Monday, July 11, 2011

लम्बी है ग़म की शाम, मगर शाम ही तो है



सवालों के ढेर में जवाब खोजिए

पिछले कुछ समय से लगता है कि देश में सरकार नहीं, सुप्रीम कोर्ट काम कर रही है। ज्यादातर घोटालों की बखिया अदालतों में ही उधड़ी है। अक्सर सरकारी वकील अदालतों में डाँट खाते देखे जाते हैं। परिस्थितियों के दबाव में सरकार की दशा सर्कस के जोकर जैसी हो गई है जो बात-बात में खपच्ची से पीटा जाता है। इसके लिए सरकार भी जिम्मेदार है और कुछ परिस्थितियाँ ऐसी हैं कि सरकार का बचाव करना मुश्किल है। पर शासन की यह दुर्दशा शुभ लक्षण नहीं है। हमारी व्यवस्था में सरकार, विधायिका और न्यायपालिका के काम बँटे हुए हैं। जिसका जो काम है उसे वही सुहाता है। पर ऐसा नहीं हो रहा है तो क्यों? और कौन जिम्मेदार है इस दशा के लिए?

आमतौर पर हम सरकार के कामकाज तक अपने को सीमित रखते हैं। विधायिका और न्यायपालिका को या तो उसी का हिस्सा मानते हैं या ज्यादा तवज्जो नहीं देते। पर पिछले कुछ वर्षों से न्यायपालिका और विधायिका दोनों की भूमिकाएं मुखर हुईं हैं। पर गवर्नेंस के मोर्चे की कमज़ोरियां जल्दी नज़र आतीं हैं। जैसे-जैसे अर्थ-व्यवस्था खुल रही है वैसे-वैसे सरकारी व्यवस्था में छिद्र नज़र आ रहे हैं। ये छिद्र जीवन के हर क्षेत्र में हैं। विधायिका और न्यायपालिका में भी हैं। बिजनेस-इंडस्ट्री और मीडिया में भी। तब केवल सरकार को ही क्यों कोसा जाए? सिस्टमेटिक फेल्यर के लिए क्या सिर्फ एक संस्था जिम्मेदार है?

सुप्रीम कोर्ट के दो ताज़ा आदेश भारतीय राज-व्यवस्था पर गहरी टिप्पणी है। पहला है नक्सलियों के खिलाफ चल रहे सलवा जुडूम को रोकने का आदेश और दूसरा है काले धन की पड़ताल के लिए विशेष जाँच दल बनाने की घोषणा। नक्सली आंदोलन और काला धन हमारी व्यवस्था के दो सबसे महत्वपूर्ण ब्लैकहोल हैं। सन 2005 में छत्तीसगढ़ में नक्सलियों के खिलाफ सलवा जुडूम शुरू हुआ था। सरकार का कहना है कि यह एक प्रकार का जनांदोलन है जो नक्सलियों के खिलाफ स्वतः था। पर मानवाधिकारवादी ऐसा नहीं मानते। यह स्वतःस्फूर्त हो भी तो सरकार इसमें भागीदार है। और इसे केवल राज्य सरकार का ही नहीं केन्द्र सरकार का समर्थन भी हासिल है। इस काम में लगने वाली रकम का 80 फीसदी हिस्सा केन्द्र सरकार देती है।

सलवा जुडूम की तरह कश्मीर में भी सरकार अलगाववादियों से लड़ने वालों की मदद करती रही है। यह रणनीति हमने औपनिवेशिक अंग्रेजी सरकार से विरासत में ली है। दो वर्गों को आपस में लड़ाना। पर क्या आधुनिक संवैधानिक लोकतंत्र में यह सब शोभा देता है? सुप्रीम कोर्ट ने यही सवाल किया है? इससे जुड़ा दूसरा सवाल है कि नक्सली समस्या क्या गवर्नेंस की विफलता से उपजी समस्या नहीं है? एक विशाल जन-समूह को आर्थिक विकास का कणमात्र भी प्राप्त न हो। शिक्षा, स्वास्थ्य, भोजन, आवास जैसे बुनियादी सवाल हल न होते हों। सरकार का कोई कारिन्दा और बन्दा उन तक न पहुँचता हो। और जो कुछ दिल्ली या रायपुर से भेजा जाता हो वह इन कारिन्दों और बन्दों की जेब में चला जाता हो तो दोष किसका है? बेशक हिंसा का प्रचार करने वाले संगठनों से हिंसक तरीके से ही निपटा जाना चाहिए, पर लड़ाई जनता से होनी चाहिए या भ्रष्ट व्यवस्था से? सलवा जुडूम में इधर से मरें या उधर से दोनों इस इलाके के गरीब आदिवासी हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने काले धन और मनी लाउंडरिंग के बारे में जस्टिस जीवन रेड्डी और एमबी शाह का विशेष जाँच दल (एसआईटी) बनाकर गवर्नेंस पर दूसरी बड़ी टिप्पणी की है। पिछले कुछ महीने की अदालती कार्यवाही को देखें तो पता लगता है कि सरकार हर बार कहती है कि फलां ट्रीटी के कारण हम ऐसा नहीं कर सकते या फलां नियम हमें जानकारियाँ देने से रोकता है। इसपर अदालत ने अपनी टीम बनाकर सीधे जानकारियां लेने का फैसला किया है। इसके पहले सरकार ने राजस्व सचिव, रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर और तमाम जाँच एजेंसियों के डायरेक्टरों की हाई लेवल कमेटी बनाई थी। अदालत ने उस कमेटी को भी इस एसआईटी के अधीन कर दिया है। क्या यह ठीक है?

एक अरसे से यह धारणा बन रही है कि सरकार तब तक काम नहीं करती जब तक कोई बाहरी ताकत उसे मजबूर न करे। यानी सरकारी काम-काज का एक ढर्रा बन गया है। पर इसके विपरीत व्यावहारिक कठिनाइयाँ भी हैं। इन्हें हमें और अदालतों को समझना होगा। सलवा जुडूम और नक्सल विरोधी कार्रवाइयों से जुड़े लोगों की मनोदशा क्या है? उनके पास समाधान क्या है? ताकत का इस्तेमाल नहीं होना है तो नक्सली समस्या का समाधान कैसे होगा? काले धन को सतह पर लाने में दिक्कतें क्या हैं? अदालत द्वारा घोषित एसआईटी कैसे काम करेगी? वह कितना समय लगाएगी? पूरे देश में सवाल ही सवाल हैं। किस संस्था को क्या काम करना है, अक्सर हम यही समझ नहीं पाते हैं।

हम अपनी व्यवस्था से परेशान हैं, पर पहले यह देखें कि सारी दुनिया इस दौर से गुजर रही है। टेकनॉलजी ने सूचनाओं का अम्बार लगा दिया है। इन सूचनाओं के साथ भ्रम, संदेह, अर्ध सत्य और शको-शुबहे भी लिपट कर आते हैं। इनके कारण कई बार अफरा-तफरी मचती है। पर सच यह है कि दुनिया तबाह नहीं हुई है। धीरज रखें और कोशिश करें कि व्यवस्थाएं अपना काम करें। फिर इनमें सुधार के बारे में सोचें। फैज़ के शब्दों मेः-

दिल ना-उम्मीद तो नहीं, नाकाम ही तो है
लम्बी है ग़म की शाम, मगर शाम ही तो है  

6 comments:

  1. अभी अभी अखबार में पढकर उठे हैं, अच्‍छा लिखा है आपने। बधाई।

    ------
    TOP HINDI BLOGS !

    ReplyDelete
  2. हर अंधेरे में उजाले की एक किरण जरूर दिखती है। और इस उजाले को पाने के लिए सभी को मिलकर प्रयास करना होगा। सरकार या विपक्ष में बैठे राजनीतिक दलों की हरकतों से आम-आदमी का भरोसा उठ गया है। चाहे वे पक्ष में रहें या विपक्ष राजनीतिज्ञों की ओछी हरकतों से देश का हर नागरिक परेशान है और वो गिला-शिकवा भी करे तो किससे क्योंकि यहां तो थानेदार ही अस्मत का लुटेरा है। ऐसी स्थिति है कि हर तरफ निराशा व्याप्त है लेकिन कहा गया है कि रात के बाद दिन आना सुनिश्चित है और ऐसी उम्मीद करनी चाहिए कि उजाले की किरण सभी के लिए नई आशाओं का संचार करेगी।

    ReplyDelete
  3. दिल ना-उम्मीद तो नहीं, नाकाम ही तो है
    लम्बी है ग़म की शाम, मगर शाम ही तो है

    पर ऐसी उम्‍मीदें जो वक्‍त की नजाकतों के जवाब देने में आड़े आती हों, टालती हों.. क्‍या खतरनाक नहीं हैं।
    शाम का गम तो ठीक है पर इसे लम्‍बा क्‍यों करें,
    शाम बहुत सारे काम मांगती है... कि‍ सुबह का सूरज बेदाग नि‍कल सके।

    ReplyDelete
  4. jab adalato ko activist ka role nibhana pade tab jan lijiye ki mamla had se bahar nikal raha hai

    ReplyDelete
  5. Anonymous6:20 PM

    आज सुबह ही शुरुवात आज आप लेख के साथ ही हुई थी ......बधाई..

    ReplyDelete
  6. 'उम्मीद वक्त का सबसे बड़ा सहारा है, अगर हौसला हो तो हर मौज में किनारा है,' सर, सरकार अगर कुछ करती तो न ही कोर्ट को किसी तरह दखल देना पड़ता, न ही अन्ना हजारे को और न ही बाबा रामदेव को आवाज बुलंद करनी पड़ती, इसी उम्मीद में हो सकता है....रोशनी की किरण कही से दिख जाय.

    ReplyDelete