दिल्ली में शपथ लेने के बाद अरविंद केजरीवाल ने गीत गाया, ‘इंसान का इंसान से हो भाईचारा, यही पैगाम
हमारा.’ ऐसे तमाम गीत पचास के दशक की हमारी फिल्मों में होते
थे. नए दौर और नए इंसान की नई कहानी लिखने का आह्वान उन फिल्मों में था. पर साठ
साल में राजनीति के ही नहीं, फिल्मों, नाटकों, कहानियों और सीरियलों के स्वर बदल
गए. सन 1952 के चुनाव में आम आदमी पार्टी की ज़रूरत नहीं थी. सारी पार्टियाँ ‘आप’ थीं. तब से अब में पहिया पूरी तरह घूम चुका है.
जो हीरो थे, वे विलेन हैं.
हिंदी की कहावत है 'ओखली में सिर दिया तो मूसल से क्या डरना?' आम आदमी पार्टी ने जोखिम उठाया है तो उसे इस काम को तार्किक परिणति तक पहुँचाना भी होगा.
यह तय है कि उसे समर्थन देने वाली पार्टी ने उसकी 'कलई खोलने' के अंदाज़ में ही उसे समर्थन दिया है और 'आप' के सामने सबसे बड़ी चुनौती है इस बात को गलत साबित करना और परंपरागत राजनीति की पोल खोलना.
'आप' सरकार की पहली परीक्षा अपने ही हाथों होनी है. यह पार्टी परंपरागत राजनीति से नहीं निकली है.
देखना होगा कि इसका आंतरिक लोकतंत्र कैसा है, प्रशासनिक कार्यों की समझ कैसी है और दिल्ली की समस्याओं के कितने व्यावहारिक समाधान इसके पास हैं?
इससे जुड़े लोग पद के भूखे नहीं हैं लेकिन वे सरकारी पदों पर कैसा काम करेंगे? सादगी, ईमानदारी और भलमनसाहत के अलावा सरकार चलाने के लिए चतुराई की जरूरत भी होगी, जो प्रशासन के लिए अनिवार्य है.