इसी मंगलवार को पाकिस्तान
के कार्यवाहक राष्ट्रपति फारुक एच नाइक ने 34 वर्षीय हिना रब्बानी खार को देश के विदेश
मंत्री पद की शपथ दिलाई। संयोग से जिस वक्त उन्होंने शपथ ली उस वक्त राष्ट्रपति और
प्रधानमंत्री दोनों देश के बाहर थे। हिना पिछले पाँच महीने से विदेश राज्यमंत्री के
स्वतंत्र प्रभार के साथ काम कर रहीं थीं। उन्हें अचानक इसी वक्त शपथ दिलाकर मंत्री
बनाने की ज़रूरत दो वजह से समझ में आती है। एक तो वे 22-23 जुलाई
को बाली में हो रहे आसियान फोरम में पाकिस्तानी दल का नेतृत्व करेंगी। और शायद उससे
बड़ी वजह यह है कि वे 27 जुलाई को भारत के विदेश मंत्री एसएम कृष्ण से बातचीत के लिए
दिल्ली आ रहीं हैं। 13 जुलाई के मुम्बई धमाकों के फौरन बाद हो रही भारत-पाकिस्तान वार्ता
कई मायनों में महत्वपूर्ण है। 26 नवम्बर 2008 को हुए मुम्बई हमले के बाद से रुकी पड़ी
बातचीत फिर से शुरू होने जा रही है। और उन धमाकों के ठीक दो हफ्ते बाद जिन्होंने
26/11 की याद ताज़ा कर दी। पाकिस्तान चाहता तो हिना रब्बानी खार
राज्यमंत्री के रूप में भी बातचीत के लिए आ सकतीं थीं। या मुम्बई धमाकों का नाम लेकर
बातचीत को कुछ दिन के लिए टाला जा सकता था। पर ऐसा नहीं हुआ। इसका मतलब है कि दोनों
देशों ने परिस्थितियों को समझा है।
19 जुलाई को जिस रोज़
हिना शपथ ले रहीं थीं उस रोज दो घटनाएं और हो रहीं थीं, जिनका भारत-पाकिस्तान वार्ता
से सीधा रिश्ता न सही, पर पृष्ठभूमि से रिश्ता है। 19 को दिल्ली में भारत-अमेरिका सामरिक
वार्ता चल रही थी, जिसके लिए विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन दिल्ली आईं थीं। उसी रोज़
अमेरिका के वर्जीनिया की एक अदालत में अमेरिकी जाँच एजेंसी एफबीआई ने 45 पेज का हलफनामा
दाखिल किया, जिसमें कहा गया है कि पाकिस्तान सरकार और आईएसआई पिछले दो दशक से कश्मीरी
अमेरिकन कौंसिल (केएसी) को पैसा दे रही थी। कश्मीरी अमेरिकन कौंसिल एक एनजीओ है। उसका
उद्देश्य कश्मीरी लोगों के आत्मनिर्णय के अधिकार-सम्बद्ध संघर्ष से अमेरिकी नागरिकों
का ज्ञानवर्धन करना है। अमेरिकी कानूनों के अनुसार विदेशी सरकारें अमेरिकी नीतियों
को प्रभावित करने के लिए देश में इस प्रकार के प्रचार कार्य के लिए पैसा नहीं लगा सकतीं।
एफबीआई ने सैयद गुलाम नबी फाई नाम के एक व्यक्ति को गिरफ्तार किया है, जो यह कश्मीर
सेंटर चलाते थे। एक और पाकिस्तानी का नाम इसमें है, जिसे पकड़ा नहीं जा सका है। बाहरी
तौर पर यह मामला छोटा लगता है, पर इसमें आईएसआई के ब्रिगेडियर जावेद अज़ीज़ और कुछ
दूसरे लोगों का नाम आने के बाद इसकी रंगत बदल गई है।
भारत-पाकिस्तान रिश्ते
दो दिन में नहीं बदल सकते। लाहौर बस यात्रा से आगरा सम्मेलन तक का हमारा अनुभव यही
है। पर वे लगातार खराब भी नहीं रह सकते। मुम्बई धमाकों से मुम्बई धमाकों तक का संदेश
भी यही है। रिश्तों को बिगाड़े रखने वाली ताकतें दोनों देशों के भीतर मौजूद हैं, जो
एक-दूसरे को प्राण वायु प्रदान करतीं हैं। पर पाकिस्तान में एक पूरा प्रतिष्ठान भारत-विरोध
के नाम पर खड़ा है। उसका मूल स्वर है ‘कश्मीर बनेगा पाकिस्तान’। पाकिस्तानी राजनीति और सेना ने कश्मीर के मामले को बेहद ऊँचे तापमान पर गर्मा
कर रखा है। पाकिस्तान को हर तरह के भारतीय संदर्भों से काट कर एक कृत्रिम देश बसाने
की कामना उसे धीरे-धीरे तबाही की ओर ले जा रही है। इस प्रयास में इस देश ने अपनी सांस्कृतिक-सामाजिक पहचान तक को मिटाना शुरू कर दिया है। इसी पाकिस्तान के भीतर दो धारणाएं और काम करतीं
हैं। एक है वहाँ उभरती सिविल सोसायटी की, जिसके मन में देश को आधुनिक और प्रगतिशील
बनाने की इच्छा है। दूसरी है भारत के साथ सांस्कृतिक, सामाजिक रिश्ते बनाए रखने की
कामना। ऐसा नहीं मान लेना चाहिए कि पूरा पाकिस्तान जेहादी मानसिकता का शिकार है। हाँ
ऐसी कामना जरूर कुछ लोगों के मन में है कि इस देश को जल्द से जल्द जेहादिस्तान बना
दिया जाए। देश की गरीबी और अशिक्षा इस मानसिकता की पैठ बनाए रखने में मददगार है।
बहरहाल, भारत के साथ
रिश्तों का बनना-बिगड़ना पाकिस्तान के अंदरूनी हालात पर भी निर्भर करेगा। यह पहला मौका
है जब पाकिस्तान में जम्हूरी सरकार इतने लम्बे दौर तक चली है। यदि यह अपना कार्यकाल
पूरा कर लेती है तो एक बड़ी उपलब्धि होगी। देश की राजनैतिक केमिस्ट्री को इसके साथ
ही बदलना होगा। इसके आर्थिक बदलाव से भी राजनैतिक अवधारणाओं में बदलाव आएगा। सतत जेहादी
माहौल में रहकर आधुनिक किस्म का आर्थिक विकास सम्भव नहीं है। एकबारगी पाकिस्तानी मध्य
वर्ग की जड़ें जम जाएंगी तो फैसले बदल जाएंगे। पर इस काम में तकरीबन दस साल और लगेंगे।
तब तक कई किस्म के ऊँच-नीच से हमारा सामना होगा। धमाकों के गर्दो-गुबार भी हो सकते
हैं और बातचीत के खुशनुमा मौके भी।
पाकिस्तान अपने जन्म
के बाद से भारत-विरोध की जिस ग्रंथि से पीड़ित है वह उसे पहले पश्चिमी देशों की ओर
ले गई। और अब उसे चीन की ओर ले जा रही है। इस दौरान उसने विदेशी सहायता के सहारे जीना
सीख लिया है। पश्चिमी देश तो मुफ्त की मदद दे सकते थे, पर चीन से ऐसी उम्मीद नहीं करनी
चाहिए। दूसरे पाकिस्तान को अपनी असुरक्षा ग्रंथि से बाहर आना चाहिए। इस असुरक्षा ने
उसे अफगानिस्तान की ओर धकेल दिया है। अफगानिस्तान में विकास के खासे लम्बे दौर की ज़रूरत
है। उसके पहले वहाँ राजनैतिक शांति चाहिए। पाकिस्तान वहाँ भारत की उपस्थिति नहीं चाहता।
यह नासमझी और इतिहास-विरोधी बात है।
भारत-पाकिस्तान बातचीत
में सबसे ज्यादा जिन लफ्ज़ो का इस्तेमाल होता है वे हैं ‘कांफिडेंस बिल्डिंग मैज़र्स(सीबीएम)’। इस सीबीएम का रास्ता आर्थिक
है। दोनों देशों के बीच आर्थिक मामलों में सहयोग की जबर्दस्त सम्भावनाएं मौजूद हैं,
पर पाकिस्तान का ‘कश्मीर कॉज़’ व्यापारिक सहयोग में आड़े आता
है। हम अक्सर चीनी या प्याज लेते-देते रहते हैं, पर इससे आगे नहीं जाते। दोनों देशों
के बीच इस वक्त करीब दो अरब डॉलर का सालाना व्यापार है। इसके मुकाबले दुबई और सिंगापुर
वगैरह के रास्ते होने वाला छद्म-व्यापार कम से कम चार अरब का है। भारत-पाकिस्तान वार्ता
की सुगबुगाहट पिछले कई महीनों से चल रही है। पिछले अप्रेल में दोनों देशों के विदेश
सचिवों की बैठक में कुछ फैसले हुए। दक्षिण एशिया मुक्त व्यापार क्षेत्र बनाने के वास्ते
पाकिस्तान की ओर से भारत को मोस्ट फेवर्ड नेशन का दर्जा देने में देर हो रही है। हालांकि
अब संकेत हैं कि यह काम हो जाएगा।
दोनों देशों के बीच राजनैतिक
धरातल पर रिश्ते कितने ही खराब रहे हों, दोनों देशों के व्यापारियों के रिश्ते बहुत
अच्छे हैं। 26/11 के बाद से तमाम वार्ताएं रुक गईं, पर व्यापार किसी न किसी
शक्ल में चलता रहा। वह तब जबकि औपचारिक रूप से अड़ंगे लगते रहे। कश्मीर में हालात सामान्य
करने में नियंत्रण रेखा पर व्यापार की अनुमति मिली है। अभी हफ्ते में दो दिन व्यापार
होता है। दोनों ओर के व्यापारी चाहते हैं कि इसके दिन बढ़ाए जाएं। दोनों के बीच किसी
किस्म की बैंकिंग व्यवस्था नहीं है, इसलिए पूरा व्यापार बार्टर के आधार पर होता है।
दोनों ओर के व्यापारी इस मामले को राजनैतिक बनने नहीं देते। इसी सोमवार को दोनों देशों
के बीच नियंत्रण रेखा के व्यापार को लेकर भी बातचीत हुई है। कश्मीर की समस्या के समाधान
का एक व्यावहारिक रास्ता यह है कि धीरे-धीरे नियंत्रण रेखा को पारदर्शी बना दिया जाय।
यानी आवागमन में पाबंदिया न रहें। यह काम व्यापार के मार्फत अच्छी तरह से हो सकता है।
एकबारगी लोगों के आर्थिक हित जुड़ेंगे तो हिंसा के बादल छँटेंगे।
संयोग है कि पिछले साल
जुलाई में भारतीय विदेश मंत्री एसएम कृष्णा की पाकिस्तान यात्रा के दौरान पाकिस्तान
के तत्कालीन विदेशमंत्री शाह महमूद कुरैशी के कड़वे वक्तव्य के कारण माहौल खराब हो
गया था। दोनों देशों के राजनयिकों ने हालात को सम्हाला। शाह महमूद कुरैशी को इस साल
फरवरी में अमेरिका विरोधी वक्तव्यों के कारण हटा दिया गया। उनकी जगह आईं नई विदेश मंत्री
शायद रिश्तों में हिना की खुशबू बिखेरने में कामयाब हों। आमीन।
जनवाणी में प्रकाशित
भारत और पाकिस्तान दोनों जगह अलगाव पसंद लोग साम्राज्यवाड़ियों की पसंद हैं न कि अपने देशों की आम जनता की। बेहतर विकल्प यह है कि भारत,पाकिस्तान और बांग्ला देश मिल कर एक संघ बनाएँ और एशिया के देशों (चीन समेत)घनिष्ठता स्थापित करें। अमेरिका पर निर्भरता रहने तक आतंक और अशांति को कभी भी समाप्त नहीं किया जा सकता है।
ReplyDeleteक्या अमेरिका हमें ऐसा करने से रोकता है?
ReplyDeletehame rokta to nahi hai par america ka pressue hamare high comman pa jaru dikhata hai. hum us ke pichlaggu matra hai .
ReplyDeleteहाँ इसमें दो राय नहीं कि भारत पर अमेरिका का प्रेशर नज़र आता है, पर मैं केवल यह समझना चाहता हूँ कि क्या भारत-पाकिस्तान महासंघ बनने से अमेरिका रोकता है? दूसरे क्या हम यह मानते हैं कि विभाजन अंग्रेजों ने कराया। भारत के लोग विभाजन नहीं चाहते थे? तीसरे क्या आज कोई साम्राज्यवाद है? है तो अमेरिका के अलावा कौन-कौन से देश साम्राज्यवादी खेमे में हैं? साथ ही यह समझना चाहता हूँ कि साम्राज्यवाद के अर्थ क्या हैं? क्योंकि वह अर्थ तो खत्म हो गया जो उन्नीसवीं और बीसवीं सदी में था। अब कोई किसी का गुलाम देश तो नहीं है।
ReplyDelete