संसदीय लोकतंत्र के विशेषज्ञों
के लिए यह शोध का विषय है कि प्रधानमंत्री बीच-बीच में अपने मंत्रिमंडल में फेर-बदल
क्यों करते हैं। और यह भी कि फेर-बदल कब करते हैं। किसी भी बदलाव का सबसे बड़ा फायदा
यह होता है कि पूरी टीम के बीच काम का नया माहौल बनता है, चुस्ती आती है। नए लोग सामने
आते हैं और ढीला काम करने वाले बाहर होते जाते हैं। इस फेर-बदल के पीछे सप्लाई और डिमांड
का मार्केट गणित भी होता है। यानी कुछ लोग सरकार में शामिल होने के लिए दबाव बनाते
हैं और कुछ खास तरह के लोगों की ज़रूरत बनती जाती है। साथ ही मंत्रियों के कामकाज की
समीक्षा भी हो जाती है। इन सब बातों के अलावा राजनैतिक माहौल, विभिन्न शक्तियों के
बीच संतुलन बैठाने और यदि गठबंधन सरकार है तो सहयोगी दलों की ज़रूरतों को पूरा करने
के लिए भी बदलाव होते हैं। इतनी लम्बी कथा बाँचने की ज़रूरत इसलिए पड़ी कि हम केन्द्रीय
मंत्रिमंडल के ताजा फेर-बदल का निहितार्थ समझ सकें।
इस बार के फेर-बदल का
जितना गुब्बारा फुलाया गया था, उतना ही यह फुस्स साबित हुआ। जनवरी में हुए फेर-बदल
के वक्त कहा गया था कि अभी मामूली बदलाव कर रहे हैं। असली बदलाव बाद में करेंगे। पर
इस बार के बदलाव तो बदलाव जैसे भी नहीं लग रहे। एक कानून मंत्री बदले और दूसरे जयराम
रमेश को ग्रामीण विकास मिला या वे पर्यावरण विभाग से हटे। लगभग पूरी टीम जहाँ की तहाँ
है। जो बदलाव हुआ भी है वह कुर्सियों की निरर्थक अदला-बदली लगती है। डीएमके के मंत्रियों
की चरण पादुकाएं वहीं रखी हैं। उनका इंतजार हो रहा है। साथ में प्रधानमंत्री ने घोषणा
कर दी है कि 2014 के चुनाव के पहले अब कोई फेर-बदल नहीं। मतलब यह कि सरकार के कामकाज
में अब कोई बड़ा बदलाव आने वाला नहीं है। कौन मंत्री अच्छा काम करता है या कौन खराब
इसे देखने का अब वक्त नहीं है।
देश की राजनीति पर विहंगम
दृष्टि डालें तो एक बात साफ है कि कांग्रेस पार्टी किसी नए विचार या नए कार्यक्रम की
राजनीति करने के बजाय मैदान में प्रभावशाली विकल्प की नामौज़ूदगी का फायदा उठाना चाहती
है। वही पुरानी थकी पार्टी और उसके वही पुराने थके तौर-तरीके। पार्टी की सारी उम्मीदें अगले विधानसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश, उत्तरांचल और पंजाब में सफलता मिलने पर टिकी
हैं। पर उसके पहले क्या होगा? आर्थिक सुधार कार्यक्रम के तहत तमाम बुनियादी कानूनों
में बदलाव होना है। भोजन के अधिकार, भूमि अधिग्रहण कानून और लोकपाल कानून को संसद से
पास कराना है। लगातार बढ़ती मुद्रा-स्फीति पर काबू पाना है। साथ ही काले धन और घोटालों
को लेकर चल रही अदालती कार्रवाई और उसकी कवरेज के कारण जनमत में हो रहे बदलाव का सामना
करना है। आने वाले समय में काफी बड़ी राजनैतिक लड़ाई संसद में लड़ी जाएगी।
कांग्रेस का राजनैतिक
कार्यक्रम राहुल गांधी को स्पॉटलाइट में रखने तक सीमित लगता है। इसमें कोई दोष नहीं,
बल्कि इस मामले में कांग्रेस की स्थिति भाजपा से बेहतर है। वह कम से कम एक नए नेता
को तैयार कर रही है, जिसके पास नए भारत का सपना है। राहुल गांधी ने शहरी मध्यवर्ग के
बजाय ग्रामीण और जनजातीय इलाकों की ओर ध्यान दिया है। आपने गौर किया होगा कि नए ग्रामीण
विकास मंत्री जयराम रमेश ने नक्सली इलाकों की तरफ ध्यान देने की बात कही है। अभी तक
छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार और केन्द्र सरकार नक्सली समस्या के फौजी समाधान की बात कर
रही थी। जयराम रमेश सरकार में पार्टी के प्रतिनिधि माने जाते हैं। अक्सर तीखे वक्तव्यों
की वजह से चर्चा में आते हैं, पर होमवर्क में वे तमाम पुराने मंत्रियों से बेहतर हैं।
अब वे कैबिनेट की बैठकों में भी शामिल होंगे। और शायद सवाल उठाने का काम करें।
आने वाले वक्त में कॉरपोरेट
हित और जनता के सवाल टकराएंगे। आर्थिक उदारीकरण की शेष राह को आसानी से पार करना सम्भव
नहीं होगा। अदालतों और पब्लिक की स्क्रूटिनी बढ़ती जा रही है। दूसरी ओर सरकार गवर्नेंस
के मोर्चे पर कच्ची है। मंत्रिमंडल के ताज़ा विस्तार से यह बात ज़ाहिर हुई है कि यूपीए
के पास राजनैतिक दृष्टि नहीं है। उत्तरांचल और पंजाब में उसकी सरकार आ भी गई तो उससे
क्या हो जाएगा? 2014 के चुनाव के एक साल पहले गुजरात, कर्नाटक, मध्य प्रदेश,
हिमाचल, दिल्ली और राजस्थान के चुनाव हैं। इन छहों में उसका एनडीए से मुकाबला है। इन
चुनावों से 2014 की हवा के रुख का पता लगेगा। तब तक राजनीति के झंझावातों की दिशा क्या
होगी कौन जाने।
मंजुल का कार्टून साभार |
यूपीए के लिए यूपी जीतना
लक्ष्य नहीं सिर्फ एक सीढ़ी चढ़ना भर है। पर उत्तर प्रदेश में उसके पास संगठन नहीं
है और न नेता है। पिछले दो दशक में कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश और बिहार में नेताओं को
पनपने ही नहीं दिया। अब जो फॉर्मूला है वह है राहुल के करीब पहुँचो। कांग्रेस की स्थिति
उत्तर प्रदेश में बेहतर हुई है। पर आज के हालात को देखकर नहीं लगता कि वह सरकार बना
ले जाएगी। क्या वह किसी गठबंधन में जाएगी? ऐसा भी नहीं लगता। अब क्या इस
तरह की बातों के सहारे यूपीए 2014 का चुनाव भी जीतने में कामयाब होगी? हो भी सकती है, क्योंकि विपक्ष कहीं नज़र नहीं आता है। एनडीए के पास कोई
योजना नहीं है और वाम मोर्चा पस्त पड़ा है। कोई विकल्प नहीं है। पर यह नहीं भूलना
चाहिए कि 2004 के चुनाव के पहले यही स्थिति थी। लोग कहते थे कि सरकार तो एनडीए की
ही बनेगी, क्योंकि विकल्प नहीं है।
सार्थक चिंतन।
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जीवन का सूत्र...
लोग चमत्कारों पर विश्वास क्यों करते हैं?
mantri kam ke adhar par balki 10 janpath aur rajniti ke adhar per badale jate hai
ReplyDeleteयूं.पी.में तो राहुल मायावती जी की दोबारा जीत सुनिश्चित करने का अभियान चला रहे हैं.
ReplyDeleteये राजनीती है इनकी ये ही जाने इनको जितना समझने लगते हैं उतना ही उलझ जाते हैं इसलिए इनसे दूर ही सही |
ReplyDeleteलेख अच्छा लगा |
Great hai.
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