कुछ खेल ऐसे भी हैं, जिनमें इस एशियाड में मनोनुकूल सफलता नहीं मिली। इनमें कुश्ती और भारोत्तोलन शामिल हैं। कॉमनवैल्थ खेलों में हमने इन्हीं खेलों में बड़ी सफलता हासिल की थी। इसकी एक वजह यह भी है कि एशिया खेलों में कंपटीशन ज्यादा मुश्किल है। दूसरी तरफ हमारे खिलाड़ी घुड़सवारी, ब्रिज, गोल्फ, शतरंज, वुशु और सेपक टकरा जैसे खेलों में भी मेडल जीतकर लाए हैं। फिर भी कम से कम दो खेल ऐसे हैं, जिनमें हमें विश्व स्तर को छूना है। एक है जलाशय से जुड़े खेल यानी एक्वैटिक्स और दूसरे जिम्नास्टिक्स। इन दोनों खेलों में मेडलों की भरमार होती है।
खेल भी कई मायनों में सामाजिक-दर्पण होते हैं।
भारतीय महिला खिलाड़ियों की सफलता सामाजिक बदलाव को रेखांकित कर रही है। भारत को
मिले 107 मेडलों में से 50 पुरुष वर्ग में, 47 महिला वर्ग में और 10 मिश्रित वर्ग
को मिले हैं। यह हमारा सामाजिक सच भी है। बहरहाल जेवलिन थ्रो में अन्नू रानी ने
गोल्ड मेडल जीतकर एशियाड के इतिहास में पहली भारतीय महिला होने का गौरव हासिल किया
है। वे खेतों में गन्ने फेंककर एथलीट बनी हैं। नीरज चोपड़ा ने गोल्ड जीता पर उनके
साथ किशोर कुमार जेना ने न केवल सिल्वर जीता, बल्कि अपने जीवन का सर्वश्रेष्ठ
प्रदर्शन किया। इसका मतलब है कि भारत से जेवलिन में कुछ और नए चैंपियन सामने आने
वाले हैं।
तेजस्विन शंकर का डिकैथलन में सिल्वर मेडल
उल्लेखनीय प्रदर्शन है। पर सबसे ज्यादा उल्लेखनीय हैं पारुल चौधरी के लगातार दो
दिन में दो मेडल। इन सभी खिलाड़ियों की पृष्ठभूमि को देखें, तो ज्यादातर गाँवों से
हैं और अपेक्षाकृत साधनहीन परिवारों से ताल्लुक रखते हैं। इनमें सुदूर पूर्वोत्तर,
दक्षिण भारत, महाराष्ट्र, पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश समेत सभी राज्यों से आते
हैं। सबसे बड़ी उपलब्धि है लड़कियों की सफलता, जो भविष्य का संकेत है।
इसबार के एशियाड में कुल 45 देशों ने भाग लिया,
जिनमें से 41 ने कोई न कोई मेडल जीता। कुल मिलाकर 1593 मेडल जीते गए, जिनमें से
107 जीतकर भारत चौथे नंबर पर रहा। 2018 में हम 70 मेडल जीतकर आठवें स्थान पर रहे
थे। पर इस सफलता को तुलनात्मक रूप से देखें, तो चीन ने 383 मेडल जीतकर हमें काफी
पीछे छोड़ दिया। क्या हम उसकी बराबरी कर सकते हैं? जरूर
कर सकते हैं।
चीन दो दशक पहले वैश्विक-स्तर पर पहुँच चुका
है। हमसे काफी आगे, पर एक्वैटिक्स और जिम्नास्टिक्स के कारण यह अंतर बहुत बड़ा है।
इसबार के एशियाड में एक्वैटिक्स में 167 मेडल दिए गए, जिनमें से 82 चीन ने जीते।
हमने एक भी नहीं। वहीं जिम्नास्टिक्स में 51 मेडल थे, जिनमें से चीन ने 19 जीते।
यानी 101 मेडल उसे इन दोनों वर्गों में मिले, जहाँ हमारी उपलब्धि शून्य थी। हमें
इन दो वर्गों पर भी ध्यान देना होगा। इन दोनों के लिए जो इंफ्रास्ट्रक्चर चाहिए,
वह महंगा है और उसके प्रशिक्षक भी बड़ी संख्या में हमारे पास नहीं हैं।
इसबार भारत को सबसे बड़ी सफलता शूटिंग,
तीरंदाजी और एथलेटिक्स में मिली है। शूटिंग के कुल 102 मेडलों में से 22 भारतीय
टीम ने जीते। केवल मेडल ही नहीं जीते कई स्पर्धाओं में विश्व रिकॉर्ड भी बनाए।
2018 में शूटिंग में भारतीय टीम को 9 मेडल मिले थे। एथलेटिक्स में इसबार 144 में
से 29 और तीरंदाजी के 30 में से 9 मेडल भारत को मिले, जबकि 2018 में एथलेटिक्स में
20, शूटिंग में केवल दो मेडल ही मिले थे। तीरंदाजी में भी भारतीय खिलाड़ियों ने
विश्व रिकॉर्ड कायम के। कंपाउंड प्रतियोगिता संभवतः ओलिंपिक खेलों में भी शामिल
होने जा रही है, जिसका लाभ हमें भविष्य में मिलेगा।
यह सफलता सरकारी खेल-नीति और धीरे-धीरे तैयार
होते इंफ्रास्ट्रक्चर और विज्ञान तथा तकनीक के इस्तेमाल की ओर भी इशारा कर रही
हैं। इस सिलसिले में सरकारी नीतियों का जिक्र भी होना चाहिए। सितंबर 2014 में,
युवा मामले और खेल मंत्रालय ने ओलिंपिक खेलों में पदक जीतने के
उद्देश्य को पूरा करने के प्रयास में टारगेट ओलिंपिक पोडियम स्कीम (टॉप्स) शुरू की
थी। इसका उद्देश्य टॉप्स एथलीटों की निगरानी के लिए एक तकनीकी सहायता टीम बनाना है
और सभी प्रकार की सहायता प्रदान करना है। ‘खेलो इंडिया’
कार्यक्रम के तहत खिलाड़ियों को काफी पहले खोजकर उन्हें छात्रवृत्ति प्रदान करके
मदद करना है। अच्छे कोचों और प्रशिक्षण सुविधाओं के लिए केंद्र और राज्य सरकारों
ने भी काफी पैसा लगाया है। इसके परिणाम अब दिखाई पड़ने लगे हैं। खिलाड़ियों की एक
पीढ़ी अपने बाद की पीढ़ी को तैयार करती है।
पुरुषों की हॉकी स्पर्धा में गोल्ड मेडल जीतकर
भारतीय टीम ने देशवासियों का सिर ऊँचा कर दिया। यह एक ऐसा खेल है, जिसमें हम नीचे
नहीं देखना चाहते। इस जीत के साथ भारतीय टीम ओलिंपिक खेलों में भाग लेने की हकदार
हो गई है। लड़कियों को रजत पदक से संतोष करना पड़ा और उन्हें ओलिंपिक में भाग लेने
के लिए क्वालिफाइंग प्रतियोगिता में भाग लेना पड़ेगा। भारतीय हॉकी टीम को जबसे
ओडिशा सरकार ने स्पांसर करना शुरू किया है और राज्य में एस्ट्रोटर्फ के कई मैदान
तैयार किए हैं, उनका असर टीम के प्रदर्शन पर दिखाई पड़ रहा है। सबसे बड़ी बात है
भारतीय टीम के खिलाड़ियों की फिटनेस, जो वैज्ञानिक पद्धतियों के इस्तेमाल से ही
संभव हुई है। भारतीय टीम अब मनोवैज्ञानिक-विशेषज्ञों की मदद भी ले रही है। खेलों
में सफलता का यह भी एक महत्वपूर्ण पक्ष है।
सात्विकसाइराज रंकीरेड्डी और चिराग शेट्टी ने दक्षिण
कोरिया के चोइ सोलग्यु और किम वोन्हो को सीधे गेम में 21-18, 21-16 से हराकर एशियाई खेलों की बैडमिंटन पुरुष डबल्स स्पर्धा में
ऐतिहासिक स्वर्ण पदक जीता। इन दोनों खिलाड़ियों की ऊर्जा का लाभ तब मिला जब उन्हें
डेनमार्क के कोच मठायस बो की मदद मिली। उन्होंने अपने खेल में आक्रामकता के साथ
जरूरत पड़ने पर रक्षा की शैली को भी अपनाया। हमने देखा कि अनुभवी कोच का साथ हो,
तो ऊर्जा चमत्कार दिखाती है।
एशियाई खेल स्पर्धाएं हालांकि ओलिंपिक-स्तर से
कमतर होती हैं, पर पिछले कुछ दशकों में एशियाई देशों का खेल-स्तर काफी सुधरा है। 2020
के तोक्यो ओलिंपिक में सबसे ज्यादा मेडल पाने वाली अमेरिका की टीम के बाद अगले दो
स्थानों पर चीन और जापान की टीमें थीं। इन दो देशों के अलावा दक्षिण कोरिया, चीन
ताइपेह, हांगकांग और सिंगापुर वगैरह ऐसे देश हैं, जिनका जीवन-स्तर भारत की
तुलना में बेहतर है। केवल आर्थिक-स्तर ही खेलों में सफलता का आधार नहीं होता।
लोगों का रहन-सहन और उनकी भौगोलिक परिस्थितियाँ भी महत्वपूर्ण होती हैं। मसलन लंबी
दौड़ों में केन्या के धावक सबसे आगे रहते हैं।
आर्थिक-स्थितियाँ देशों को पदक तालिका में आगे
रखती हैं। पश्चिम एशिया के बहरीन, सऊदी अरब और कुवैत जैसे देशों की टीमों में
अफ्रीकी मूल के काफी खिलाड़ी इसलिए होते हैं, क्योंकि इन देशों में उन्हें बेहतर
पैसा और सुविधाएं मिलती है। भारतीय-नीति विदेशी खिलाड़ियों को राष्ट्रीय टीम में
शामिल करने की नहीं है। एशियाई टीमों में मध्य एशिया के उज्बेकिस्तान, कजाकिस्तान,
किर्गिस्तान जैसे देश भी हैं, जो कभी सोवियत संघ का अंग हुआ करते थे। सोवियत
व्यवस्था में खेलों पर संसाधन बड़े स्तर पर लगाए जाते थे, जिसका लाभ इन टीमों को
मिला।
संसाधनों को खिलाड़ियों तक पहुंचाने में थोड़ा और उदारता दिखाने से और खेला को खेल से दूर रख कर मैडल संख्या में बढ़ोत्तरी की जा सकती है
ReplyDeleteखेलो इंडिया के तहत अच्छे खिलाड़ियों को आठ साल तक पाँच लाख रुपये की सालाना-वृत्ति दी जाती है। शिकायतें फिर भी होंगी, पर सरकारी सक्रियता काफी बढ़ी है।
ReplyDeleteजी सहमत | उत्तराखंड के सन्दर्भ में अगर देखा जाये बहुत संभावनाएं और क्षमाताएं हैं संसाधनों में बढ़ोत्तरी की जा सकती है |
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