प्रधानमंत्री का कहना है कि लोकपाल की व्यवस्था संवैधानिक दायरे में होनी चाहिए। इसपर किसी को आपत्ति नहीं। संवैधानिक दायरे से बाहर वह हो भी नहीं सकता। होगा तो संसद से पास नहीं होगा। पास हो भी गया तो सुप्रीम कोर्ट में नामंज़ूर हो जाएगा। सर्वदलीय बैठक में इस बात पर सहमति थी कि एक मजबूत लोकपाल बिल आना चाहिए। अब बात बिल की बारीकियों पर होगी। लोकपाल बिल पर जब भी बात होती है अन्ना हजारे के अनशन का ज़िक्र होता है। क्या ज़रूरत है अनशन के बारे में बोलने की? क्या आपको उम्मीद नहीं कि 15 अगस्त तक बिल पेश कर देंगे? चूंकि पूरी व्यवस्था 42 साल से चुप बैठी है इसलिए आंदोलन जैसी बातें होतीं हैं। बिल के उपबन्धों पर बातें कीजिए अनशन पर नहीं। इसे समझने की कोशिश कीजिए कि किस बिन्दु पर किसे आपत्ति है। नीचे पढ़ें जनसंदेश टाइम्स में प्रकाशित मेरा लेखः-
किसी को इसकी ख़बर नहीं है मरीज़ का दम निकल रहा है
सियासत की बारादरी में काला बाज़ार
लोकपाल बिल पर सर्वदलीय सम्मेलन शुरू होने के पहले ही देश को इस बात की आशा थी कि इस बैठक में कोई सर्वानुमति नहीं उभरेगी। फिर भी बैठक में ज्यादातर पार्टियों का शामिल होना अच्छी बात थी। यह बैठक अन्ना हजारे ने नहीं सरकार ने बुलाई थी। क्योंकि संसद से प्रस्ताव पास कराने के लिए सरकार की ओर से विधेयक पेश होना जरूरी है। इसलिए इसके निष्कर्ष महत्वपूर्ण हैं। अच्छा हो कि इसका मसौदा ऐसा बनाया जाय कि उसपर बहस की गुंजाइश ही न रहे। क्या ऐसा कभी सम्भव है?
ये पंक्तियाँ बैठक शुरू होने के पहले लिखी गईं हैं, इसलिए कुछ बातें अनुमान पर आधारित हैं। पर यह निरा अनुमान नहीं है कि राजनैतिक दल राष्ट्रीय प्रश्नों को भी अपनी राजनीति के दायरे में देखते हैं, राष्ट्रीय दायरे में नहीं। व्यवस्थागत सुधार सिर्फ अन्ना हजारे की ज़रूरत नहीं हैं। हो सकता है कि वे संविधान को जाने-समझे बगैर अवास्तविक माँगें उठा रहे हों। पर अन्ना ने तकरीबन सभी पार्टियों के सामने अपना पक्ष रखा है। पार्टियों के पास संवैधानिक और असंवैधानिक के बीच का फर्क करने की अक्ल है।
लोकपाल बिल में प्रधानमंत्री को शामिल किया जाय या न किया जाय, यह मसला आज बहस का विषय कैसे बन गया? अतीत में तैयार किए गए लगभग सभी मसौदों में प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में रखा गया था। इसी सरकार के पिछले साल के विधेयक में भी यह प्रस्ताव था। संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार राष्ट्रपति और राज्यपाल जैसे पदों पर काम करने वाले व्यक्तियों के खिलाफ पद पर रहते हुए कार्रवाई नहीं की जा सकती है। संविधान के अनुच्छेद 361 के सबक्लॉज़ (2) के अनुसार राष्ट्रपाति या किसी राज्य के राज्यपाल के विरुद्ध उसकी पदावधि के दौरान किसी अदालत द्वारा दांडिक कार्यवाही नहीं की जाएगी। इसकी वजह यह है कि इन पदों पर काम करने वाले व्यक्ति औपचारिक प्रमुख होते हैं। वे व्यावहारिक निर्णय नहीं करते। पर जो व्यावहारिक निर्णय करते हैं, उनके बारे में समान दृष्टिकोण होना चाहिए।
प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों को संविधान ने इस किस्म की छूट नहीं दी है। इमर्जेंसी के दौरान प्रधानमंत्री को भी राष्ट्रपति और राज्यपाल की तरह छूट देने के लिए संविधान संशोधन लाया गया था, पर वह सम्भव नहीं हो पाया। बहरहाल सरकारी पक्ष मानता है कि प्रधानमंत्री पर कार्रवाई के लिए भ्रष्टाचार विरोधी कानूनों की वर्तमान व्यवस्थाएं पर्याप्त हैं। वर्तमान व्यवस्थाएं सीबीआई के मार्फत जाती हैं। सीबीआई प्रधानमंत्री के अधीन है। तब जाँच कैसे होगी?
सत्ता के भ्रष्ट होने का अंदेशा हमेशा रहता है इसलिए उसपर नज़र रखने की व्यवस्था होनी चाहिए। उसे उन्मुक्त छोड़ा नहीं जा सकता। इस पूरी व्यवस्था में न्यायपालिका की भूमिका भी है। वह कार्यपालिका और व्यवस्थापिका के निर्णयों की समीक्षा करती है। इस प्रकार सत्ता के तीनों खम्भे एक जगह हैं। इन तीनों पर नज़र रखने वाली व्यवस्था के बारे में सोचने में गलत क्या है? जहाँ तक लोकपाल की जवाबदेही की बात है तो उसका भी पूरा इंतज़ाम होना चाहिए। व्यवस्था की निरंकुशता पर नज़र रखने वाली व्यवस्था निरंकुश नहीं हो सकती। यह किसी का व्यक्तिगत झगड़ा नहीं व्यवस्था का सवाल है। ज़ोर इस बात पर है कि लोकपाल नाम की संस्था निर्भीक और ताकतवर होनी चाहिए।
संसदीय लोकतंत्र की खूबी यह है कि प्रत्येक संस्था को अपने दायरे में स्वतंत्र होकर काम करने की छूट है। पर यह व्यवस्था किसी को निर्द्वंद होकर काम करने की छूट नहीं देती। जब संसद संवैधानिक दायरे से बाहर जाती है तब जनता न्यायपालिका के पास जाती है। इस वक्त जनता संसद के पास आई है, क्योंकि उसे इस व्यवस्था को नियमबद्ध करना है। अन्ना हजारे का आंदोलन जब शुरू हुआ था तब मध्यवर्ग का तो उसे समर्थन से मिला था पर एक पढ़े-लिखे वर्ग ने उसका मज़ाक बनाया था। दिल्ली के एक अंग्रेजी अखबार ने इसके खिलाफ सीरीज़ छापनी शुरू कर दी थी। इस बात को ऐसे पेश किया गया मानो संसद के अधिकार छीन कर सिविल सोसायटी जैसी कोई चीज़ आगे आ रही है। संसद के अधिकार को छीनने की बात किसी ने नहीं की। नागरिक अपनी बात लेकर संसद के दरवाजे पर दस्तक दे रहे हैं। यह एक नई बात है। देश के नियम-कानूनों को बनाने में नागरिकों की भी भूमिका है, यह बात अब स्थापित होगी। हैरत इस बात पर है कि मीडिया का एक तबका नागरिकों को इस अधिकार से वंचित करना चाहता है।
दिक्कत यह है कि व्यवस्था की नियमबद्धता पार्टियों के एजेंडा में नहीं है। कांग्रेस पार्टी अन्ना हजारे आंदोलन पर भाजपा से साठगांठ का आरोप लगाती है। पर भाजपा सबसे ज्यादा संशय में है। वह इस बैठक से बाहर रहना चाहती थी। उसके मुकाबले वामदलों ने अपना रुख पहले साफ कर दिया है। वे प्रधानमंत्री को दायरे में रखना चाहते हैं, पर न्यायपालिका के लिए न्यायिक आयोग बनाने के पक्ष में हैं। ज्यादातर राजनैतिक दलों को लगता है कि लोकपाल विधेयक राजनैतिक सत्ता के विशेषाधिकार को कम करेगा। उनका यह अंदेशा एक हद तक सही है। उन्मुक्त विशेषाधिकार पर रोक लगनी ही चाहिए। पर यदि सार्वजनिक हित पूरा होता हो तो जनता उन्हें इससे भी ज्यादा विशेषाधिकार देगी।
सिस्टेमेटिक सुधार केवल सरकारी व्यवस्था में ही नहीं राजनैतिक व्यवस्था में भी चाहिए। भ्रष्टाचार की आग इसलिए भी लगी है कि चुनाव लड़ना महंगा काम है। जनता की सेवा करने के लिए नेता को जितने साधन चाहिए वे सफेद व्यवस्था में नही मिलते। तो राजनीति के इस काला बाज़ार को बंद क्यों नहीं करते? चुनाव-चंदे से लेकर टिकट देने तक की करके साफ-सुथरी व्यवस्था क्यों नही कायम होती? इलाज हो तो रहा है, पर अकबर इलाहाबादी का शेर याद आता हैः-
ख़ुशी है सब को कि आपरेशन में ख़ूब नश्तर चल रहा है / किसी को इसकी ख़बर नहीं है मरीज़ का दम निकल रहा है
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