‘देश में एक माहौल बना दिया गया है, और यह बात मैं सविनय कहता हूँ, कि अनेक मामलों में मीडिया की भूमिका आरोप लगाने वाले की, अभियोजक की और जज की हो गई है।‘ प्रधानमंत्री ने पाँच सम्पादकों को अपने घर बुलाकर यह बात कही। अंग्रेजी में बोले गए 1884 शब्दों में से केवल 25 शब्दों का आशय ऊपर दिया गया है। इस वाक्य पर प्रधानमंत्री का कितना ज़ोर था, यह वही अनुमान लगा सकता है, जो सामने था। पर एक सहज सवाल उठता है कि क्या सरकार के सामने खड़ी दिक्कतों के लिए मीडिया जिम्मेदार है?
हाल में कुछ केन्द्रीय नेताओं ने स्वीकार किया था कि प्रधानमंत्री को मीडिया से सम्पर्क बढ़ाना चाहिए। सम्पादकों से उनकी मुलाकात इस नई धारणा को बल मिला है कि निगेटिव कवरेज के कारण सरकार की छवि को धक्का लगा है। अन्ना-आंदोलन के सन्दर्भ में सरकार पहले के मुकाबले ज्यादा सतर्क और आक्रामक नज़र आती है। रामदेव के रामलीला-अभियान के विफल होने के बाद अब अगली चुनौती अन्ना का 16 अगस्त से प्रस्तावित अनशन है। पर ऐसा क्यों माना जाय कि अनशन होगा?
यूपीए-एक के मुकाबले राजनैतिक दृष्टि से यूपीए-दो ज्यादा ताकतवर और झंझटों से दूर है। उसके साथ उसके वामपंथी मित्र नहीं हैं, जो विपक्ष के मुकाबले ज्यादा आक्रामक होते थे। फिर भी सरकार के सामने परेशानियाँ बढ़ रहीं हैं। इनकी शुरुआत पिछले साल कॉमनवैल्थ गेम्स के ठीक पहले हुई और तबसे लगातार जारी है। यूपीए-एक के सामने न्यूक्लियर डील और सार्वजनिक उद्यमों के पूँजी विनिवेश के मसले थे, पर अब ऐसे मसले नहीं हैं। न्यूक्लियर लायबिलिटी बिल पास कराने में दिक्कत नहीं हुई। सरकार खाद्य सुरक्षा और भूमि अधिग्रहण बिल पास कराना चाहती है, पर उसमें विपक्ष बाधा नहीं। शायद ये बिल जल्द संसद में रखे जाएं। इन्हें पास कराने में दिक्कत है भी तो यूपीए के भीतर से है, विपक्ष से नहीं।
सन 2009 के लोकसभा चुनाव के बाद कांग्रेस बेहतर स्थिति में आ गई थी। वहीं मुख्य विपक्षी दल भाजपा के सामने नेतृत्व का संकट था। आडवाणी जी को हटाने का फैसला हो गया था। साल के अंत में पार्टी के अध्यक्ष के रूप में नितिन गडकरी को लाया गया तो लगता नहीं था कि भाजपा की ओर से सरकार को कोई बड़ी चुनौती मिलेगी है। मंदिर का मसला उठाने की स्थिति में भी यह पार्टी नहीं थी। गडकरी जी ने शुरुआती संवाददाता सम्मेलनों में बात साफ कर दी थी कि हम मंदिर को मसला बनाने नहीं जा रहे हैं। हमारे लिए तो विकास और जनता से जुड़े सवाल ही असल सवाल हैं। तब से अबतक सरकार के सामने भाजपा किसी चुनौती के रूप में खड़ी नहीं हुई है। इस बेदम पार्टी को ताकत किसने दी?
पिछले दो साल में देश के विपक्षी दलों ने संसद के भीतर और बाहर सरकार के लिए कोई बड़ी चुनौती खड़ी नहीं की है। सच यह है कि विपक्ष ने मुद्दे तैयार नहीं किए, उसे सड़क पर पड़े मिल गए। संसद के पिछले दो सत्रों में पीएसी और जेपीसी को लेकर जो संग्राम चला उसके पीछे का मसला क्या था और वह कहाँ से आया? मसला था भी तो नक्सली हिंसा का था, जिसमें भाजपा कांग्रेस के साथ खड़ी थी। कटोरा कितना खाली है और कितना भरा है इसे दोनों निगाहों से देखने की ज़रूरत है।
जिस वक्त यूपीए-दो की सरकार बनी, दुनिया आर्थिक संकट से रूबरू थी। उसके एक साल पहले दुनिया के सामने अन्न का संकट था। भारत इन दोनों संकटों से बचा रहा। इस दौरान हमारा शेयर बाजार करीब बीस-इक्कीस हजार से गिरकर आठ हजार पर आ गया, पर देश को महसूस नहीं हुआ। अंतरराष्ट्रीय मंदी का असर हमारी अर्थ-व्यवस्था पर पड़ा ज़रूर, पर काफी जल्दी स्थिति नियंत्रण में आ गई। 2007-08 में हमारी जीडीपी ग्रोथ 9.2 प्रतिशत थी जो 2008-09 में 6.7 हो गई। यूपीए-दो के आने के बाद इसने तेजी पकड़ी और 2009-10 में यह दर 7.4 प्रतिशत हो गई।
बीस साल पहले 1991 में जब हमारा विदेशी मुद्रा रिजर्व घटकर दो अरब डॉलर से भी कम हो गया था, हमें अपने पास रखे रिजर्व सोने में से 67 टन सोना बेचना पड़ा था। पर नवम्बर 2009 में भारत ने इंटरनेशनल मोनीटरी फंड से 200 टन सोना खरीदा। इस खरीद का खास अर्थ नहीं, पर भारत के संदर्भ में इसका प्रतीक महत्व था। आईएमएफ को गरीब देशों को कर्ज देने के लिए मुद्रा की ज़रूरत थी। हमने उस ज़रूरत को पूरा भी किया और अपने स्वर्ण भंडार को बढ़ाया। हालात ठीक रहते तो पिछले साल कॉमनवैल्थ गेम्स के साथ हम अपने देश को उसी तरह शोकेस कर सकते थे जैसे 1964 के तोक्यो ओलिम्पिक में जापान ने और 2008 के बीजिंग ओलिम्पिक में चीन ने किया। या जैसे पिछले साल वर्ल्ड कप फुटबॉल प्रतियोगिता के मार्फत दक्षिण अफ्रीका ने किया।
भारत को शोकेस करना आसान काम नहीं है। हमारी अर्थ-व्यवस्था ने अभी तक वैसा चमत्कारी काम नहीं किया है जैसा 1964 तक जापान कर चुका था। चीन के पास आर्थिक विकास है, पर वहाँ अन्ना हजारे या रामदेव के आंदोलन नहीं हैं। और न भोंपू लेकर बीच-बाज़ार में खड़ा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया है जो आज इसकी गाता है और कल उसकी। पिछले कुछ महीने में प्रधानमंत्री के मीडिया के साथ तीन प्रमुख संवाद हुए हैं। एक विज्ञान भवन की प्रेस कांफ्रेंस, दूसरा टीवी सम्पादकों से संवाद और तीसरा यह विचार-विमर्श। हर बार मीडिया की सुर्खी बनती है कि प्रधानमंत्री लाचार नहीं हैं, कमज़ोर नहीं हैं। या सोनिया गांधी की ताकत कितनी है, राहुल गांधी प्रधानमंत्री बनेंगे या नहीं और और गठबंधन धर्मा क्या है। मीडिया के पास भी गम्भीर सवाल नहीं हैं।
सरकार को यह समझने की कोशिश करनी चाहिए कि आम जनता को काला धन, भ्रष्टाचार और पेट्रोलियम की कीमतें क्यों आकर्षित करतीं हैं। यूपीए-दो के आगमन के एक साल पहले से महंगाई का किस्सा चल रहा है। आर्थिक विकास के साथ महंगाई बढ़ेगी, यह बात समझ में आती है, पर क्या यह सिर्फ इतना भर है। ऐसा है तो हम अचानक वायदा बाजार में कुछ जिन्सों के कारोबार पर रोक क्यों लगाते हैं? कभी प्याज का निर्यात करते हैं, कभी रोक देते हैं। चुनाव होने तक पेट्रोल की कीमतों की वृद्धि क्यों रोके रखते हैं?
सरकार के सामने आर्थिक सुधारों का बड़ा एजेंडा सामने है। आर्थिक विकास की दर भी बढ़ी है। प्रशासनिक-राजनैतिक सुधारों को लेकर जो आंदोलन अन्ना-रामदेव वगैरह खड़े कर रहे हैं उनका इंतज़ार सरकार क्यों करती रही? प्रधानमंत्री कहते हैं कि मैं खुद को लोकपाल की परिधि में रखने को तैयार हूँ। पर क्या यह मनमोहन सिंह को दायरे में लाने का सवाल है? मनमोहन सिंह से शिकायत बहुत थोड़े से लोगों को है। शिकायत व्यवस्था से है, जिसका रंग-ढंग नहीं बदलता।
प्रधानमंत्री ने मीडिया की आलोचना में जो कहा है, वह पूरी तरह गलत नहीं, पर यह पूरा सच नहीं। पूरा देश चोर है, ऐसी धारणा बनाना गलत है। तमाम घोटाले सामने आए हैं तो किसी न किसी मशीनरी ने काम किया ही है। दुर्भाग्य है कि इस दौर में संज़ीदगी, मार्केटबाज़ी और भोपूबाज़ी के बीच फर्क करना मुश्किल हो गया है। समूचा मीडिया भी एक जैसा नहीं है। पर मीडिया समाज का दर्पण है। वह क्या कर लेगा? सीडब्ल्यूजी, टू-जी, आदर्श सोसायटी और केजी बेसिन के मामले मीडिया ने तो नहीं रचे? सरकार ने फौरन स्थिति को समझने के बजाय क्या शुरू में राजा को बचाने की कोशिश नहीं की थी? जब केन्द्र के मंत्री अपने सार्वजनिक वक्तव्यों की भाषा को संतुलित न कर पाएं तब आम लोगों से क्या उम्मीद की जाए। देश भिंडी-बाज़ार में तब्दील होता जा रहा है। ऐसा होने से रोकने में सरकार, विपक्ष, सिविल सोसायटी, मीडिया और जनता सबकी जिम्मेदारी है। पर लगता है कि फिलहाल सब अपने फायदे की तलाश में हैं।
आम जन धारणा के विरूद्ध लेखन आसान काम नही है आपने बहुत कुछ लिख कुछ छोड़ भी दिया सरकार की मुख्य समस्या उसके मंत्रियो और प्रवक्ताओ की भाषा और हाव भाव है उनके व्यहवार से लगता है कि वे तानाशाही का प्रतीक है इसके अलावा भी हर आरोप पर भाजपा पर प्रतिआरोप लगाने की नी ती भी विफ़ल रही है अच्छा होता कि सरकार अपने कुछ बड़े मंत्रियो की छुट्टि कर जनाअक्रोश को खत्म करती तो देश को मिस्त्र बनाने की अवधारणा का संकट सामने न होता
ReplyDeleteवस्तुतः भाजपा और कांग्रेस एक ही सिक्के के दो पहलू हैं.
ReplyDeletesatya vachan.!
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