्कर का जन्म हो रहा था नवाज़ शरीफ प्रधानमंत्री बन गए
थे। नवाज़ शरीफ के पीछे सऊदी अरब का हाथ है। वहाबी विचार के प्रसार में सबसे
ज्यादा साधन और स्रोत सऊदी अरब के लगे हैं। पाकिस्तानी जेहादियों को वहाँ से भी
पैसा और ताकत मिलती है।
हालांकि पाकिस्तानी प्रतिष्ठान में किसी की ताकत वहाँ के
जेहादियों से लड़ने की नहीं है, पर एक हद तक परवेज़ मुशर्रफ ने उनसे भिड़ने की
कोशिश की थी। लाल मस्जिद पर कार्रवाई इसका उदाहरण है। बहरहाल पाकिस्तानी राजनीतिक
दलों में पाकिस्तान मुस्लिम लीग (नवाज़) कट्टरपंथियों के ज्यादा करीब है। इसके
अलावा नवाज़ शरीफ के ज्यादातर राजनीतिक प्रतिस्पर्धी इस समय परास्त हैं। सेना के
साथ रिश्ते ठीक रखने की कोशिश में उन्होंने जनरल परवेज़ कियानी को रिटायर करने के
बजाय एक बेहतर पद देकर अपने साथ बनाए रखने की कोशिश की है। उनके सामने फिर भी दो
चुनौतियाँ हैं। पहली है देश को आर्थिक बदहाली से बाहर निकालने की और दूसरी है
अमेरिका के साथ रिश्तों की। सन 1999 में जब वे प्रधानमंत्री थे पाकिस्तान और
अमेरिका के रिश्ते दूसरे धरातल पर थे। तब अमेरिका पर अल-कायदा का हमला नहीं हुआ
था। पर आज स्थिति बदली हुई है। भारत और अमेरिका के रिश्ते भी अब दूसरी बुनियाद पर
हैं।
नवाज़ शरीफ का कहना है, ''जुलाई 1999 में करगिल युद्ध के दौरान जब मैं अमेरिका गया तो मैंने
तत्कालीन राष्ट्रपति बिल क्लिंटन से कहा था कि आप हाथ डालें तो कश्मीर मुद्दा सुलझ
सकता है. अगर आप पश्चिम एशिया पर ख़र्च होने वाले अपने वक्त का 10 फ़ीसदी भी कश्मीर पर लगाते तो मसला सुलझ जाता.'' सवाल है कि नवाज़ शरीफ रिश्ते बेहतर बनाना चाहते हैं या
अपने जेहादियों को खुश करने के लिए कश्मीर में फिर से किसी किस्म की घुसपैठ चाहते
हैं। पाकिस्तानी जेहादियों की समझ कहती है कि अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना की
वापसी के बाद उन्हें फिर से मनमर्जी का मौका मिलेगा।
मंगलवार को गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे अचानक जम्मू पहुँचे
और उन्होंने साम्बा इलाके की अंतरराष्ट्रीय सीमा पर तैनात बीएसएफ के काम-काज का
मुआयना किया. गृहमंत्री का यह अचानक दौरा बताता है कोई गम्भीर बात है। सीमा पर
गोलाबारी अब चिंताजनक स्थिति में पहुँच गई है. पिछले मंगल को पाकिस्तानी सेना ने
लाउडस्पीकर पर घोषणा करके केरन सेक्टर के एक आदर्श गाँव में कम्युनिटी हॉल का निर्माण
रुकवा दिया. इसका मतलब है कि अब भारी तोपखाने का इस्तेमाल होने की नौबत आ गई है।
यह गोलीबारी अब तभी बंद होगी जब इसे शुरू करने वाले की तकलीफ बढ़ेगी। सन 2003 में
दोनों देशों ने नियंत्रण रेखा के आसपास के गाँवों में जीने का माहौल बनाने का
समझौता किया था. उससे सीमा के दोनों और राहत महसूस की गई थी।
पाकिस्तानी सत्ता प्रतिष्ठान को लगता है कि वह अपने
उद्देश्यों को पूरी करने के बाद बच निकलेगा तो वह गलत सोचता है। इसकी कीमत उसे भी
चुकानी होगी। पिछले दस महीनों से कड़वाहट अब पाकिस्तान को भी महसूस करनी चाहिए। जम्मू-कश्मीर
के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला पाकिस्तान के खिलाफ कड़ी कार्रवाई चाहते हैं.
उन्होंने कहा कि यदि पाकिस्तान लाइन ऑफ कंट्रोल पर संघर्ष विराम का उल्लंघन करना
जारी रखता है तो केंद्र सरकार को अन्य विकल्पों पर विचार करना चाहिए. नवाज शरीफ ने
अमेरिका से हस्तक्षेप की माँग करके घाव फिर से हरे कर दिए हैं. नवाज शरीफ रिश्तों
को बेहतर बनाने की बात करते हैं वहीं भारत को ‘सबसे तरज़ीही मुल्क’ का दर्ज़ा देने भर को तैयार
नहीं हैं. उनका कहना है कि इस मामले पर भारत के चुनाव के बाद बात होगी. पाकिस्तान
को गलतफहमी है कि मौज़ूदा तनाव का रिश्ता लोकसभा चुनाव से जुड़ा है। सत्ता-परिवर्तन
हो भी गया तो विदेश नीति और रक्षा नीति में कोई बड़ा बदलाव नहीं आएगा।
विचार इस बात पर करना है कि पाकिस्तान के बारे में हमारी
नीति क्या हो। कुछ लोग कहते हैं कि हमें उसके साथ बातचीत बंद कर देनी चाहिए। कड़ाई
से पेश आना चाहिए। और ज़रूरत पड़े तो आतंकी ठिकानों तक भीतर घुसकर मार करनी चाहिए।
इसमें दो राय नहीं कि पाकिस्तानी सत्ता प्रतिष्ठान पर विश्वास नहीं किया जा सकता।
पर इसके लिए हमें अपनी इंटेलीजेंस और रक्षा व्यवस्था को हर समय चौकस रखना चाहिए।
पर बातचीत, संवाद और यहाँ तक कि व्यापार को भी बढ़ाना चाहिए। दोनों देशों के
आर्थिक रिश्ते बनने से जेहादी राजनीति कमज़ोर होगी। नवाज़ शरीफ 1999 के दौर में जी
रहे हैं। वे मामले का अंतरराष्ट्रीयकरण चाहते हैं और चोरी-छिपे जेहादियों की
घुसपैठ भी। यह तभी सम्भव है जब हम सोते रहेंगे। सीमा पर करारा जवाब देने में पीछे
नहीं रहें और बातचीत के मोर्चे पर आगे रहें।
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