अगले तीन-चार दिन राष्ट्रीय राजनीति के लिए बड़े महत्वपूर्ण
साहित होने वाले हैं। दिल्ली की यूपीए सरकार आंध्र प्रदेश में तेलंगाना की राजनैतिक
माँग और जगनमोहन रेड्डी के बढ़ते प्रभाव के कारण अर्दब में आ गई है। वहाँ से बाहर निकलने का रास्ता नज़र नहीं
आता। उधर टू-जी की नई चार्जशीट में दयानिधि मारन का नाम आने के बाद एक और मंत्री के
जाने का खतरा पैदा हो गया है। अब डीएमके के साथ बदलते रिश्तों और केन्द्र सरकार को
चलाए रखने के लिए संख्याबल हासिल करने की एक्सरसाइज चलेगी। अगले कुछ दिनों में ही केन्द्रीय
मंत्रिमंडल में बहु-प्रतीक्षित फेर-बदल की सम्भावना है। राजनीति के सबसे रोचक या तो
अंदेशे होते हैं या उम्मीदें। शेष जोड़-घटाना है। संयोग से तीनों तत्वों का योग इस
वक्त बन गया है। शायद मंत्रिमंडल में हेर-फेर के काम को टालना पड़े। यह वक्त एक नई
समस्या और खड़ी करने के लिए मौज़ूं नहीं लगता।
आंध्र प्रदेश में कांग्रेस ने लगातार दो सेल्फ गोल किए हैं।
तेलंगाना मामले को पहले उठाकर और फिर छोड़कर कांग्रेस ने अपने लिए मुसीबत मोल ले ली
है। उधर जगनमोहन रेड्डी से जाने-अनजाने पंगा लेकर कांग्रेस ने आंध्र में संकट मोल ले
लिया है। दोनों बातें एक-दूसरे की पूरक साबित हो रहीं हैं। सन 2004 में चुनावी सफलता
हासिल करने के लिए कांग्रेस ने तेलंगाना राज्य बनाने का वादा कर दिया था। संयोग से
केन्द्र में उसकी सरकार बन गई। तेलंगाना राष्ट्र समिति इस सरकार में शामिल ही नहीं
हुई, यूपीए के कॉमन मिनीमम प्रोग्राम में राज्य बनाने के काम को शामिल कराने में कामयाब
भी हो गई थी। नवम्बर 2009 में के चन्द्रशेखर राव के आमरण अनशन को खत्म कराने के लिए
गृहमंत्री पी चिदम्बरम ने राज्य बनाने की प्रक्रिया शुरू करने का वादा तो कर दिया,
पर सबको पता था कि यह सिर्फ बात मामले को टालने के लिए है। चिदम्बरम का वह वक्तव्य
बगैर सोचे-समझे दिया गया था और इस मसले पर कांग्रेस की बचकाना समझ का प्रतीक था। इस
बीच श्रीकृष्ण समिति बना दी गई, जिसने बजाय समाधान देने के कुछ नए सवाल खड़े कर दिए।
इस रपट को लेकर आंध्र प्रदेश की हाईकोर्ट तक
ने अपने संदेह व्यक्त किया कि इसमें समाधान नहीं, तेलंगाना आंदोलन को मैनेज करने के
बाबत केन्द्र सरकार को हिदायतें हैं।
तेलंगाना क्षेत्र से कांग्रेस को चुनाव में काफी सफलता मिली
थी। प्रदेश के 42 में से 17 सासंद कांग्रेस के हैं, जिन्हें जिताने में सबसे बड़ी भूमिका
तेलंगाना की है। अब इस इलाके से एकमुश्त इस्तीफों के बाद क्या होगा? इस मामले में कांग्रेस पूरी तरह निष्क्रिय साबित हुई है। पार्टी
अब छह महीने का समय और माँग रही है। पर लगता है कि यह उसकी टालने की नीति का हिस्सा
है। पार्टी अभी तक समझ नहीं पाई है कि समस्या का समाधान क्या है। सरकार के पास अभी
तक तेलंगाना क्षेत्र को विशेष दर्जा देने और हैदराबाद के लिए विशेष पैकेज तैयार करने
की योजना दिखाई पड़ रही है। पर लगता नहीं कि इतने मात्र से इस क्षेत्र के लोग मान जाएंगे।
यह समस्या हाल के वर्षों में कांग्रेस की ही देन है। और वह खुद
ही इससे किनाराकशी कर रही है। वह चाहती है कि आंध्र प्रदेश विधान सभा नया राज्य बनाने
का प्रस्ताव पास करे, जैसे उत्तराखंड, झारखंड और छत्तीसगढ़ की स्थापना में हुआ था।
पर यह सम्भव नहीं है, क्योंकि जितना ताकतवर तेलंगाना आंदोलन है उतना ही ताकतवर राज्य
को वृहत् रूप में बनाए रखने का आंदोलन है। यथास्थिति बनाए रखने से रायलसीमा और तटीय
क्षेत्र के लोग तो खुश होंगे, पर तेलंगाना क्षेत्र में कांग्रेस की राजनैतिक शक्ति
क्षीण हो जाएगी। इसलिए कांग्रेस अब कुएं और खाई के बीच खड़ी है। दोनों चाहते हैं कि
वह इधर आए या उधर जाए। कांग्रेस की अभी तक की नीति तेलंगाना राज्य समिति के साथ गुप-चुप
बात करके समाधान खोजने की रही है। पर यह एक विशाल जनांदोलन बन चुका है। इसमें किसी
के व्यक्तिगत मानने या न मानने से काम नहीं चलेगा। राज्य बनाने का फैसला कर भी लिया
गया तो हैदराबाद को लेकर आमराय बनाना मुश्किल होगा। तेलंगाना में एक खास तरह की लहर
है और रायलसीमा और तटीय आंध्र प्रदेश में संयुक्त आंध्र की लहर है। हैदराबाद में पूरी
तरह संशय है। कांग्रेस की तरह वह भी नहीं समझ पा रहा है कि इधर जाए या उधर जाए।
परम्परा से आंध्र चुनौती पेश करने वाला राज्य है। आज़ादी के
बाद देश का पहला राजनैतिक संकट तेलंगाना के कम्युनिस्ट आंदोलन के साथ खड़ा हुआ था,
जो आज आंध्र के बाहर नक्सली आंदोलन के रूप में चुनौती पेश कर रहा है। भाषा के आधार
पर देश का पहला राज्य आंध्र ही बना था, पर उस राज्य को एक बनाए रखने में भाषा मददगार
साबित नहीं हो रही है। पिछले हफ्ते की घटनाओं के बाद से भावनात्मक रूप से तेलंगाना
ने खुद को अलग कर लिया है। राजनैतिक रूप से अलग कैसे होगा, यह देखना बाकी है। तेलंगाना
को अलग राज्य बनाने की माँग देश के पुनर्गठन का सबसे महत्वपूर्ण कारक बनी थी। 1953
में पोट्टी श्रीरामुलु की आमरण अनशन से मौत के बाद तेलुगुभाषी आंध्र का रास्ता तो साफ
हो गया था, पर तेलंगाना इस वृहत् आंध्र योजना में जबरन फिट किया गया। राज्य पुनर्गठन
आयोग की सलाह थी कि हैदराबाद को विशेष दर्जा देकर तेलंगाना को अलग राज्य बना दिया जाए
और शेष क्षेत्र अलग आंध्र बने। नेहरू जी भी आंध्र और तेलंगाना के विलय को लेकर शंकित
थे। उन्होंने शुरू से ही कहा था कि इस शादी में तलाक की संभावनाएं बनी रहने दी जाएं।
तेलंगाना आंदोलन के साथ आंध्र में कांग्रेस का मुकाबला जगनमोहन रेड्डी की वाईएसआर
कांग्रेस से भी है। पुलिवेन्दुला विधान सभा और कडपा लोकसभा सीटों पर वाईएसआर की पत्नी
विजयम्मा और बेटे जगनमोहन रेड्डी ने विजय हासिल करके कांग्रेस का ज़ायका बिगाड़ दिया
है। जगनमोहन रेड्डी क्या अब अपने समर्थक सांसदों और विधायकों से इस्तीफे दिलवाकर उन्हें
चुनाव में उतारेंगे? कहा यह भी जा रहा है कि तेलंगाना इस्तीफों के पीछे जगनमोहन का
हाथ है। इसके विपरीत कांग्रेस के खेमे से संकेत मिल रहे हैं कि हम तेलंगाना बना दे
तो कम से कम इस इलाके में हमारा वर्चस्व कायम हो जाएगा। इससे रायलसीमा और तटीय आंध्र
में कितना राजनैतिक नुकसान होगा, इसकी गणना अभी किसी ने नहीं की है। फिर तेलंगाना में
कांग्रेस ही सारा श्रेय कैसे लेगी? क्या तेलंगाना राज्य
समिति इसका श्रेय नहीं लेगी जो आंदोलन चला रही है? तेलुगु देशम और चिरंजीवी
की पार्टियों का गणित भी लगने लगा है। आखिरकार सारे आंदोलन विधानसभा या लोकसभा में
जगह पाने के लिए ही चलाए जाते हैं। टीडीपी भी पिछले कुछ महीनों से तेलंगाना के समर्थन
में आंदोलन चला रही है। रायलसीमा और तटीय आंध्र में जगनमोहन रेड्डी का बेहतर प्रभाव
है। तब क्या कांग्रेस के सामने दोनों इलाकों में हार का खतरा है? व्यक्तिगत फायदे-नुकसानों का गणित भी लगाया जा रहा है।
मंजुल का कार्टून साभार |
तेलंगाना की माँग मान ली
गई तो किरण कुमार रेड्डी की जगह किसी और को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठाना होगा।
किरण कुमार को जगनमोहन को संतुलित करने के लिए लाया गया था। वह काम फौरी तौर पर तो
हुआ, पर नया राज्य बनाने की घोषणा होते ही स्थितियाँ बदल जाएंगी। समय सबसे बड़ा बलवान है और राजनीति में तो यह सबसे बड़ा पहलवान है। कौन सी बात
किसपर कहाँ असर डालती है इसका पता नहीं लगता। तेलंगाना भी इसी तरह कुछ के लिए उम्मीदों
और कुछ के लिए खौफनाक अंदेशों का संदेश लेकर आ रहा है। पर क्या तेलंगाना बनेगा? और नहीं बनेगा तो क्या होगा?
अच्छा और जानकारी वर्धक लेख
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